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Friday, 12 April 2019

मैं रहूँ या न रहूँ


कभी किसी दिन
तन्हाई में बैठे
अनायास ही
मेरी स्मृतियों को 
तुम छुओगे अधरों से
झरती कोमल चम्पा की
कलियों को
समेटकर अँजुरी से
रखोगे
उसी पिटारे में 
जिसमें 
मेरे दिये नामों-उपनामों की
खनकती सीपियाँ बंद है
तुम्हारी उंगलियों के स्पर्श से
स्पंदित होकर
जब लिपटेगे वो बेतुके नाम 
तुम्हारी धड़कनों से 
कलोल के
मीठे स्वर हवाओं के 
परों पर उड़ - उड़कर
तुम्हें छेड़ेगे
सुनो!
उस पल 
तुम मुस्कुराओगे न?
मैं रहूँ या न रहूँ।

#श्वेता सिन्हा

Monday, 8 April 2019

मन


(१)
जीवन के बेढब
कैनवास पर
भावों की कूची से
उम्रभर उकेरे गये
चेहरों के ढेर में
ढूँढ़ती रही 
एहसास की खुशबू 
धूप ,हवा ,पानी,
जैेसा निराकार
और ईश की तरह
अलौकिक,अदृश्य
तृप्ति की बूँद,
देह के भीतर
स्पंदित श्वास
सूक्ष्म रंध्रों से
मन की तरंगों का
चेतना के तटों से
टकराकर लौटने का
अनहद नाद 
भ्रम ,माया,मरीचिका के 
मिथ्य दरकने के उपरांत
उकताया,विरक्त
सुप्त-जागृत मन ने जाना 
एहसास का कोई चेहरा नहीं होता

(२)
प्राकृत भाषा में लिखी
अबूझ पहेलियाँ
पक्षियों के कलरव की भाँति
मधुर किंतु गूढ़
मन की अवश
कल्पनाओं के
खोल के भीतर ही भीतर
गीले कागज़ पर
प्रेम की एक बूँद
टपकते ही
धमनियों की महीन वाहिनियों में
फैल जाती है।

(३)
मन का ज़ंग लगा 
चरमराता दरवाज़ा
दस्तक से चिंहुककर
ज़िद में अड़कर बंद 
रहना चाहता है
आगंतुक से भयभीत
जानता है 
यथोचित 
आतिथ्य सत्कार के 
अभाव में
जब लौटेगा वो,
तब टाँग देगा
स्मृतियों का गट्ठर
दरवाज़े की
कमज़ोर कुंड़ी पर।

#श्वेता सिन्हा