Monday 30 October 2017

शरद का स्वागत


पहाड़ों
का मौसम
फ़िज़ांओं में 
उतर आया है।
चाँदनी ने 
सारी रात 
खूब नेह 
बरसाया है।

ओस में भीगी 
फूल और पत्ते 
ताजगी 
जगाने लगी,
करवट 
ले रहा
मौसम
हवाओं ने 
एहसास 
कराया है।

नीले नीले 
आसमां में
रूई से 
बादल 
उड़ने लगे,
गुनगुनी 
धूप की 
बारिश ने, 
रुत को 
रंगीन 
बनाया है।

भँवर 
और तितली
फूलों से
बतियाने लगे,
गुलाब की 
खुशबू ने 
बाग का 
हर कोना 
महकाया है।

शरद के 
स्वागत में 
वादियों के 
दामन 
सजने लगे,
बहकी
हवाओं ने 
हर शय में
नया राग 
जगाया है।

       #श्वेता🍁

Saturday 28 October 2017

तुम बिन.....


चित्र साभार गूगल


तुम बिन बड़ी उदासी है।
नयन दरश को प्यासी है।।
पवन झकोरे सीले-सीले,
रूत ग़मगीन ज़रा-सी है।

दरवाज़ें है बंद लबों के,
दर्द भला कम हो तो कैसे?
मौन सिसकता साँसों में
सुर गीत पिरोये मन कैसे
 छू अधरों को कहते अश्रु
पीड़ा नमकीन ज़रा-सी है।

रात अमावस घुटन भरी,
घनघोर अंधेरा छाया है।
जुगनू तारे सब रुठ गये
खग व्याकुल घबराया है
बाती कहती है सिहर-सिहर
भोर में बाकी देर ज़रा-सी है।

बिना तुम्हारे सुरभित न हो,
पुष्प पलाश सा लगता है।
बिना रंग ज्यों फाग सजे
ना उल्लास ही जगता है
छू लो न भर दो गंध मधुर
कली गंधविहीन ज़रा-सी है।

सागर उफ़ने नित निर्विकार
जीवन का अमृत सार लिये
खारी लहरें उछली मचली
तट सूना रेत का भार लिये
तुम अंजुरी भर नीर बनो
नेह प्यासी मीन ज़रा-सी है।
  
     #श्वेता सिन्हा

  

  

Tuesday 24 October 2017

छठ:आस्था का पावन त्योहार

धरा के जीवन सूर्य और प्रकृति के उपासना का सबसे बड़ा  उत्सव छठ पर्व के रूप में मनाया जाता है।बिहार झारखंड एवं उत्तर प्रदेश की ओर आने वाली हर बस , ट्रेन खचाखच भरी हुई है।लोग भागते दौड़ते अपने घर आ रहे है।कुछ लोग साल में एक बार लौटते है अपने जड़ों की ओर,रिश्तों की टूट-फूट के मरम्मती के लिए,माटी की सोंधी खुशबू को महसूस करने अपने बचपन की यादों का कलैंडर पलटने के लिए,गिल्ली-डंडा, सतखपड़ी,आइस-पाइस,गुलेल और आम लीची की के रस में डूबे बचपन को टटोलने के लिए,लाड़ से भीगी रोटी का स्वाद चखने।।माँ-बाबू के अलावा पड़ोस की सुगनी चाची,पंसारी रमेसर चाचा की झिड़की का आनंद लेने।

लोक आस्था के इस महापर्व का उल्लेख रामायण और महाभारत में भी मिलता है।ऐसी मान्यता है कि आठवीं सदी में औरंगाबाद(बिहार) स्थित देव जिले में छठ पर्व की परंपरागत शुरूआत हुई थी।

चार दिवसीय इस त्योहार में आस्था का ऐसा अद्भुत रंग अपने आप में अनूठा है।यह ऐसा एक त्योहार है जो कि बिना पुरोहित के सम्पन्न होता है।साफ-सफाई और शुद्धता का विशेष ध्यान रखा जाता है।घर तो जैसे मंदिर में तबदील हो जाता है।घर की रसोई में लहसुन-प्याज दिवाली के दिन से ही निषिद्ध हो जाता है।घर की हर चीज नहा-धोकर पूजा में सम्मिलित होने के लिए तैयार हो जाती है।

नहाय-खाय यानि त्योहार के प्रथम दिवस पर , व्रती महिला भोर में ही नहा धोकर पूरी शुचिता से लौकी में चने की दाल डालकर सब्जी और अरवा चावल का भात बनाती है।सेंधा नमक और खल में कूटे गये मसालों से जो प्रसाद बनता है उसका स्वाद अवर्णनीय  है।

घर पर ही गेहूँ बीनकर, धोकर सुखाया जाता है पूरे नियम से,जब तक गेहूँ न सूखे उपवास रखा जाता है।
बाज़ार हाट सूप, दौरा,सुप्ती,डाला ईख,जम्हेरी नींबू,केला,नारियल,अदरख,हल्दी,गाज़र लगे जड़ वाले पौधों और भी कई प्रकार के फलों से सज जाता है।सुथनी और कमरंगा जैसे फल भी होते है इसकी जानकारी छठ के बाज़ार जाकर पता चलता है।
दूसरे दिन यानि खरना के दिन व्रती महिलाएँ दिनभर निर्जल व्रत करके शाम को पूरी पवित्रता से गाय के दूध में चावल डाल कर खीर बनाती है कुछ लोग मिसरी तो कुछ गुड़ का प्रयोग करते है। शाम को पूजाघर में सूर्य भगवान के नाम का प्रसाद अर्पित कर,फिर खीर खुद खाती  है फिर बाकी सभी लोग पूरी श्रद्धाभक्ति से प्रसाद ग्रहण करते है।

