Pages

Saturday, 11 May 2019

सुनो न माँ....

मातृ दिवस का कितना औचित्य है पता नहीं..।
माँ तो हमेशा से किसी भी बच्चे के लिए उसके व्यक्तित्व का अस्तित्व का हिस्सा है न...फिर एक दिन क्यों निर्धारित किया जाये..?
आज सबको अपनी के लिए कुछ न कुछ लिखते,कहते देखकर हम सोचने लगे कि हम आज तक कभी भी "माँ" के लिए लिख नहीं पाये..।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है माँ का नाम आते ही मन के भाव शब्दों पर प्रभावी हो जाते हैं और फिर कुछ भी लिखना संभव नहीं हो पाता मुझसे।  

माँ तुम मेरी "सुपर वुमन"हो हम तो यही कहते रहे जीवनभर। आज बिना प्रयास कुछ मन की बातें
जो तुमसे हमेशा से तुमसे  कहना चाहते है हम..।

सुनो न माँ..
★★★★
कैसे कहूँ,किस सरिता में बहूँ
ममता तेरी,भावों में बाँध नहीं पाती हूँ
कैसे बताऊँ माँ तुम क्या हो?
चाहकर भी,शब्दों में साध नहीं पाती हूँ

समय की चाक पर बैठे तुमको
सबकी खुशियाँ गढ़ते देखा 
गला-गलाकर माटी-सा ख़ुद को
पात्र प्रेम का भरते देखा
माँ तुम जैसा कारीगर तिलिस्मी
जगभर में दूजा कमाल नहीं पाती हूँ

तेरे पाँव की पावन रुनझुन से
घर-आँगन मंदिर लगता है
तेरी चूड़ियों की खन-खन सुन
सूरज भी ताल में चलता है
माँ तू खुशबू में भीगा उपवन
त्रिलोक में ऐसा पुष्पमाल नहीं पाती हूँ

तुम्हारी उंगलियों का पवित्र स्पर्श पा
चिंता की लकीरें सिकुड़ जाती है
देवी-देवताओं की मनौतियाँ करती
तू बड़ की जड़-सा अड़ जाती है
मेरे जीवन की कठिन चुनौतियों में
माँ तुम-सा कोई ढाल नहीं पाती हूँ

तेरे तन पर गढ़ियाती उम्र की लकीर
मेरी खुशियों की दुआ करती है
तू मौसम के रंगों संग घुल-घुलकर
मेरी मुस्कान बनकर झरती है
तेरे आशीष के जायदाद की वारिस 
तेरे नेह की पूँजी सँभाल नहीं पाती हूँ

कैसे बताऊँ माँ तुम क्या हो?
चाहकर भी,शब्दों में साध नहीं पाती हूँ।

#श्वेता सिन्हा
११/५/२०१९

Thursday, 9 May 2019

प्रतीक्षा



बैशाख की बेचैन दुपहरी
दग्ध धरा की अकुलाहट,
सुनसान सड़कों पर
चिलचिलाती धूप 
बरगद के पत्तों से छनकती
चितकबरी-सी
तन को भस्म करने को लिपटती
गरम थपेड़़ों की बर्बरता,
खिड़की-दरवाज़े को
जबरन धकेलकर
जलाने को आतुर
लू की दादागीरी,
और हृदय की
अकुलाहट बढ़ाता
बाहर के नाराज़
मौसम की तरह
तुम्हारा मौन,
उदास निढाल पड़ा मन
मौन का लबादा उतारते
साँझ की प्रतीक्षा में
जब सूरज थककर
अंबर की गोद में
सो जायेगा,
तुम आओगे फिर
रजनीगंधा से महकते
बातों की सौगात लिए,
जिसके कोमल स्पर्श
को ओढ़कर मुस्कुराती
भूल जाऊँगी झुलसाती दुपहरी
तुम बरसा जाना कुछ बूँदें नेह की,
और मैं समा लूँगी हर एक शब्द
अंतर्मन में ,
प्यासी धरा-सी।


 #श्वेता सिन्हा

Sunday, 5 May 2019

गुलमोहर


गरमी की
अलसायी सुबह,
जब तुम बुनते हो
दिनभर के सपने
अपने मन की रेशमी डोरियों से,
रक्ताभ आसमान से
टपककर आशा की किरणें
भर जाती हैं घने गुलमोहर की
नन्हीं कलियों में,

बेचैन दोपहर में
कार्य की अधिकता में
बिसराकर अपना अस्तित्व
चिलचिलाती घाम से तपकर
धैर्य से दिपदिपाते हो तुम,
तब गुलमोहर की 
कलियों के अधरों से फूटती हैं
लाल-पीली,मख़मली पंखुडियाँ..।

उमसभरी लंबी रातों में
नींदभरी पलकों की
फैली ओढ़नी पर 
अधूरे सपनों को
सीते हो बारीक़ी से
और गुलमोहर की फुनगी में 
अटका चाँद
तुम्हें थपकियाँ देकर
सुला देता है।

मैं तुम्हारे आँगन के,
अनगिनत गमलों में खिले
गुलाब,बेला,जूही के सुगंधित फूल
नहीं बनना चाहती,
जो सुख की छाँव में साथ देते हैं
और गर्मीे की प्रचंडता से
घबराकर मुरझा जाते हैं।

तुम्हारे कमरे की खिड़की से
झाँकता रहता है अपलक
तुम कितने भी उनींदे रहो,
थके रहो,अलसाये रहो,
जिन मख़मली लाल फूलों और
हरी पत्तियों को देखकर
तुम्हारे होंठ मुस्कुरा देते हैं...;

जिसमें मदहोश ख़ुशबू नहीं,पर
तुम्हारा दग्ध हृदय सुकून पाता है
तुम्हारे हर दुःख,पीड़ा और संताप पर
अचूक औषधि की तरह
तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ
आजीवन,  
और रचाना चाहती हूँ,
तुम्हारे मन में
आत्मिक सौंदर्य के गझिन बेलबूटे,
गुलमोहर के चटकीले फूलों
के गुच्छों-सा
प्रेम का प्रगाढ़ रंग।

#श्वेता सिन्हा