Monday 31 July 2017

लाल मौत


कल तक अधमरी हो रही
सिकुड़ी गिन साँसे ले रही
पाकर वर्षा का अमृत जल
बलखाती बहकने लगी नदी
लाल पानी तटों को तोड़कर
राह बस्ती गाँवों पर मोड़कर
निगलती जाती है लाल मौत

पाई जोड़ कर रखेे  सपने
दो रोटी सूखी अमृत चखते
छतों को छानते डेगची में
टूटी चारपाई में पाँव  सिकोड़े
कुटिया में चैन से पड़े लोग
इतना क्यों तुम्हे मन भा गये
बस्ती में लाल कफन बिछा गये
पलक झपकते मौत बने खा गये

लाल मौत से जीने की जंग लिये
ऊँची पेड़ की शाख पर लटके
कहीं स्कूल की छत पर चिल्लाते
अधनंगे भूख से बिलबिलाते
माँओं की छाती नोचते बच्चे
सूखे अधरों पर जीभ फेरते
मरियल सूखे देह का बोझ लादे
बूढ़ी पनीली  उम्मीद भरी आँखें
आसमां देखते है टकटकी बाँधे
भोजन के पैकेट लिए देवदूतो की

राहत शिविरों के गंदे टेंटों में
जानवरों के झुण्ड से रिरियाते
बेहाल जीने को मजबूर ज़िदगी
मुट्ठी भर अनाज भीख माँगते
मददगार बन आये व्यापारियों से
परिवार से बिछुड़ी औरतों को
जबह करने को आतुर राक्षस
ब्रेकिंग न्यूज बनाती मीडिया
आश्वासन के कपड़े पहनाते
कागज़ो पर राहत दिखाते
संवेदहनहीन बड़बोले नुमाईदे

लाल पानी उतरने के बाद की
बदबू , सडन , गंदगी को झेलते
लुट गये सपनों की चिंदियाँ समेटे
महामारी की आशंंका से सहमेे
खौफ ओढ़े वापस लौट जाते है
अपनी लाशों को अपने काँधे लादे
टूटे दरके आशियाने में फिर से
तलाशने दो रोटियाँ  सुख की
लाल पानी के कोप से जीवित
अंधेरों को चीरकर आगे बढ़ते
लाल पानी लाल मौत को हराते
जीना सिखलाते बहादुर लोग

    #श्वेता🍁

Saturday 29 July 2017

किस गुमान में है

आप अब तक किस गुमान में है
बुलंदी भी वक्त की ढलान में  है

कदम बेजान हो गये ठोकरों से
सफर ज़िदगी का थकान में  है

घूँट घूँट पीकर कंठ भर आया
सब्र  गम़ का इम्तिहान  में  है

डरना नही तीरगी से मुझको
भोर का सूरज दरम्यान में है

नीम  सी लगी  वो बातें   सारी
कड़वाहट अब भी ज़बान में है


  #श्वेता🍁

Friday 28 July 2017

आँखें


तुम हो मेरे बता गयी आँखें
चुप रहके भी जता गयी आँखें
छू गयी किस मासूम अदा से
मोम बना पिघला गयी आँखें
रात के ख्वाब से हासिल लाली
लब पे बिखर लजा गयी आँखें
बोल चुभे जब काँटे बनके
गम़ में डूबी नहा गयी आँखें
पढ़ एहसास की सारी चिट्ठियाँ
मन ही मन बौरा गयी आँखें
कुछ न भाये तुम बिन साजन
कैसा रोग लगा गयी आँखें
     #श्वेता🍁
*चित्र साभार गूगल*

Wednesday 26 July 2017

क्षणिकाएँ


प्यास

नहीं मिटती
बारिश में गाँव के गाँव
बह रहे
तड़प रहे लोग दो बूँद
पानी के लिए।
★★★★★★★★★★★
सूखा

कहाँ शहर भर गया
लबालब
पेट जल रहे है झोपड़ी में
आँत सिकुड़ गये
गीली जीभ फेर कर
पपड़ी होठों की तर कर रहे है।
★★★★★★★★★★★★
सपने

रतजगे करते है
सीले बिस्तर में दुबके
जब भी नींद से पलकें झपकती है
रोटी के निवाले मुँह तक
आने के पहले
अक्सर भोर हो  जाती है।
★★★★★★★★★★★★★
बोझ

जीवन के अंतिम पड़ाव में
एहसास होता है
काँधे पर लादकर चलते रहे
ज़माने को बेवजह
मन की गठरी यूँ ही
वजनदार हो गयी।
★★★★★★★★★★★★★★
जीवन

बह रहा वक्त की धार पर अनवरत
भीतर ही भीतर छीलता तटों को
मौन , निर्विकार , अविराम
छोड़कर सारे गाद किनारे पर
अनंत सागर के बाहुपाश में
विलीन होने को।


   #श्वेता🍁

Tuesday 25 July 2017

सावन-हायकु


छेड़ने राग
बूँदों से बहकाने
आया सावन

खिली कलियाँ
खुशबु हवाओं की
बताने लगी

मेंहदी रचे
महके तन मन
मदमाये है

हरी चुड़ियाँ
खनकी कलाई में
पी मन भाए

धानी चुनरी
सरकी रे सर से
कैसे सँभालूँ

झूला लगाओ
पीपल की डार पे
सखियों आओ

लजीली आँखें
झुक झुक जाये रे
धड़के जिया

मौन अधर
मंद मुस्काये सुन
तेरी बतिया

छुपके ताके
पलकों की ओट से
तोरी अँखियाँ

संग भीग ले
रिम झिम सावन
बीत न जाए



मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...