Sunday 22 April 2018

अस्तित्व के मायने

बड़ी हसरत से देखता हूँ
वो नीला आसमान 
जो कभी मेरी मुट्ठी में था,
उस आसमान पर उगे
नन्हें सितारों की छुअन से
किलकता था मन
कोमल बादलों में उड़कर
चाँद के समीप
रह पाने का स्वप्न देखता रहा
वक़्त ने साज़िश की 
या तक़दीर ने फ़ैसला लिया
जलती हवाओं ने
झुलसाये पंख सारे
फेंक दिया तपती मरूभूमि में
कहकर,भूल जा 
नीले आसमान के ख़्वाबगाह में
नहीं उगते खनकदार पत्ते
टिमटिमाते सितारों से
नहीं मिटायी जा सकती है भूख,
और मैं
अपने दायरे के पिंजरें 
क़ैद  कर दिया गया 
बांधे गये पंखों को फड़फड़ाकर
मैं बे-बस देख रहा हूँ
ज़माने के पाँव तले कुचलते
मेरे नीले आसमान का कोना
जो अब भी मुझे पुकारता है
मुस्कुराकर अपनी  बाहें पसारे हुये
और मैं सोचता हूँ अक्सर 
एक दिन 
मैं छूटकर बंधनों से
भरूँगा अपनी उड़ान
अपने नीले आसमान में
और पा लूँगा
अपने अस्तित्व के मायने

#श्वेता सिन्हा 

Friday 20 April 2018

क़दमों की आहट

साँझ की राहदारी में
क्षितिज की स्याह आँखों में गुम
ख़्यालों की सीढियों पर बैठी
याद के क़दमों की आहट टटोलती है।

आसमां की ख़ामोश बस्ती में
उजले फूलों के वन में भटकती
पलकों के भीतर डूबती आँखों से
पिघलते चाँद की तन्हाईयाँ सुनती है।

पागल समुंदर की लहरें
चाँद की उंगलियां छूने को बेताब
साहिल पर सीपियाँ बुहारती चाँदनी संग
रेत पर खोये क़दमों के निशां चुनती है।

मन की मरीचिका में
तपती मरुभूमि में दिशाहीन भटकते
बूँदभर चाहत लिए उम्र की पगडंडियों पर
बिछड़े क़दमों को ढूँढती नये ख़्वाब बुनती है।


    ---श्वेता सिन्हा

Monday 16 April 2018

मत लिखो प्रेम कविताएँ


मत लिखो प्रेम कविताऐं
महसूस होती प्रेम की अनुभूतियों को
हृदय के गोह से निकलते
उफ़नते भावों के
मुख पर रख दो
संयम का भारी पत्थर
और उन पत्थरों जैसे हो रहे
इंसानियत का आख्यान लिखो
फूल और कलियों की मुस्कान,
भँवरें और तितलयों का गान
ऋतुओं की अंगड़ाई
चिड़ियों का कलरव
चाँद की किरणें,
ओस की बूँदें
झरने का राग
नदियों का इठलाना,
व्यर्थ है तुम्हारा लिखना,
प्रकृति का कोमल स्पर्श
खोलो तुम आँखें
देखो न;
कोमल कलियों 
फूल सी बेटियों पर दुराचार
तुम्हें क्यों नहीं दिखता?
प्रदूषित धुएँ में धुँधलाता आसमां,
अट्टालिकाओं में छुपा चाँद,
गुम होती गौरैया
नाला बनती नदियाँ
बूँद-बूँद पानी को तरसते लोग
तुम जानते नहीं क्या?
मानवता का गान
देशभक्ति का बखान
परोपकार का प्रवचन
प्रेम का मौसम
भाईचारे का उद्घोष
धर्मग्रंथों तक सीमित
शब्दकोश में सुशोभित है
मार-काट, ईष्या-द्वेष,
बात-बात पर उबलता लहू,
सांप्रदायिकता की अग्नि में जलता धर्म,
स्वार्थ में लिप्त आत्मीयता
क्यों नहीं लिख पाते हो तुम?
अगर कहलाना है तुम्हें
अच्छा कवि 
तो प्रेम और प्रकृति जैसे
हल्के विषयों पर
क़लम से नक्क़ाशी करना छोड़ो
मर्यादित रहो,
गंभीरता का लबादा ओढ़ो,
समाज की दुर्दशा पर लिखो,
गिरते सामाजिक मूल्यों पर लिखो,
वरना तुम्हारा
चारित्रिक मूल्य आंका जायेगा,
प्रेम जैसी हल्की अनुभूतियों को लिखना
तुम्हारी छवि को
भारी कैसे बना सकता हैंं?
आखिर तुम कवि हो
अपने दायित्वों का बोध करो;
मत लिखो प्रेम कविताऐं
सभ्य मनुष्य और समाज को
बदसूरती का आईना दिखाकर
समाज में नवचेतना जागृत करो।

    -श्वेता सिन्हा

Saturday 7 April 2018

उड़ान भरें


चलो बाँध स्वप्नों की गठरी
रात का हम अवसान करें
नन्हें पंख पसार के नभ में
फिर से एक नई उड़ान भरेंं

बूँद-बूँद को जोड़े बादल
धरा की प्यास बुझाता है
बंजर आस हरी हो जाये
सूखे बिचड़ों में जान भरेंं