तीसरे दिन सुबह से ही सब सूप,दौरा,डाला और बाजा़र से लाये गये फलों को पवित्र जल से धोया जाता है।फिर नयी ईंट जोड़कर चूल्हा बनाया जाता है आम की लकड़ी की धीमी आँच पर गेहूँ के आटे और गुड़ को मिलकार  प्रसाद बनाया जाता है जिसे 'ठेकुआ', 'टिकरी' कहते है।चावल को पीसकर गुड़ मिलाकर कसार बनाया जाता है,भक्तिमय सुरीले पारंपरिक गीतो को गाकर घर परिवार के हर सदस्य की खुशहाली,समृद्धि की प्रार्थना की जाती है। हँसते खिलखिलाते गुनगुनाते असीम श्रद्धा से बने प्रसाद अमृत तुल्य होते है।फिर,ढलते दोपहर के बाद सूप सजा कर सिर पर रख नंगे पाँव नदी,तालाब के किनारों पर इकट्ठे होते है सभी, व्रती महिलाओं के साथ अन्य सभी लोग डूबते सूरज को अरग देने।सुंदर मधुर गीत कानों में पिघलकर आत्मा को शुद्ध कर जाते है।नये-नये कपड़े पहनकर उत्साह और आनंद से भरे-पूरे,मुस्कुराते अपनेपन से सरोबार हर हाथ एक दूसरे के प्रति सम्मान और सहयोग की भावना से भरे जीवन के प्रति मोह बढ़ा देते है। शारदा सिन्हा के गीत मानो मंत्र सरीखे वातावरण को पूर्ण भक्तिमय बना देते है।

चौथे दिन सूरज निकलने के पहले ही सभी घाट पहुँच जाते है।उगते सूरज का इंतज़ार करते,भक्ति-भाव से सूर्य के आगे नतमस्तक होकर अपने अपनों लिए झोली भर खुशियाँ माँगते है।उदित सूर्य को अर्ध्य अर्पित कर व्रती अपना व्रत पूरा करती है।

प्रकृति को मानव से जोड़ने का यह महापर्व है जो कि आधुनिक जीवनशैली में समाजिक सरोकारों में एक दूसरे से दूर होते परिवारों को एक करने का काम करता है।यह होली,दशहरा की तरह घर के भीतर सिमटकर मनाया जाने वाला त्योहार नहीं,बल्कि एकाकी होती दुनिया के दौर में सामाजिक सहयोगात्मक रवैया और सामूहिकता स्थापित कर जड़ों को सींचने का प्रयास करता एक अमृतमय घट है।आज यह त्योहार सिर्फ बिहार या उत्तरप्रदेश ही नहीं अपितु इसका स्वरूप व्यापक हो गया है यह देश के अनेक हिस्सों में मनाया जाने लगा है।हिंदू के अलावा अन्य धर्माम्बलंबियों को इस त्योहार को करते देखने का सुखद सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है।मैं स्वयं को भाग्यशाली मानती हूँ कि मुझे परंपरा में ऐसा अनूठा त्योहार मिला है।

#श्वेता🍁

                   *चित्र साभार गूगल*

शब्द हो गये मौन

शब्द हो गये मौन सारे
भाव नयन से लगे टपकने,
अस्थिर चित बेजान देह में
मन पंछी बन लगा भटकने।

साँझ क्षितिज पर रोती किरणें
रेत पे बिखरी मीन पियासी,
कुछ भी सुने न हृदय है बेकल
धुंधली राह न टोह जरा सी।

रूठा चंदा बात करे न
स्याह नभ ने झटके सब तारे,
लुकछिप जुगनू बैठे झुरमुट
बिखरे स्वप्न के मोती खारे।

कौन से जाने शब्द गढ़ूँ मैं
तू मुस्काये पुष्प झरे फिर,
किन नयनों से तुझे निहारूँ
नेह के प्याले मधु भरे फिर।

तुम बिन जीवन मरूस्थल
अमित प्रीत तुम घट अमृत,
एक बूँद चख कर बौराऊँ
तुम यथार्थ बस जग ये भ्रमित।

    #श्वेता🍁

Wednesday 18 October 2017

शहीद....हायकु

हमारे लिए
दीवार बने खड़े
वीर जवान

बुझा दीपक
शहीद के घर में
कैसी दिवाली

जला के दीप
शहीदों के नाम पे
सम्मान देना

माँ बाबू रोये
अंधियारा छाया है
अँगना आज

भींगी रंगोली
अँसुवन की धार 
जीवन सूना

वीर शहीद
तारे बन चमके
दीवाली रात

मातृभूमि का
हृदय से मान ही 
श्रद्धांजलि है


Tuesday 17 October 2017

दीवाली

1)
लड़ियाँ नेह के धागों वाली,
झड़ियाँ हँसी ठहाकों वाली।

जगमग घर का कोना-कोना,
कलियाँ मन के तारों वाली।

रंग-रंगीली सजी रंगोली,
गुझिया मीठे पागों वाली।

घर-आँगन दमके चौबारा,
गलियाँ अल्हड़ साजों वाली।

एक दीवाली दिल को जोड़े,
खुशियाँ दिल के रागों वाली।

पूजन मात-पिता के प्रेम का
सखियाँ बहना भाबो वाली।

दीप जला ले प्रेमिल मन से,
बतियाँ हृदय के तागों वाली।

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2)
इतराई निशा पहनकर 
झिलमिल दीपक हार
आया है जगमग जगमग
यह दीपों का त्योहार

