Friday 26 May 2017

समेटे कैसे

सुर्ख गुलाब की खुशबू,हथेलियों में समेटे कैसे
झर रही है ख्वाहिशे संदीली,दामन में समेटे कैसे

गुज़र जाते हो ज़ेहन की गली से बन ख्याल आवारा
एहसास के उन लम्हों को, रोक ले वक्त समेटे कैसे

रातों को ख्वाब के मयखाने में मिलते हो तुम अक्सर
भोर की पलकों से फिसलती, खुमारी को समेटे कैसे

काँटें लफ्ज़ों के चुभ जाते है आईना ए हकीकत में
टूटे दिल के टुकड़ों का दर्द,झूठी मुस्कां में समेटे कैसे

तेरे बिन पतझड़ है दिल का हर एक मौसम सुन लो
तेरे आहट की बहारों को,उलझी साँसों में समेटे कैसे
          #श्वेता🍁

Wednesday 24 May 2017

तुम्हारी तरह

गुनगुना रही है हवा तुम्हारी तरह
मुस्कुरा रहे है गुलाब तुम्हारी तरह

ढल रही शाम छू रही हवाएँ तन
जगा रही है तमन्ना तुम्हारी तरह

हंस के मिलना तेरा मुस्कुराना
तेरी बातें सताती है तुम्हारी तरह

लफ्जो़ं से अपनी धड़कन को छूना
बहुत याद आती है तुम्हारी तरह

कहानी लिखूँ या कविता कोई मैं
गज़ल बन रही है तुम्हारी तरह

न तुम सा कोई और प्यारा लगे है
नशा कोई तारी है तुम्हारी तरह

   #श्वेता🍁


Sunday 21 May 2017

आकाश झील

दिन भर की थकी किरणें
नीले आकाश झील के
सपनीले आगोश से
लिपटकर सो जाती है
स्याह झील के आँगन में
हवा के नाव पर सवार
बादल सैर को निकलते है
असंख्य ख्वाहिशों की कुमुदनी
में खिले सितारों की झालर
झील के पानी में जगमगाते है
शांत झील के एक कोने में
श्वेत दुशाला डाले तन्हा चाँद
आधा कभी पूरा मुख दिखलाता
जाने किस सोच में गुम उदास
निःशब्द बर्फ के शिलाखंड से
बूँद बूँद चाँदनी पिघला कर
मन को उजास की बारिश में
भिंगोकर शीतल करता है
निर्मल विस्तृत आकाश झील
हृदय के जलती बेचैनियों को
अपने सम्मोहन में बाँधकर
खींच लेता है अपनी ओर
और पलकों में भरकर स्वप्न
समा लेता है अपने गहरे संसार में।

    #श्वेता🍁




क्यों खास हो

नासमझ मन कुछ न समझे
कौन हो तुम क्यों खास हो

बनती बिगड़ती आस हो
अनकही अभिलाष हो
हृदय जिससे स्पंदित है
तुम वो सुगंधित श्वास हो
छूटती जीवन डोर की
तुम प्रीत का विश्वास हो

क्या हो कह दो खुद ही तुम
धड़कनों में क्यों खास हो

आधे अधूरे मन की वेदना
मौन में गूँजित हो साधना
न मिलो न पास हो पर,
ख्वाब तुम, तुम ही कल्पना
हर मोड़ पर जीवन के
तुमसे ही मिलती है प्रेरणा
अवनि से अंबर तक फैले
स्नेहिल भाव का आकाश हो

मेरे ख्यालों से न जाना तेरा
तन्हाईयों में तुम क्यों खास हो

मेरे रुप का अभिमान तुम
झुकी पलकों का सम्मान तुम
बड़े जतन से सँभाले रखा है
दिल के कोरे पन्नों पे नाम तुम
तुम हो जब तक चल रही है
धड़कते हो जीवन प्राण तुम
मिटती नहीं जितना भी बरसे
आकुल हृदय की प्यास तुम

