Monday 17 July 2017

व्यर्थ नहीं हूँ मैं

व्यर्थ नहीं हूँ मैं,
मुझसे ही तुम्हारा अर्थ है
धरा से अंबर तक फैले
मेरे आँचल में पनपते है
सारे सुनहरे स्वप्न तुम्हारे
मुझसे ही तो तुम समर्थ हो
स्त्री हूँ मैं,तुम्हारे होने की वजह
तुम्हारे जीवन के सबसे खूबसूरत
पड़ाव की संगिनी मैं,
हुस्न हूँ,रंग हूँ ,बहार हूँ
अदा हूँ ,खुशबू हूँ नशा हूँ
तुम्हारे लिए मन्नत का धागा बाँधती
एक एक खुशी के लिए रब के आगे,
अपनी झोली फैलाती
सुख समृद्धि को जाने कितने
टोटके अपनाती
लंबी उमर को व्रत ,उपवास से
ईश को रिझाती
तुम्हारे चौखट को मंदिर समझ
तुम्हें देव रूप मे सम्मान करती
मुहब्बत हूँ ,इबादत हूँ वफा हूँ
तुम्हारी राह के काँटे चुनती
मैं तुम्हारे चरणों का धूल हूँ,
अपने अस्तित्व को भूलकर
तुम में संपूर्ण हृदय से समाहित
तुम्हारी जीवन की नदी में
बूँद बूँद समर्पित मैं,
सिर्फ तुम्हारी इच्छा अनिच्छा
के डोर में झुलती
कठपुतली भर नहीं
"तुम भूल जाते हो क्यों
मैं मात्र एक तन नहीं,
नन्हीं इच्छाओं से भरा
एक कोमल मन भी हूँ।"

         #श्वेता🍁

Friday 14 July 2017

रात के सितारें

अंधेरे छत के कोने में खड़ी
आसमान की नीले चादर पर बिछी
नन्हें बूटे सितारों को देखती हूँ
उड़ते जुगनू के परों पर
आधे अधूरे ख्वाहिशें रखती
टूटते सितारों की चाह में
टकटकी बाँधे आकाशगंगा तकती हूँ
जो बीत गया है उन पलों के
पलकों पे मुस्कान ढ़ूढती हूँ
श्वेत श्याम हर लम्हे में
बस तुम्हें ही गुनती हूँ
क्या खोया क्या पाया
सब बेमानी सा लगे
जिस पल तेरे साथ मैं होती
मन के स्याह आसमान में
जब जब तेरे यादों के सितारे उभरते
बस तुझमें मगन पूरी रात
एक एक तारा गिनती हूँ
तुम होते हो न होकर भी
उस एहसास को जीती हूँ
     #श्वेता🍁


Thursday 13 July 2017

छू गया नज़र से

चित्र साभार गूगल
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छू गया नज़र से वो मुझको जगमगा गया
बनके हसीन ख्वाब निगाहों में कोई छा गया