रंगोली सतरंग सुवासित
बने गेंदा चमेली बंदनवार
किलके बालवृंद घर आँगन
महकी खुशियाँ अपरम्पार

मिट जाये तम जीवन से
लक्ष्मी माँ दे दो वरदान
हर लूँ निर्धनता हर घर से
हर होंठ खिले मुस्कान

भर भरकर मुट्ठी तारों से 
भरना उन बाड़ी बस्ती में
दिन का सूरज भी न पहुँचे
निकले चाँद भी कश्ती में

इस दीवाली बन जाऊँ दीया
फैलूँ प्रकाश बन सपनों की
विहसे मुख मलिन जब किलके
मैं साक्षी बनूँ उन अपनों की

   #श्वेता🍁

Sunday 15 October 2017

नयन बसे

नयन बसे घनश्याम,
मैं कैसे देखूँ जग संसार।
पलकें झुकाये सबसे छुपाये, 
बैठी घूँघटा डार।
मुख की लाली देखे न कोई,
छाये लाज अपार।
चुनरी सरकी मैं भी उलझी,
लट में उंगली डार।
कंगन चुड़ी गिन-गिन हारी,
बैरी रैन की मार।
जियरा डोले श्याम ही बोले,
हार विरह की रार।
सखिया छेड़े जिया जलाये,
लेके नाम तुम्हार।
न बूझै क्यों तू निर्मोही,
देखे न अँसुअन धार।
मन से बँध गयी नेह की डोरी,
तोसे प्रीत अपार।
मेरे मोह बंध जाओ न,
मैं समझाऊँ प्रेम का सार।
कुछ न चाहूँ हे,मुरलीधर,
कुछ पल साथ अपार।
करने को सर्वस्व समर्पण,
ले द्वार खड़ी उर हार।

      #श्वेता🍁

Saturday 14 October 2017

रोहिंग्या

रोहिंग्या
इस विषय पर आप क्या सोचते है...कृपया अपने विचारों से जरूर अवगत करवाये।
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कौन है रोहिंग्या मुसलमान

म्यांमार में करीब 8 लाख रोहिंग्या मुस्लिम रहते हैं और वे इस देश में सदियों से रहते आए हैं, लेकिन बर्मा के लोग और वहां की सरकार इन लोगों को अपना नागरिक नहीं मानती है। बिना किसी देश के इन रोहिंग्या लोगों को म्यांमार में भीषण दमन का सामना करना पड़ता है। बड़ी संख्या में रोहिंग्या लोग बांग्लादेश और थाईलैंड की सीमा पर स्थित शरणार्थी शिविरों में अमानवीय स्थितियों में रहने को विवश हैं। 
वर्ष 1785 में बर्मा के बौद्ध लोगों ने देश के दक्षिणी हिस्से अराकान पर कब्जा कर लिया। तब उन्होंने रोहिंग्या मुस्लिमों को या तो इलाके से बाहर खदेड़ दिया या फिर उनकी हत्या कर दी। इस अवधि में अराकान के करीब 35 हजार लोग बंगाल भाग गए जो कि तब अंग्रेजों के अधिकार क्षेत्र में था। वर्ष 1824 से लेकर 1826 तक चले एंग्लो-बर्मीज युद्ध के बाद 1826 में अराकान अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया। रोहिंग्या मूल के मुस्लिमों और बंगालियों को प्रोत्साहित किया गया कि वे अराकान (राखिन) में बसें। स्थानीय बौद्ध राखिन लोगों में विद्वेष की भावना पनपी और तभी से जातीय तनाव पनपा जो कि अभी तक चल रहा है।