तुम्हे महसूस कर इतराऊँ मैं
बता न तुम इतने क्यों खास हो

          #श्वेता🍁


सूरज

उनींदी पलकों को खोलकर देखे
भोर से मिलता अलसाता सूरज

घटाओं के झुरमुट से झाँककर
स्मित मुस्कान बिखराता सूरज

पर्वतशिख के बाहुपाश में बँध
सुधबुध सर्वस्व बिसराता सूरज

मस्त पवन के अमृत प्याले पीकर
हर फूल कली को रिझाता सूरज

चूमकर धरा की धानी चुनरिया
लता वन कानन दुलराता सूरज

नदी तड़ाग का जल सोना करके
सागर में छककर नहाता सूरज

नियत समय पर मिलने है आता
दिनभर कितना बतियाता सूरज

बादल से आँख मिचौली खेलता
रूप बदलकर दिखलाता सूरज

सप्त अश्व रथ में बैठकर चलता
सुबह और शाम बतलाता सूरज

        #श्वेता🍁

Thursday 11 May 2017

बेबसी


ऊफ्फ्...कितनी तेज धूप है.....बड़बड़ाती दुपट्टे से पसीना पोंछती मैं शॉप से बाहर आ गयी।इतनी झुलसाती गरमी में घर से बाहर निकलने का शौक नहीं था....मजबूरीवश निकलना पड़ा था....
माँ की जरूरी दवा खत्म हो गयी थी इसलिए आना जरूरी था।
सुनसान दोपहर में वीरान सड़को को जलाती धूप और शरीर की हड्डी तक गला डाले ऐसी लू चल रही ।मेरे शहर का पारा वैसे भी अपेक्षाकृत चढ़ा ही रहता है।
   तेजी से कदम बढ़ाती सोच ही रही थी कोई रिक्शा या ऑटो मिल जाता....तभी मेरे सामने आकर ऑटो रूकी। ओहह ये तो मेरे ही एरिया के ऑटो वाले भैय्या थे।मैं मन ही राहत महसूस करती बैठ गयी।गली से थोड़ी दूर मेन रोड पर उन्होनें उतार दिया,उनका मकान दूसरी तरफ बस्ती में था।
      मन ही मन सोचती अभी घर जाकर आराम से ए.सी चलाकर फ्रिज से लस्सी निकालकर बैठेगे।अभी चार कदम चली ही थी कि
रोने आवाज़ सुनी....मैं चौंक कर देखने लगी अभी कौन ऐसे रो रहा....देखा तो वही एक चार मंजिला फ्लैट के नीचे कोने में खड़ी एक लड़की सुबक सुबक कर रो रही है।
पहले तो मैंने अनदेखा किया और आगे बढ़ गयी पर फिर रहा न गया वापस आई चुपचाप उसके पास खडी हो गयी।वो लगातार रोये जा रही थी।छः- सात साल की लड़की थी वो,घुटने तक सफेद फूलों वाली फ्रॉक पहने...जो मटमैले से हो रहे थे...पीठ की तरफ चेन खराब हो गयी थी....इसलिए उघड़ी हुयी थी आधी पीठ तक....
बिखरे भूरे पसीने से लथपथ बाल मुँह पे झूल रहे थे जिसे वो बार बार हटा रही थी....जलती धरती पर सहज रूप पर नंगे पाँव खडी रोये जा रही थी। हाथों  की कसकर मुट्ठियाँ बाँधे कर सीने से लगाये हुए थी।
 मुझे खड़ा पाकर उसने एक क्षण को रोती लाल आँखों से मासूमियत भरकर मेरी ओर देखा और फिर सुबकने लगी।
मेरे पास पानी की बोतल थी जो अब मौसम की तरह गरम हो गयी थी।पर मैंने उससे कहा वो पी ले।उसने सिर न में हिलाया...
फिर मैंने पूछा,क्यों रो रही हो ।तीन चार बार पूछने पर जो कहा वो अन्तर्मन तक चुभ गया।
उसने कहा उसके बापू रिक्शा चलाते है आज पैसा मिला है न उधर से ही पीकर आये है....उन्हें एक पाउच दारु और चाहिए और एक बंडल बीड़ी भी....उन्होंने पैसे दिये है उसे ये सब लाने को....उसने मना किया तो बहुत मारा और बाहर निकाल दिया घर से.....।।कहा जब तक दारु नहीं लाना घर मत आना...।लेकिन वो दारु के ठेके में जाना नहीं चाहती क्योंकि वहाँ भोला है न वो उसको तंग करता है।
उसकी फ्रॉक खींचता है....गालों पर चुटकी काटता है और वो ऐसा करने को मना करती है तो दो चार चाँटे भी लगा देता है। उसकी बात सुनकर मैं सुन्न पड़ गयी।समझ नहीं आया क्या कहूँ....किसे समझाऊँ......उस मासूम को ,उसके शराबी पिता को,ठेके वाले भोला को किसे कहूँ.....मन में विचारों का बबंडर लिये थके कदमों से वापस लौट आयी घर ।

       #श्वेता🍁

Wednesday 10 May 2017

कभी यूँ भी तो हो

कभी यूँ भी तो हो....

साँझ की मुँडेर पे चुपचाप
तेरे गीत गुनगुनाते हुए
बंद कर पलको की चिलमन को
एहसास की चादर ओढ़
तेरे ख्याल में खो जाये
हवा के झोंके से तन सिहरे
जुल्फें मेरी खुलकर बिखरे
तस्व्वुर में अक्स तेरा हो
और ख्यालों से निकल कर
सामने तुम आओ

कभी यूँ भी तो हो.....

बरसती हो चाँदनी तन्हा रात में
हाथों में हाथ थामे बैठे हम
सारी रात चाँद के आँगन में
साँसों की गरमाहट से
सितारें पिघलकर टपके
फूलों की पंखुडियाँ जगमगाये
आँखों में खोये रहे हम
न होश रहे कुछ भी
और ख्वाब सारे उस पल में
सच हो जाए

कभी यूँ भी तो हो...

     #श्वेता🍁

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...