Monday 6 November 2017

तारे जग के


तारे जग के नन्हे-नन्हें
झिलमिल स्वप्न हमारे

चाहते है हम छूना नभ को
सतरंग में रंगना बादल को
सूरज को भरकर आँखों में
हम हरना चाहते है तम को

भट्टी के तापों से झुलसे
कालिख लिपटे हाथों में
शीतलता भर चाँदनी की
हम सोना चाहते फूलों पर

कोमल मन के अंकुर हम
जरा प्रेम की बारिश कर दो
जलते जीवन की मरुभूमि में
अपनेपन की छाया भर दो

कंटक राह के कम नहीं होगे
जीवनपथ पर जीवन पर्यंत
मिल जाये गर साथ नेह के
खिलखिलायेे हम दिग्दिगंत

Saturday 4 November 2017

सुरमई अंजन लगा

सुरमई अंजन लगा निकली निशा।
चाँदी की पाजेब से छनकी दिशा।।

सेज तारों की सजाकर 
चाँद बैठा पाश में,
सोमघट ताके नयन भी
निसृत सुधा की आस में,
अधरपट कलियों ने खोले,
मौन किरणें चू गयी मिट गयी तृषा।

छूके टोहती चाँदनी तन 
निष्प्राण से निःश्वास है,
सुधियों के अवगुंठन में 
बस मौन का अधिवास है,
प्रीत की बंसी को तरसे, 
अनुगूंजित हिय की घाटी खोयी दिशा।

रहा भींगता अंतर्मन
चाँदनी गीली लगी,
टिमटिमाती दीप की लौ
रोई सी पीली लगी,
रात चुप, चुप है हवा
स्वप्न ने ओढ़ी चुनर जग गयी निशा।

     #श्वेता🍁

Friday 3 November 2017

मन की नमी

दूब के कोरों पर,
जमी बूँदें शबनमी।
सुनहरी धूप ने,
चख ली सारी नमी।
कतरा-कतरा
पीकर मद भरी बूँदें,
संग किरणों के, 
मचाये पुरवा सनसनी।
सर्द हवाओं की
छुअन से पत्ते मुस्काये,
चिड़ियों की हँसी से,
कलियाँ हैं खिलीं,
गुलों के रुख़सारों पर 
इंद्रधनुष उतरा,
महक से बौरायी, 
हुईं तितलियाँ मनचली।
अंजुरीभर धूप तोड़कर 
बोतलों में बंद कर लूँ,
सुखानी है सीले-सीले,
मन की सारी नमी।



       #श्वेता🍁

Wednesday 1 November 2017

मुस्कान की कनी

लबों पे अटकी
मुस्कान की कनी
दिल में गड़ गयी
लफ्ज़ों की अनी

बातों की उंगलियों से
जा लिपटा मन
उलझकर रह गयी
छुअन में वहीं

अनगिनत किस्से है
कहने और सुनने को
लाज के मौन में सिमटी
कई बातें अनगिनी

सुनो,
रोज आया करो न
आँगन में मेरे 
जाया करो बरसाकर
बातों की चाँदनी

क्या फर्क है कि
तुम दूर हो या पास
एहसास तुम्हारा
भर देता है रोशनी

     #श्वेता🍁

Monday 30 October 2017

शरद का स्वागत


पहाड़ों
का मौसम
फ़िज़ांओं में 
उतर आया है।
चाँदनी ने 
सारी रात 
खूब नेह 
बरसाया है।

ओस में भीगी 
फूल और पत्ते 
ताजगी 
जगाने लगी,
करवट 
ले रहा
मौसम
हवाओं ने 
एहसास 
कराया है।

नीले नीले 
आसमां में
रूई से 
बादल 
उड़ने लगे,
गुनगुनी 
धूप की 
बारिश ने, 
रुत को 
रंगीन 
बनाया है।

भँवर 
और तितली
फूलों से
बतियाने लगे,
गुलाब की 
खुशबू ने 
बाग का 
हर कोना 
महकाया है।

शरद के 
स्वागत में 
वादियों के 
दामन 
सजने लगे,
बहकी
हवाओं ने 
हर शय में
नया राग 
जगाया है।

       #श्वेता🍁

Saturday 28 October 2017

तुम बिन.....


