ठिठुरती रात, झरती ओस की चुनरी लपेटे खटखटा रही है बंद द्वार का साँकल।
साँझ से ही छत की अलगनी से टँगा झाँक रहा है शीशे के झरोखे से उदास चाँद तन्हाई का दुशाला ओढ़े।
नभ के नील आँचल से छुप-छुपकर झाँकता आँखों की ख़्वाबभरी अधखुली कटोरियों की सारी अनकही चिट्ठियों की स्याही पीकर बौराया बूँद-बूँद टपकता मन के उजले पन्नों पर धनक एहसास की कविताएँ रचता चाँद।
शांत झील की गोद में लहराती चाँदनी की लटें, पहाड़ी की बाहों में बेसुध बादलों की टोलियाँ वृक्षों की शाखों पर उनींदे पक्षियों की सरसराहटें हवाओं की धीमी फुसफुसाहटें और... ठंड़ी रात की नीरवता के हरपल में चाँद के मद्धिम आँच में धीमे-धीमे खदबदाती कच्चे रंगों में स्वप्नों की बेरंग चुन्नियाँ ...।