रोहिंग्या की स्थिति

दूसरे विश्व युद्ध के दौरान दक्षिण पूर्व एशिया में जापान के बढ़ते दबदबे से आतंकित अंग्रेजों ने अराकान छोड़ दिया और उनके हटते ही मुस्लिमों और बौद्ध लोगों में एक दूसरे का कत्ले आम करने की प्रतियोगिता शुरू हो गई। इस दौर में बहुत से रोहिंग्या मुस्लिमों को उम्मीद थी कि वे ‍अंग्रेजों से सुरक्षा और संरक्षण पा सकते हैं। इस कारण से इन लोगों ने एलाइड ताकतों के लिए जापानी सैनिकों की जासूसी की। जब जापानियों को यह बात पता लगी तो उन्होंने रोहिंग्या मुस्लिमों के खिलाफ यातनाएं देने, हत्याएं और बलात्कार करने का कार्यक्रम शुरू किया। इससे डर कर अराकान से लाखों रोहिंग्या मुस्लिम फिर एक बार बंगाल भाग गए। 
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्त‍ि और 1962 में जनरल नेविन के नेतृत्व में तख्तापलट की कार्रवाई के दौर में रोहिंग्या मुस्लिमों ने अराकान में एक अलग रोहिंग्या देश बनाने की मांग रखी, लेकिन तत्कालीन बर्मी सेना के शासन ने यांगून (पूर्व का रंगून) पर कब्जा करते ही अलगाववादी और गैर राजनीतिक दोनों ही प्रकार के रोहिंग्या लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की। सैनिक शासन ने रोहिंग्या लोगों को नागरिकता देने से इनकार कर दिया और इन्हें बिना देश वाला (स्टेट लैस) बंगाली घोषित कर दिया।
तब से स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है। संयुक्त राष्ट्र की कई रिपोर्टों में कहा गया है कि रोहिंग्या दुनिया के ऐसे अल्पसंख्यक लोग हैं, जिनका लगातार सबसे अधिक दमन किया गया है।
लोग सुन्नी इस्लाम को मानते हैं और बर्मा में इन पर सरकारी प्रतिबंधों के कारण ये पढ़-लिख भी नहीं पाते हैं तथा केवल बुनियादी इस्लामी तालीम हासिल कर पाते हैं। 
बर्मा के शासकों और सै‍‍न्य सत्ता ने इनका कई बार नरसंहार किया, इनकी बस्तियों को जलाया गया, इनकी जमीन को हड़प लिया गया, मस्जिदों को बर्बाद कर दिया गया और इन्हें देश से बाहर खदेड़ दिया गया। ऐसी स्थिति में ये बांग्लादेश की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं, थाईलैंड की सीमावर्ती क्षेत्रों में घुसते हैं या फिर सीमा पर ही शिविर लगाकर बने रहते हैं। 1991-92 में दमन के दौर में करीब ढाई लाख रोहिंग्या बांग्लादेश भाग गए थे।
संयुक्त राष्ट्र, एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी संस्थाएं रोहिंया लोगों की नारकीय स्थितियों के लिए म्यांमार की सरकारों को दोषी ठहराती रही हैं, लेकिन सरकारों पर कोई असर नहीं पड़ता है। पिछले बीस वर्षों के दौरान किसी भी रोहिंग्या स्कूल या मस्जिद की मरम्मत करने का आदेश नहीं दिया गया है।

भारत और रोहिंग्या

हमारे देश में सत्ता और विपक्षी दलों को एक दूसरे के किये हर काम का विरोध करने की परंपरा रही है। फिर बात जब मुसलमानों की आती है तो कोई भी मुद्दा ज्यादा गंभीर हो जाता है।
अभी म्यांमार से विस्थापित करीब छह हजार रोहिंग्या मुस्लिम दिल्ली, हैदराबाद और कुछ अन्य भारतीय शहरों में बेहद बेचारगी की जिंदगी जी रहे हैं।इन्हें देश की सुरक्षा के लिए खतरा भी बताया जा रहा है।

मेरी सोच
पर,सरकार और दलों की राजनीतिक विचारों से अलग एक आम नागरिक की दृष्टि से सोचने पर मुझे यही समझ आता है कि, "अपने देश के नागरिकों की समस्याएँ कम नहीं,गरीब,भूख,आवास और,बेरोजगारी से देश का कौन सा हिस्सा अछूता है?? उसपर इन शरणार्थियों का बोझ हम कितना सह पायेगे??"अपनी थाली के भोजन से पेट का एक हिस्सा खाली रह जाता है कौन सा हिस्सा काट कर उनका पेट भरेगे।
जब कथित शरणार्थी यहाँ रहेगे तो इतने लोगों की मूलभूत सुविधाओं को पूरा करने के लिए आम जनता पर अतिरिक्त टैक्स का बोझ बढ़ेगा जिससे सामान्य जनता और भी परेशान होगी।बस मानवता,इंसानियत और एक धर्मनिरपेक्ष सर्वहितकारी देश का तमगा लेने के नाम पर हम अपने देश के जरूरतमंद जनता का निवाला छीन नहीं सकते ।शरणार्थियों की मदद करना और बात होगी एवं अपने देश में उनका स्वागत करना  दूसरी बात।माना ये दुखी और बहुत जरूरत मंद भी है, किंतु हमारे देश में भी ऐसे अनेक जरूरत मंद है कृपया पहले उनकी समस्याओं का समाधान कीजिए।

यहाँ मेरी इस स्वार्थी सोच से शायद बहुत से लोग सहमत न हो आलोचना करे कि," मैंने  मजबूर ,लाचार, हालात के मारे उन शरणार्थियों प्रति मानवता और इंसानियत को परे रख दिया है।"
मुझे भी उनके लिए सहानुभूति है जो संभव हो उस मदद के पक्ष में भी हूँ। जरूर उनको उनका अधिकार मिलना चाहिए,परंतु उदारवादी,परोपकारी,और मानवतावादी सोच रखने वाला हमारा देश हमेशा ऐसे शरणार्थियों की वजह से परेशानी झेलता रहा है, फिर ऐसा ठीकरा हमारे ही देश में क्यूँ फूटे??