चित्र साभार गूगल


तुम बिन बड़ी उदासी है।
नयन दरश को प्यासी है।।
पवन झकोरे सीले-सीले,
रूत ग़मगीन ज़रा-सी है।

दरवाज़ें है बंद लबों के,
दर्द भला कम हो तो कैसे?
मौन सिसकता साँसों में
सुर गीत पिरोये मन कैसे
 छू अधरों को कहते अश्रु
पीड़ा नमकीन ज़रा-सी है।

रात अमावस घुटन भरी,
घनघोर अंधेरा छाया है।
जुगनू तारे सब रुठ गये
खग व्याकुल घबराया है
बाती कहती है सिहर-सिहर
भोर में बाकी देर ज़रा-सी है।

बिना तुम्हारे सुरभित न हो,
पुष्प पलाश सा लगता है।
बिना रंग ज्यों फाग सजे
ना उल्लास ही जगता है
छू लो न भर दो गंध मधुर
कली गंधविहीन ज़रा-सी है।

सागर उफ़ने नित निर्विकार
जीवन का अमृत सार लिये
खारी लहरें उछली मचली
तट सूना रेत का भार लिये
तुम अंजुरी भर नीर बनो
नेह प्यासी मीन ज़रा-सी है।
  
     #श्वेता सिन्हा

  

  

Tuesday 24 October 2017

छठ:आस्था का पावन त्योहार

धरा के जीवन सूर्य और प्रकृति के उपासना का सबसे बड़ा  उत्सव छठ पर्व के रूप में मनाया जाता है।बिहार झारखंड एवं उत्तर प्रदेश की ओर आने वाली हर बस , ट्रेन खचाखच भरी हुई है।लोग भागते दौड़ते अपने घर आ रहे है।कुछ लोग साल में एक बार लौटते है अपने जड़ों की ओर,रिश्तों की टूट-फूट के मरम्मती के लिए,माटी की सोंधी खुशबू को महसूस करने अपने बचपन की यादों का कलैंडर पलटने के लिए,गिल्ली-डंडा, सतखपड़ी,आइस-पाइस,गुलेल और आम लीची की के रस में डूबे बचपन को टटोलने के लिए,लाड़ से भीगी रोटी का स्वाद चखने।।माँ-बाबू के अलावा पड़ोस की सुगनी चाची,पंसारी रमेसर चाचा की झिड़की का आनंद लेने।

लोक आस्था के इस महापर्व का उल्लेख रामायण और महाभारत में भी मिलता है।ऐसी मान्यता है कि आठवीं सदी में औरंगाबाद(बिहार) स्थित देव जिले में छठ पर्व की परंपरागत शुरूआत हुई थी।

चार दिवसीय इस त्योहार में आस्था का ऐसा अद्भुत रंग अपने आप में अनूठा है।यह ऐसा एक त्योहार है जो कि बिना पुरोहित के सम्पन्न होता है।साफ-सफाई और शुद्धता का विशेष ध्यान रखा जाता है।घर तो जैसे मंदिर में तबदील हो जाता है।घर की रसोई में लहसुन-प्याज दिवाली के दिन से ही निषिद्ध हो जाता है।घर की हर चीज नहा-धोकर पूजा में सम्मिलित होने के लिए तैयार हो जाती है।

नहाय-खाय यानि त्योहार के प्रथम दिवस पर , व्रती महिला भोर में ही नहा धोकर पूरी शुचिता से लौकी में चने की दाल डालकर सब्जी और अरवा चावल का भात बनाती है।सेंधा नमक और खल में कूटे गये मसालों से जो प्रसाद बनता है उसका स्वाद अवर्णनीय  है।

घर पर ही गेहूँ बीनकर, धोकर सुखाया जाता है पूरे नियम से,जब तक गेहूँ न सूखे उपवास रखा जाता है।
बाज़ार हाट सूप, दौरा,सुप्ती,डाला ईख,जम्हेरी नींबू,केला,नारियल,अदरख,हल्दी,गाज़र लगे जड़ वाले पौधों और भी कई प्रकार के फलों से सज जाता है।सुथनी और कमरंगा जैसे फल भी होते है इसकी जानकारी छठ के बाज़ार जाकर पता चलता है।
दूसरे दिन यानि खरना के दिन व्रती महिलाएँ दिनभर निर्जल व्रत करके शाम को पूरी पवित्रता से गाय के दूध में चावल डाल कर खीर बनाती है कुछ लोग मिसरी तो कुछ गुड़ का प्रयोग करते है। शाम को पूजाघर में सूर्य भगवान के नाम का प्रसाद अर्पित कर,फिर खीर खुद खाती  है फिर बाकी सभी लोग पूरी श्रद्धाभक्ति से प्रसाद ग्रहण करते है।

