Wednesday 28 June 2017

सौगात

मुद्दतों बाद रूबरू हुए आईने से
खुद को न पहचान सके
जाने किन ख्यालों में गुम हुए थे
जिंदगी तेरी सूरत भूल गये

ख्वाब इतने भर लिए आँखों में
हकीकत सारे बेमानी लगे
चमकती रेत को पानी समझ बैठे
न प्यास बुझी तड़पा ही किये

एक टुकड़ा आसमान की ख्वाहिश में
जमीं से अपनी रूठ गये
अपनों के बीच खुद को अजनबी पाया
जब भरम सारे टूट गये

सफर तो चलेगा समेट कर मुट्ठी भर यादें
कुछ तो सौगात मिला तुमसे
ऐ जिंदगी चंद अनछुए एहसास के लिए
दिल से शुक्रिया है तुम्हारा

             #श्वेता🍁


Tuesday 27 June 2017

खिड़कियाँ ज्यादा रखो

दीवारें कम खिड़कियाँ ज्यादा रखो
शोर क्यों करो चुप्पियाँ ज्यादा रखो

न बोझ हो सीने में कोई न मलाल हो
बिना उम्मीद के नेकियाँ ज्यादा रखो

दिखावे का जमाना है पिछड़ जाओगे
मेहमां कम सही कुर्सियाँ ज्यादा रखो

चल रहे हो भीड़ में चीखना बेमानी है
बँधे हुये हाथों में तख्तियाँ ज्यादा रखो

सुख दुख की लहरों से लड़ना हो गर
हौसलों से भरी कश्तियाँ ज्यादा रखो

दौड़ती हाँफती ज़िदगी के लम्हों से
परे हटा गम़ो को मस्तियाँ ज्यादा रखो

       #श्वेता🍁

Sunday 25 June 2017

उम्मीदों की फेहरिश्त

आज के ख्वाहिशें इंतज़ार में पड़ी होती है
कल की उम्मीदों की फेहरिश्त बड़ी होती है

बहते है वक्त की मुट्ठियों से फिसलते लम्हें
कम होती ज़िदगी के हाथों में घड़ी होती है

क्यों गिरबां में अपने कोई झाँकता नहीं है
निगाहें ज़माने की झिर्रियों में खड़ी होती है

टूटना ही हश्र रात के ख्वाबों का फिर भी
नहीं मानती नींदें भी ज़िद में अड़ी होती है

श्वेत श्याम रंगीन तस्वीरें बंद किताबों में
मृत हो चुकी यादों की जिंदा कड़ी होती है

          #श्वेता🍁

Saturday 24 June 2017

उदासी तुम्हारी

पल पल तुझको खो जीकर
बूँद बूँद तुम्हें हृदय से पीकर
एहसास तुम्हारा अंजुरी में भर
अनकहे तुम्हारी पीड़ा को छूकर
इन अदृश्य हवाओं में घुले
तुम्हारें श्वासों के मध्म स्पंदन को
महसूस कर सकती हूँ।

निर्विकार , निर्निमेष कृत्रिम
आवरण में लिपटकर हंसते
कागज के पुष्प सदृश चमकीले
हिमशिला का कवच पहन
अन्तर्मन के ताप से पिघल
भीतर ही भीतर दरकते
पनीले आसमान सदृश बोझिल
तुम्हारी गीली मुस्कान को
महसूस कर सकती हूँ।

कर्म की तन्मता में रत दिन रात
इच्छाओं के भँवर में उलझे मन
यंत्रचालित तन पे ओढ़कर कर
एक परत गाढ़ी तृप्ति का लबादा,
अपनों की सुख के साज पर
रूँधे गीतों के टूटते तार बाँधकर,
कर्णप्रिय रागों को सुनाकर
मिथ्या में झूमते उदासी को तुम्हारी
महसूस कर सकती हूँ।
       #श्वेता🍁



Friday 23 June 2017

एक दिन

खुद को दिल में तेरे छोड़ के चले जायेगे एक दिन
तुम न चाहो तो भी  बेसबब याद आयेगे एक दिन