अच्छा हो अन्य सभी देश मिलकर इस बाबत बर्मा सरकार के साथ बैठकर कोई हल निकाले।उस पर दवाब डाले आखिर मूलतः वहाँ के निवासी है ये। यह सुझाव इतना आसान तो नहीं पर असंभव नहीं।पड़ोसी की मदद करना ही चाहिए,जहाँ तक मदद करना संभव हो।

कृपया,दलगत भावना ,हिंदु-मुसलमान के सांप्रदायिक सोच से ऊपर उठ कर देश हित के लिए एक बार गंभीरता से जरुर सोचियेगा कि क्या सही और क्या गलत है।

नोट: मेरा ये लेख किसी भी व्यक्ति, दल ,धर्म या जाति से प्रभावित नहीं ये मेरे व्यक्तिगत विचार है।


    #श्वेता🍁

Wednesday 11 October 2017

कूची है तारे....हायकु

सिवा ख़ुद के
कुछ भी न पाओगे
आँखों में मेरी

भरी पलकें
झुका लूँ मैं वरना
तुम रो दोगे

आदत बुरी
पाल ली है दिल ने
बातों की तेरी

उठी लहर
छू कर किनारे को
भिगो जायेगी

आरियाँ है या
हवाओं के हाथ है
तोड़ते पत्ते

कसमसाती
शाम की हर साँस
उदास लगी

बनाने लगी
छवि तेरी बदरी
कूची है तारे

नीम फुनगी
ठुड्डी टिकाकर के
ताके है चंदा

चाँदनी फीकी
या नम है बादल 
आँखें ही जाने

आसमां ताल
तारों के फूल खिले
रात मुस्कायी

बिन तेरे है
ख़ामोश हर लम्हा
थमा हुआ सा

    #श्वेता🍁


Monday 9 October 2017

उम्र की हथेलियों से


नज़्म

ख़्वाहिशों के बोझ से  
दबी ज़िदगी की
सीली मुट्ठियों में बंद 
तुड़े-मुड़े परों की 
सतरंगी तितलियाँ
अक्सर कुलबुलाती हैंं
दरारों से उंगलियों की 
उलझकर रह जाती हैं।


ढककर हथेलियों से
सूरज की फीकी कतरनें
ढलती शाम के स्याह अंधेरों में
च़राग लिये ढूँढ़ते हैं
बुझे तारे ख़्वाहिशों के
जलाकर जगमगाने को
बोझिल ख़्वाबों की राहदारी को।


उमर की हथेलियों से
फिसलते लम्हों की
चंद गिनती की साँसों पर
तुम्हारी छुअन के महकते निशां हैं
भीगी पलकों के चिलमन में
गुनगुनाती तस्वीर तेरी
कसमसाती धड़कनों की
गूँजती ख़ामोश सदाओं में
एहसास के शरारे से
तन्हाइयों की गलियाँ रोशन हैं।

       #श्वेता🍁


Saturday 7 October 2017

तेरा साथ प्रिय

जीवन सिंधु की स्वाति बूँद
तुम चिरजीवी मैं क्षणभंगुर,
इस देह से परे मन बंधन में
मादक कुसुमित तेरा साथ प्रिय।

पल पल स्पंदित सम्मोहन
दृग छू ले तो होती सिहरन,
विह्वल उर की व्याकुलता
अंतस तृप्ति तेरा साथ प्रिय।

अव्यक्त व्यक्त भावों का गीत
विस्मृत स्वप्नों के तुम मनमीत,
कंटक से भरे जीवन पथ पर
मृदु मोरपंखी तेरा साथ प्रिय।

स्वर्ण मृग जग छलती माया में
क्षण क्षण मिटती इस काया में,
निशि कानन के विस्तृत अंचल 
रवि किरणों सा तेरा साथ प्रिय।

    श्वेता🍁



Wednesday 4 October 2017

आँख के आँसू छुपाकर


आँख के आँसू छुपाकर
मीठी नदी की धार लिखना,
घोंटकर के रूदन कंठ में
खुशियों का ही सार लिखना।

सूखते सपनों के बिचड़े
रोपकर मुस्कान लिखना,
लूटते अस्मत को ढककर
बातों के आख्यान लिखना,
बुझ गये चूल्हों पर लोटते
बदन के अंगार लिखना।

कब्र बने खेतों की माटी में
लहलहाते फसल लिखना,
कटते वन पेड़ों के ठूँठों पर
खिलखिलाती गज़ल लिखना,
वनपखेरू बींधते आखेटकों का
प्रकृति से अभिसार लिखना।

दूधमुँहों से छीनी क्षीर पर
दान,गर्व का स्पर्श लिखना,
लथपथे जिस्मों के खूं पर
राष्ट्र का उत्कर्ष लिखना,
गोलियों से छलनी बदन पर
रूपयों की बौछार लिखना।

देशभक्त कहलवाना है तो
न कोई तुम अधिकार लिखना,
न भूलकर लिखना दर्द तुम
न वोटों का व्यापार लिखना,
फटे जेब में सपने भरे हो
उस देश का त्योहार लिखना।

      #श्वेता🍁

Tuesday 3 October 2017

एक थी सोमवारी

चित्र साभार गूगल

सुबह सुबह अलार्म की आवाज़ सुनकर अलसायी मैं मन ही मन बड़बड़ायी उठ कर बैठ गयी।
ऊँघती जम्हाईयाँ लेती अधमूँदी आँखों से बेडरूम से किचन तक पहुँच गयी लाईट ऑन कर पीने का पानी गर्म करते सोचने लगी आज सत्तू के पराठें बना लेती हूँ दोनों पापा बेटी को बहुत पसंद बिना नानुकुर किये टिफिन ले जायेगे।

अचानक बाहर से आती ऊँची आवाज़ो ने उसे चौंका दिया।
सोचती इतनी सुबह कौन हल्ला कर रहा बाहर गैस ऑफ कर बाहर बालकनी में आ गयी । सामने बन रहे अर्धनिर्मित इमारत के सामने भीड़ जमा थी।एक पुलिस जीप खड़ी थी कुछ पुलिस वाले भी थे।

क्या हुआ होगा?