काट के बंधन पिंजरों के
पलट कटोरे स्वर्ण भरे
उन्मुक्त गगन में छा जाये
कलरव कानन में गान भरेंं

चोंच में मोती भरे सजाये
अंबर के विस्तृत आँगन में
ध्रुवतारा हम भी बन जाये
मनु जीवन में सम्मान भरें

जीवन की निष्ठुरता से लड़
ऋतुओं की मनमानी से टूटे
चलो बटोरकर तिनकों को
फिर से एक नई उड़ान भरेंं

     -श्वेता सिन्हा


Tuesday 3 April 2018

आरक्षण

आरक्षण के नाम पर 
घनघोर मचा है क्लेश
अधिकारों के दावानल में
पल-पल सुलगता देश

लालच विशेषाधिकार का
निज स्वार्थ में भ्रमित हो
क्या मिल जायेगा सोचो?
दूजे नीड़ के तिनकों से,
चुनकर के स्वप्न अवशेष

जाति,धर्म के दीमक ने ही
प्रतिभाओं को चाट लिया
नेताओं ने कुर्सी की खातिर
अगड़े पिछड़े को बाँट लिया
टुकड़े हो देश,यही दुर्गति शेष

आरक्षण की वेदी पर चढ़ा
अनगिनत मासूमों की भेंट
नर,नराधम अमानुष बन
पुरुषार्थ हीन करते आखेट
फिर,कैसे तुम हुये विशेष?

अधिकारों का ढोल पीटते
कितने कर्तव्य निर्वहन किये?
बस जलाकर,दहशत फैला
अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किये
देशभक्ति का यह अनूठा वेश

बाजुओं में दम है तो जाओ
कर्मों की अग्नि जलाओ
क्यों बनो याचक कहो न?
बन के सूरज जगमगाओ
सार्थक उदाहरण,तुम बनो संदेश

      -श्वेता सिन्हा

Saturday 31 March 2018

मूरखता का वरदान


समझदारी का पाठ पढ़
हम अघा गये भगवान
थोड़ी सी मूरखता का
अब तुमसे माँगे वरदान

अदब,कायदे,ढ़ंग,तरतीब
सब झगड़े बुद्धिमानों के
प्रेम,परोपकार,भाईचारा
श्रृंगार कहाये मतिमारों के

इंसानों को इंसा मैं समझूँ
न धर्म-अधर्म का ध्यान रहे
मानवता का दीप जलाऊँ
मन मूढ़ मति अज्ञान रहे

मूरख ही चतुरों के मन के
करते कार्य अनुकूल
माँ लक्ष्मी भी करे सवारी
सभा की रौनक "फूल"

मूर्खदिवस पर एक-दूजे के
अकल नाप मुस्काते है
कौन है कितना बड़ा चतुर
तोल-बोल इतराते है

मूर्ख चालीसा गाइये हंसके
है मूरखता अनमोल खरा
सरल हृदय स्नेह भावयुक्त
निर्मल,निर्झर हिय नेह भरा

ना चाहूँ मैं विद्वान कहाना
हे प्रभु,इतनी कृपा करिये
हर कर मेरी सारी ज्ञानता
हृदय में दया,करुणा भरिये।

     -श्वेता सिन्हा


Thursday 29 March 2018

राष्ट्रधर्म



धर्म के नाम पर 
कराह रही इंसानियत
राम,अल्लाह मौन है 
शोर मचाये हैवानियत

धर्म के नाम पर
इंसानों का बहिष्कार है
मज़हबी नारों के आगे
मनुष्यता बीमार है

खून को पानी बना के
बुझ सकेगी प्यास क्या?
चीत्कार को लोरी बना
कट सकेगी रात क्या?

न बनो कठपुतलियाँ
ज़रा विवेक से काम लो,
राम-रहीम के आदर्श को
न छ्द्म धर्म का नाम दो।

धर्म के नाम पर
मत बाँटो इन्सानों को,
अपने भीतर उग आये
काटो ईष्यालु शैतानों को

लफ़्जों की लकीर खींच
न नफरतों के कहर ढाओ
मार कर विष टहनियों को
सौहार्द्र का एक घर बनाओ

मज़हब़ी पिंज़रों से उड़कर
मानवता का गीत गाओ 
दिल से दिल को जोड़कर
राष्ट्रधर्म का संकल्प उठाओ

    -श्वेता सिन्हा

Wednesday 28 March 2018

एहसास का बवंडर



सूना बड़ा है तुम बिन ख़्वाबों का टूटा खंडहर।
तुमसे ही मुस्कुराये खुशियों का कोई मंज़र ।।

होने लगी है हलचल मेरे दिल की वादियों में।
साँसों को छू रहा है पागल-सा इक समुंदर ।।

पूनम की चाँदनी में मुलाक़ात का मौसम हो।
आकर के तुम निकालो है हिज़्र का जो खंज़र।।

प्यासी ज़मी में दिल की बरसो न बनके बादल।
ग़म धूप की तपन से धड़कन हुई है बंजर ।।

वीरानियों  में  महके सूखे  हुए जो   गुल है।
ख़ामोशियों  में  चीख़ेे   एहसास  के  बवंडर।।


   -श्वेता सिन्हा

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...