तीसरे दिन सुबह से ही सब सूप,दौरा,डाला और बाजा़र से लाये गये फलों को पवित्र जल से धोया जाता है।फिर नयी ईंट जोड़कर चूल्हा बनाया जाता है आम की लकड़ी की धीमी आँच पर गेहूँ के आटे और गुड़ को मिलकार  प्रसाद बनाया जाता है जिसे 'ठेकुआ', 'टिकरी' कहते है।चावल को पीसकर गुड़ मिलाकर कसार बनाया जाता है,भक्तिमय सुरीले पारंपरिक गीतो को गाकर घर परिवार के हर सदस्य की खुशहाली,समृद्धि की प्रार्थना की जाती है। हँसते खिलखिलाते गुनगुनाते असीम श्रद्धा से बने प्रसाद अमृत तुल्य होते है।फिर,ढलते दोपहर के बाद सूप सजा कर सिर पर रख नंगे पाँव नदी,तालाब के किनारों पर इकट्ठे होते है सभी, व्रती महिलाओं के साथ अन्य सभी लोग डूबते सूरज को अरग देने।सुंदर मधुर गीत कानों में पिघलकर आत्मा को शुद्ध कर जाते है।नये-नये कपड़े पहनकर उत्साह और आनंद से भरे-पूरे,मुस्कुराते अपनेपन से सरोबार हर हाथ एक दूसरे के प्रति सम्मान और सहयोग की भावना से भरे जीवन के प्रति मोह बढ़ा देते है। शारदा सिन्हा के गीत मानो मंत्र सरीखे वातावरण को पूर्ण भक्तिमय बना देते है।

चौथे दिन सूरज निकलने के पहले ही सभी घाट पहुँच जाते है।उगते सूरज का इंतज़ार करते,भक्ति-भाव से सूर्य के आगे नतमस्तक होकर अपने अपनों लिए झोली भर खुशियाँ माँगते है।उदित सूर्य को अर्ध्य अर्पित कर व्रती अपना व्रत पूरा करती है।

प्रकृति को मानव से जोड़ने का यह महापर्व है जो कि आधुनिक जीवनशैली में समाजिक सरोकारों में एक दूसरे से दूर होते परिवारों को एक करने का काम करता है।यह होली,दशहरा की तरह घर के भीतर सिमटकर मनाया जाने वाला त्योहार नहीं,बल्कि एकाकी होती दुनिया के दौर में सामाजिक सहयोगात्मक रवैया और सामूहिकता स्थापित कर जड़ों को सींचने का प्रयास करता एक अमृतमय घट है।आज यह त्योहार सिर्फ बिहार या उत्तरप्रदेश ही नहीं अपितु इसका स्वरूप व्यापक हो गया है यह देश के अनेक हिस्सों में मनाया जाने लगा है।हिंदू के अलावा अन्य धर्माम्बलंबियों को इस त्योहार को करते देखने का सुखद सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है।मैं स्वयं को भाग्यशाली मानती हूँ कि मुझे परंपरा में ऐसा अनूठा त्योहार मिला है।

#श्वेता🍁

                   *चित्र साभार गूगल*

शब्द हो गये मौन

शब्द हो गये मौन सारे
भाव नयन से लगे टपकने,
अस्थिर चित बेजान देह में
मन पंछी बन लगा भटकने।

साँझ क्षितिज पर रोती किरणें
रेत पे बिखरी मीन पियासी,
कुछ भी सुने न हृदय है बेकल
धुंधली राह न टोह जरा सी।

रूठा चंदा बात करे न
स्याह नभ ने झटके सब तारे,
लुकछिप जुगनू बैठे झुरमुट
बिखरे स्वप्न के मोती खारे।

कौन से जाने शब्द गढ़ूँ मैं
तू मुस्काये पुष्प झरे फिर,
किन नयनों से तुझे निहारूँ
नेह के प्याले मधु भरे फिर।

तुम बिन जीवन मरूस्थल
अमित प्रीत तुम घट अमृत,
एक बूँद चख कर बौराऊँ
तुम यथार्थ बस जग ये भ्रमित।

    #श्वेता🍁

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...