उत्सुकता से आस पास देखने लगी कोई दिखे तो पूछूँ आखिर हुआ क्या ??

देखा तो पड़ोस की मिसेज त्रिपाठी भी अपनी बालकनी में नज़र आई ।
उनसे पूछा तो पता चला आज सुबह कोई लड़की नदी में बह गयी ।मैनें नाम पूछा तो बोली वही लड़की जो रहती थी यहाँ।

'सोमवारी! मैं स्तब्ध रह गयी, कुछ भी नहीं पूछा और चुपचाप अंदर आकर दैनिक काम निपटाने लगी। यंत्रवत हाथ चल रहे थे,और दिमाग उलझकर रह गया सोमवारी में।आखिर में यही होना था क्या उसका अंजाम।खुद के सवालों में उलझी रही।
अनमनी सी दोनो पापा बेटी को जगाया , उनके स्कूल और ऑफिस जाने के बाद निढाल सी आँखें बंद कर लेट गयी।
सिवा सोमवारी के और कोई ख्याल कैसे आते।

पिछले साल नवम्बर में मेरी बिल्डिंग के सामने वाली खाली जमीन पर किसी बिल्डर ने फ्लैट बनवाना शुरु किया था। खाली जमीन पर अब दिनभर मजदूरों की उठापटक , छेनी हथौड़ी की धम धड़ाम सो -सो ,सी सी,मशीनों की आवाजें गूँजने लगी थी। सुबह आठ बजे से से शाम के पाँच बजे तक मेला लगा रहता ,शुरु शुरु उत्सुकतावश खुले छत की लोहे की रेलिंग पकड़े बच्चों की तरह घंटों खडे होकर उन मज़दूरों की गतिविधि देखती रहती थी , सुबह सबके जाने के बाद घर के सारे काम निबटाकर छत पर चेयर डालकर गुनगुनी धूप में कोई किताब लेकर बैठती तो सारा ध्यान ईट गारे से जुड़ती बनती इमारत पर रहता था। अब इमारत की नींव पड़ चुकी थी खूब सारे मजबूत खंभों पर पहली फ्लोर के लिए छत की ढलाई हुये दो सप्ताह बीते होगे।

जाड़ो में अंधेरा जल्दी घिरने लगता है, एक शाम छत से कपड़े उठा रही थी, नज़र आदतन सामने वाली अर्द्धनिर्मित इमारत पर चली गयी, इमारत के कोने मे एक बड़ा सा पानी का हौजा था जिसको हर सुबह बगल के घर से पाईप द्वारा भर दिया जाता था, दिनभर इसी से मज़दूर पानी निकालकर काम करते रहते थे।शाम को पाँच बजे छुट्टी के समय सब मजदूर और रेजा औरतें यही मुँह हाथ पैर धोते फिर कंघी चोटी कर टिपटॉप हो अपने घर चले जाते।

उसी हौजे के की दीवार की ओट लिये एक लड़की छाती तक पेटीकोट बाँधे प्लास्टिक की मग से तल्लीनता एक बाल्टी में पानी भर रही थी।मुझे आश्चर्य हुआ शाम घिर रही थी सब तो चले गये ये कौन है??

 दो चार मिनट के बाद उस लड़की का ध्यान मुझपर गया एक पल को वो रूकी और दूसरे पल आधी भरी बाल्टी लिये झट से नीचे बैठ गयी।उसकी ऐसी हरकत पर मुझे हँसी आ गयी। मौसम की  सिहरन महसूस होने लगी मैं अंदर आ गयी ।

दूसरे दिन सुबह सुबह छ: बजे नहा कर पूजा के लिए गमलों से फूल तोड़ने छत पर गयी तो देखा सामने वाली
इमारत के एक कोने में ईंटों को जोड़कर लकड़ी डालकर चूल्हा सुलगाया गया था जिसपर बड़ा सा पतीला चढ़ा था, वही लड़की मटमैले पीले फूल वाली नाईटी उसपर एक चमकीला हरे रंग शॉल ओढ़े सिर झुकाये सूप में चावल बीन रही थी और एक आदमी जो कि उस लड़की से लगभग दूनी उमर का था ,थोड़ी ही दूर पर गमछा बाँधे गंदला सा गाजरी रंग का स्वेटर पहने आधा लेटा सा बीड़ी पी रहा था। मैं अनुमान लगाया कि ये शायद मजदूर होगे। बिल्डर ने रखा होगा इन्हें।

वैसे तो उस बिल्डिंग एक एक ही हिस्सा दिखता था मुझे पर नये लोगों को जानने की उत्कंठा में दो दिन में ही उनदोंनों की सारी दिनचर्या मुझे याद हो गयी ।मेरे जगने के पहले ही वो लड़की उठ जाती होगी , खर खर करती झाड़ू की आवाज़ मुँह अँधेरे ही सुनाई पड़ती थी।इमारत के नीचे वाले हिस्से एक कोने में चटाई को आड़ा तिरछा घेर कर हवाओं से बचने के लिए ईंट जोड़कर चूल्हे जलाती , बड़े पतीले में भरकर चावल और साथ में कोई सब्जी बनाती, फिर सारा खाना ऊपर तल के कोने में रख देती, वो आदमी जो शायद उसका पति होगा उसको बड़े कटोरे में खाना परोसती वो खा लेता और चला जाता तो कटोरा धोकर वो भी खाती। फिर दिनभर ईटों को ढोती, सिर पर  एक बार में बारह ईंटें रखकर क्या गज़ब चलती।