जब भी कोई तेरे खुशियों की दुआ माँगेगा रब से
फूल मन्नत के हो तेरे दामन में मुसकायेगे एक दिन

अंधेरी रातों में जब तेरा साया भी दिखलाई न देगा
बनके  इल्मे ए चिरां ठोकरों से बचायेगे एक दिन

तू न देखना चाहे मिरी ओर कोई बात नहीं,मेरे सनम
आईने दिल अक्स तेरा बनके नज़र आयेगे एक दिन

तेरी जिद तेरी बेरूखी इश्क में जो मिला,मंजूर मुझे
मेरी तड़पती आहें तुझको बहुत रूलायेगे एक दिन

आज तुम जा रहे हो मुँह मोड़कर राहों से मेरे घर के
दोगे सदा फिर कभी खाली ही लौटके आयेगे एक दिन

      #श्वेता🍁


Thursday 22 June 2017

रिश्ते

रिश्ते बाँधे नहीं जा सकते
बस छुये जा सकते है
नेह के मोहक एहसासों से
स्पर्श किये जा सकते है
शब्दों के कोमल उद्गारों से
रिश्ते दरख्त नहीं होते है
लताएँ होती है जिन्हें
सहारा चाहिए होता है
भरोसे के सबल खूँटों का
जिस पर वो निश्चिंत होकर
पसर सके मनचाहे आकार में
रिश्ते तुलसी के बिरवे सरीखे है
जिन्हे प्यार और सम्मान
के जल से सींचना होता है
तभी पत्तों से झरते है आशीष
चुभते काँटों से चंद बातों को
अनदेखा करने से ही
खिलते है महकते रिश्तों के गुलाब
सुवासित करते है घर आँगन
बाती बन कर रिश्तों के दीये में
जलना पड़ता है अस्तित्व भूल कर
तभी प्रकाश स्नेह का दिपदिपाता है
रिश्ते ज़बान की तलवार से नहीं
महीन भावों के सूई से जोड़े जाते है
जिससे अटूट बंधन बनता है
पूजा के मौली जैसे ,
रिश्ते हवा या जल की तरह
बस तन को जीवित रखने के
नहीं होते है,
रिश्ते मन होते है जिससे
जीवन का एहसास होता है।

       #श्वेता🍁



बरखा ऋतु

तपती प्यासी धरा की
देख व्यथित अकुलाहट
भर भर आये नयन मेघ के
बूँद बूद कर टपके नभ से
थिरके डाल , पात शाखों पे
टप टप टिप टिप पट पट
राग मल्हार झूम कर गाये है
पवन के झोंकें से उड़कर
कली फूल संग खिलखिलाए
चूम धरा का प्यासा आँचल
माटी के कण कण महकाये है
उदास सरित के प्रांगण में
बूँदों की गूँजें किलकारी
मौसम ने ली अंगड़ाई अब तो
मनमोहक बरखा ऋतु आयी है।

कुसुम पातों में रंग भरने को
जीवन अमृत जल धरने को
अन्नपूर्णा धरा को करने को
खुशियाँ बूँदों में बाँध के लायी है
पनीले नभ के रोआँसें मुखड़े
कारे बादल के लहराते केशों में
कौंधे तड़कती कटीली मुस्कान
पर्वतशिख का आलिंगन करते घन
घाटी में रसधार बन बहने को
देने को नवजीवन जग को
संजीवनी बूटी ले आयी है
बाँह पसारें पलकें मूँदे कर
मदिर रस का आस्वादन कर लो
भर कर अंजुरी में मधुरस
भींगो लो तन मन पावन कर लो
छप छप छुम छुम रागिनी पग में
रूनझुन पाजेब पहनाने को
बूँदों का श्रृंगार ले आयी है
जल तरंग के मादक सप्तक से
झंकृत प्रकृति को करने को
जीवनदायी बरखा ऋतु आयी है।

      #श्वेता🍁

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...