देर तलक साँझ की परछाई रही स्याह सी
चाँद देखो आज खुद ही मेरे छत पे आ गया

चुप बहुत उदास रही राह की वीरानियाँ
वो दीप प्रेम के लिए हर मोड़ को सजा गया

खिले लबों का राज़ क्या लोग पूछने लगे
धड़कनों के गीत वो सरगम कोई सुना गया

डरी डरी सी चाँदनी थी बादलों के शोर से
तोड़ कर के चाँद वो दामन में सब लगा गया

      #श्वेता🍁

Wednesday 12 July 2017

न तोड़ो आईना

न तोड़ो आईना यूँ राह का पत्थर बनकर
खनकने दो न हसी प्यार का मंज़र बनकर

चुपचाप सोये है जो रेत के सफीने है
साथ बह जायेगे लहरों के समन्दर बनकर

न समझो धूल हिकारत से हमको देखो न
आँधी आने दो उड़ा देगे बबंडर बनकर

दिल कौन जीत पाया है शमशीर के बल
मैदान मार लो चाहो तो सिकंदर बनकर

क्या कम है किसी से तेरे जीवन के सफर
हलाहल रोज ही पीते तो हो शंकर बनकर

छुपा लूँ खींच के हाथों में लकीरों की तरह
साँसों सा साथ रहे मेेरा मुकद्दर बनकर

    #श्वेता🍁

बुलबुले

जीवन के निरंतर
प्रवाह में
इच्छाएँ हमारी
पानी के बुलबुले से
कम तो नहीं,
पनपती है
टिक कर कुछ पल
दूसरे क्षण फूट जाती है
कभी तैरती है
बहाव के सहारे
कुछ देर सतह पर,
एकदम हल्की नाजुक
हर बार मिलकर जल में
फिर से उग आती है
अपने मुताबिक,
सूरज के
तेज़ किरणों को
सहकर कभी दिखाती है
इंद्रधनुष से अनगित रंग
ख्वाहिशों का बुलबुला
जीवन सरिता के
प्रवाह का द्योतक है,
अंत में सिंधु में
विलीन हो जाने तक
बनते , बिगड़ते ,तैरते
अंतहीन बुलबुले
समय की धारा में
करते है संघर्षमय सफर।

  श्वेता🍁


Tuesday 11 July 2017

रक्तपिपासु

क्यूँ झकझोरती नहीं आत्मा
रक्त पिपासु बन बैठे है
क्यूँ हृदयविहीन है इंसां
ये कैसा जेहाद बता न
किस धर्म में लिखा है घात बता
रक्त सने तन मन नराधम
बलि चढ़ाते मासूमों की
कर कैसे मुँह तक ले जाकर
अन्न के निवाले खातेे होगे
कैसे रातों को चैन से
नेपथ्य में गूँजते चीखों को
अनदेखा कर स्वप्न सुनहरे आते होगे
इंसान नही नरभक्षी है जो
इंसानों को खाते है
अधम अधोगति ज्ञात नही
जो मानुष का भोग लगाते है
दंड तो अवश्य संभावित है
आज मिले कि कल हो विनाश
नियम प्रकृति का याद रहे सुनो
कर्म यही भोगकर जाना.होगा
जो तुमने किया धर्म के नामपर
सब कर्ज यही चुकाना होगा
न समझो कमज़ोरी इसको
हमारी भलमानसता है ये
हम जिस दिन हुँकार भरेगे
शिव का रौद्र रूप धरेगे
भस्म हो जायेगा अस्तित्व तुम्हारा
याद रखना ओ जेहाद के ठेकेदारों




आराम कमाने निकलते है

आराम कमाने निकलते है आराम छोड़कर
जेब में रखते है मुट्ठीभर ख्वाहिश मोड़कर
दो निवाले भी मुश्किल हो जाते है सुकून से
कल की चिंता रख दे हर कदम झकझोर कर
टूटी गुल्लकों के साथ उम्मीद भरी आँखें मासूम
पापा हमें भी ला दो खिलौने और मिठाई मोलकर
रुपयों का मोल हर बार ज्यादा लगा दुकान पर
हर खुशी कम लगी जब देखी जेबे टटोलकर
कहते है सब खरीदा नही जा सकता है दाम देकर
कुछ भी न मिला भरे बाज़ार मे मीठे से बोलकर
अजीब है जिंंदगी ऊसूल भी गज़ब से लगते है
सिलसिला साँसों का टूट जायेगा यूँ ही भागदौड़ कर



Monday 10 July 2017

निरर्थक

मन सिंधु को मथकर
जो शब्द के
मोती बाहर आते है
रचकर सादे पन्नों पर
इन्द्रधनुष बन जाते है
मंथन अविराम निरंतर
भावों की लहरे
हर गति से लहराती है
उछलती है वेग से
खुशियों के पूरणमासी को
कभी तट को बिना छुये ही
मौन उदास लौटकर
वापस जाती है
भावों के ज्वार समेटे
अनगिनत विचारों की
गंगा जमना और प्रदूषित धाराएँ
पीकर भी सिंधु
तटबंधों का उल्लंघन नहीं करता
अथाह खारे जलराशि को लिए
कर्म पथ पर अग्रसर है
विचारों की लेखनी थामें
अंतर में निहित मानिक मूँगे
भाव लहर में मचलते है तो
कोई कोई ही पाता है
पर ऐसा नहीं कि
सिंधु की पीड़ा
दूजा समझ नहीं पाता है
तो क्या जिनके हाथ रीते हो
रत्न भंडारों से
कुछ सीपियाँ और शंख
किसी ने मुट्ठी भर रेत ही पायी हो
उन विचारों की लहरों का
आना जााना निरर्थक है??

     #श्वेता🍁




मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...