दिन भर हाड़ तोड़ मेहनत के बाद शाम को नहाकर फिर भात पकाती, रात के समय उस आधे बने इमारत के एक कोने में टिमटिमाती मद्धिम पीली रोशनी जब बंद हो जाती तो आस पास की इमारतों से आ रही परछाई में देखा मैंने
उसका पति देर शाम पीकर लुढ़क जाता और वो चुपचाप उसके बलिष्ठ शरीर को नाजुक कंधे और मजबूत हाथों का सहारा देकर लड़खड़ाती हुयी सी चारपाई पर लिटा देती।फिर अपना चटाई बिछाकर बन रहे इमारत के मुंडेर विहीन कोने पर बैठ जाती , बहुत उदास सी कभी कभी परछाई रोती सी लगती, शरीर हिलता दिखता,घुटनों पर सिर झुकाये वो हिलक हिलक के रोती होगी । ऐसे देखकर उसे मन भर आता। उनके क्रियाकलाप के दौरान ध्यान देने योग्य यही था कि वो लड़की और उसके पति के बीच कोई बात नहीं होती, सब कुछ यंत्रचालित सा हो रहा हो जैसे।

एक सप्ताह के बाद मुझे मौका मिला उससे पहली बार रूबरू होने का ।मैं बाज़ार से लौट रही थी, वो शायद कुछ लेने गयी थी मुहल्ले के राशन दुकान से, हमदोंनों ही एक दूसरे को  देखकर ठिठक गये। पहली बार सामने से देखा उसे ताबंई रंग दो बड़ी बड़ी उदास आँखें जो बरबस ध्यान खींच रही थी घुँघराले बालों की कमर तक चोटी, थोड़े से लटके मोटे होठों पर फीकी मुस्कान ,सुंदर संतुलित शारीरिक गठन , झोलदार मटमैली पीले काले फूल वाली नाईटी पहने थी , गहने के नाम काला धागा में गूँथा गया चाँदी के रंग का एक रूपये के सिक्के जैसा कुछ था और एडियों से थोड़ी ऊपर नाईटी के झालर के नीचे चाँदी का ही पतला कड़ा पहने थी। उमर बीस बाईस साल से ज्यादा नहीं थी।

मैने ही बातों का सिरा सँभाला ज्यादा उसे चुपचाप देखकर , जैसे उसे बात करना आता ही नहीं मैंने कहा कल शाम आना घर ,तुमने देखा है न उस बिल्डिंग में चौथे माले पर ।
छोटे बच्चों सा सिर हिलाकर वो तेजी से भाग गयी।
दूसरे दिन शाम को आयी वो मेरे ड्राईग में अंदर आने से झिझक रही थी, मैंने हाथ पकड़कर अंदर खींचा उसे। वो सहमी सी सकुचायी सी गोल गोल आँखों से मेरे ड्राईग रूम को देख रही थी । मैं चाय बना लाई और साथ में बिस्किट भी वो न न करती रही पर मैंने साग्रह उसे थमा दिया , इधर उधर की बातें करते थोड़ी देर में वो सहज लगने लगी।

उसने बताया "उसके माँ बाप बचपन में मर गये उसके रिश्ते के चाचा और चाची ने पाला पोसा , पढ़ना लिखना नहीं आता , बचपन घर और खेत खलिहानों में खटते बीता पन्द्रह साल की उमर में गाँव के एक आदमी से ब्याह दी गयी। वो आदमी जो उसका पति है , उसकी  पहली बीबी मर गयी थी , चाचा ने उससे कर्जा लिया था वो सधा नहीं पाये तो उसका ब्याह कर दिया उस आदमी से। वो बहुत डरती है अपने आदमी से, गुस्सा आए तो रूई जैसा धुन देता है बिना गलती के भी। कहते कहते उसे झुरझुरी आ गयी । मेरा मन भर आया। वो चली गयी अपना बोझ मेरे मन पर रख कर।

वो फिर एक बार और.आयी बस जाने किस संकोच में वो  नहीं आती थी। एक दिन अचानक उसी रस्ते पर मिली मैं तो पहचान नहीं पायी , वो खुश लग रही थी, आज चटख गुलाबी दुपट्टा कंधे पर डाला हुआ था उसने।आँखों में काजल की महीन रेखा , बालों को खोला हुआ था घुँघराले बालों की लट उसके होठ़ो को चूम रहे थे। हाथों की लाल हरी और सुनहरी चुडि़यों की मोहक खनक बार बार लुभा रहे थे।  मैंने कहा क्या बात है बहुत सुंदर लग रही हो तो वो खिलखिला पड़ी ।तांबई गालों पे लाली छा गयी , शरमाते हुये पैर के अँगूठे से मिट्टी कुरदने लगी फिर हँसकर भाग गयी।

