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Sunday, 23 February 2020

विरहिणी/वसंत


सूनी रात के अंतिम प्रहर
एक-एककर झरते
वृक्षों से विलग होकर
गली में बिछे,
सूखे पत्रों को
सहलाती पुरवाई ने
उदास ड्योढ़ी को
स्नेह से चूमा,
मधुर स्मृतियों की
साँकल खड़कने से चिंहुकी,
कोयल की  पुकार से उठी 
मन की हूक को दबाये
डबडबाई पलकें पोंछती 
पतझड़ से जीवन में 'वह'
वसंत की आहट सुनती है।

हवाओं में घुली
नवयौवना पुष्पों की गंध,
खिलखिलाई धूप से
दालान के बाहर 
ताबंई हुई वनचम्पा
जंगली घास से भरी
 क्यारियों में
 बेतरतीब से खिले
डालिया और गेंदा
 को रिझाते
अपनी धुन में मगन
भँवरों की नटखट टोलियाँ,
मुंडेर पर गूँटर-गूँ करते
भूरे-सफेद कबूतर
फुदकती बुलबुल
नन्हें केसरी बूटों
की फुलकारी से शोभित 
नागफनी की कंटीली बाड़ से
उलझे दुपट्टे उंगली थामे
स्मृतियों का वसंत 
जीवंत कर जाते हैं।

विरह की उष्मा  
पिघलाती है बर्फ़
पलकों से बूँद-बूँद
टपकती है वेदना 
भिंगाती है धरती की कोख 
सोये बीज सींचे जाते हैं,
फूटती है प्रकृति के
अंग-प्रत्यंग से सुषमा,
अनहद राग-रागिनियाँ...,
यूँ ही नहीं 
ओढ़ते हैं निर्जन वन
सुर्ख़ ढाक की ओढ़नी,
मौसम की निर्ममता से
ठूँठ हुयी प्रकृति का 
यूँ ही नहीं होता 
नख-शिख श्रृंगार,
प्रेम की प्रतीक्षा में 
चिर विरहिणियों के
अधीर हो कपसने से,
अकुलाई,पवित्र प्रार्थनाओं से
अँखुआता है वसंत

#श्वेता सिन्हा
२३/०२/२०२०