सर्दियाँ खत्म हो रही थी, एक दिन रात के एक बजे होगे, मेरी तबियत ठीक नहीं थी एसीडिटी की वजह से नींद नहीं आ रही थी सोचा थोड़ा दवा लेकर टहल लूँ फिर आराम आयेगा तो सो जाऊँगी। छत पर निकल कर घूमने लगी । पूरणमासी की रात थी हल्की ठंडी हवाएँ चल रही थी रजनीगंधा की खुशबू से मन प्रसन्न हो गया । स्वाभावतः उस बन रहे इमारत की ओर देखने लगी सोचने लगी आज सोमवारी खुश लग रही थी , मैं मुस्कुरा उठी सहसा एक परछाई उस इमारत की आधी अधूरी सीढ़ियों से ऊपर जाते देखा, मैं चौंक गयी इतनी रात गये कौन हो सकता है??? सोमवारी का पति तो बेसुध पड़ा है। वो परछाई छत के उस कोने में गुम हो गयी जहाँ सोमवारी सोती थी। अब सबकुछ मेरी आँखों की पहुँच से दूर था पर मन में एक झंझावत भर आया ।
'ये किस राह पर निकल पड़ी सोमवारी। मैं घबराकर भीतर आ गयी गटगटाकर पानी का गिलास.खाली.कर दिया और  बिस्तर पर गिर गयी।'

मैं उसे समझाना चाहती थी मिलकर बताना चाहती थी एक आध बार कोशिश भी की पर शायद उसे मेरी बात पसंद नहीं आयी उसने मुझसे मिलना बंद कर दिया। रस्ते पर मिलती तो नजरे चुराकर भाग जाती।

बारिश शुरू हो गयी थी, उस बन रहे बिल्डिंग का रूका हुआ था अब मैंने भी उस ओर ध्यान देना छोड़ दिया था।
दस दिन पहले की ही बात है उस शाम डोरबेल बजी मैने दरवाजा खोला तो सामने बाल बिखराये सूखे होठ और रो रोकर सूजी आँखों से निरीह सी ताकती सोमवारी को पाया।
अंदर बुलाया और पानी का गिलास थमाया और सिर पर हाथ फेरा तो फूट फूट कर रो पड़ी । मैंने रोने दिया उसे उसने कहा वो माँ बनने वाली है अगर उसके पति को पता चला तो वो उसे मार डालेगा। जिस लड़के पर उसने अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया वो अब उसकी सूरत भी नहीं देखना चाहता वो कल ही उसे उसके हाल पर छोड़कर बंबई चला गया है।

मैंने उसे दिलासा दिया और कहा कल उसे डॉक्टर के पास ले जाऊँगी। फिर वो चली गयी। मैं उसे लेकर चिंतित थी, उसकी मदद भी करना चाहती थी एक अनजाना लगाव हो गया था उससे। पर दूसरे दिन वो नहीं आयी मैं झाँकने गयी तो बिल्डिंग में पीली रोशनी लिये धीमा सा बल्ब जल रहा था पर कोई दिख नहीं रहा था। कुछ समझ नहीं आया।
सप्ताह भर से लगातार रूक रूक कर बारिश हो रही थी।
नदियाँ पूरे उफान पर थी, निचले कई इलाकों में पानी भर गया था हाई अलर्ट जारी किया गया था।

पाँच दिन पहले ही अधूरी इमारत का काम फिर से शुरू हुआ अब तीसरे माले की छत की ढलाई की तैयारी थी।
परसों ही वो वापस दिखाई दी। उदास, मरियल सी जैसे किसी ने सारा रक्त निचोड़ लिया हो उसके शरीर का।
मैं सोच ही रही थी उससे मिलने के लिए और ये हो गया।
वो हार गयी अपने जीवन के दर्द से। मेरी आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे। डोरबेल की आवाज़ से मैं अतीत से वापस आ गयी। आँसू पोंछकर मुँह पर पानी का छींटा मारा दरवाजा खोला तो देखा महरी खड़ी थी।

काम करते करते बड़बड़ाये जा रही थी अरे मेमसाब, बरसात से भरी नदी के पास उसको उधर जाने का ही नहीं था ,क्या जरूरत थी उधर जाने की पैर फिसल गया होगा बिचारी का, उसका गुलाबी दुपट्टा वही पत्थरों में अटका मिला है।

#श्वेता🍁

Monday 2 October 2017

भारत के लाल

अनमोल रतन दमके 
भारत के भाल पर
एक मूरत सादगी की
भारी है हर जाल पर

धन्य है मातृभूमि गर्वित
पाकर ऐसे लाल को
लाल बहादुर कहते है 
भारत माँ के लाल को

धन्य कोख माँ राम दुलारी 
पिता शारदा को नमन करे
गज़ब की शख्सियत था
विनम्रता से शत्रु दमन करे

पढ़ने की लगन में जिसने
गंगा की धार को पार किया
अभाव को बनने न दी बाधा
हर स्वप्न अपना साकार किया

कर्तव्य निष्ठ थे देश के लिए
कर दिया समर्पित स्वयं को
गाँधी जी से के चमक के आगे
न भूलो देशभक्त के जन्म को

सन् बयालीस के भारत छोड़ो में
'मरो नहीं मारो 'का नारा दिया
अपने हक के लिए लड़ने का
ओज तेज भरा विचारधारा दिया

निडर साहासी अगुआ थे वो
देश को गौरव और शान दिया
भारत पर चढ़ा जब पाक तब
मुँहतोड़ उत्तर देकर मान दिया

देश के पहरेदारों में जोश भर
सीमा पर विजयी ध्वज लहराया
जय जवान जय किसान नारा
प्राणशक्ति बना जन में महकाया

शांति दूत का सच्चा मूरत वो
मिट गया शांति के नाम पर
ताशकंद बना काल का घर
सोया लाल चिरनिद्रा धाम पर

गर्व है हमें शास्त्री जैसे लाल पर
कद के छोटे हृदय विशाल पर
नहीं था आडंबर का कोई ढ़ोग
नमन बहादुर भारत के लाल को


मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...