Thursday 10 May 2018

जफ़ा-ए-उल्फ़त

पूछो न बिना तुम्हारे कैसे सुबह से शाम हुई
पी-पीकर जाम यादों के ज़िंदगी नीलाम हुई

दर्द से लबरेज़ हुआ ज़र्रा-ज़र्रा दिल का
लड़खड़ाती हर साँस ख़ुमारी में बदनाम हुई

इंतज़ार, इज़हार, गुलाब, ख़्वाब, वफ़ा, नशा
तमाम कोशिशें सबको पाने की सरेआम हुई

क्या कहूँ वो दस्तूर-ए-वादा  निभा न सके 
वफ़ा के नाम पर रस्म-ए-मोहब्बत आम हुई

ना चाहा पर दिल ने तेरा दामन थाम लिया
तुझे भुला न सकी हर कोशिश नाकाम हुई

बुत-परस्ती की तोहमत ने बहुत दर्द दे दिया
जफ़ा-ए-उल्फ़त मेरी इबादत का इनाम हुई

    -श्वेता सिन्हा


Sunday 6 May 2018

कहानी अधूरी,अनुभूति पूरी -प्रेम की


उम्र के बोझिल पड़ाव पर
जीवन की बैलगाड़ी पर सवार
मंथर गति से हिलती देह
बैलों के गलेे से बंधा टुन-टुन की
 आवाज़ में लटपटाया हुआ मन
अनायास ही एक शाम
चाँदनी से भीगे 
गुलाबी कमल सरीखी
नाजुक पंखुड़ियों-सी चकई को देख
हिय की उठी हिलोर में डूब गया
कुंवारे हृदय के
प्रथम प्रेम की अनुभूति से बौराया
पीठ पर सनसनाता एहसास बाँधे
देर तक सिहरता रहा तन
मासूम हृदय की हर साँस में 
प्रेम रस के मदभरे प्याले की घूँट भरता रहा
मताया 
पलकें झुकाये भावों के समुंदर में बहती चकई
चकवा के पवित्र सुगंध से विह्वल  
विवश मर्यादा की बेड़ी पहने
अनकहे शब्दों की तरंगों से आलोड़ित 
मन के कोटर के कंपकंपाते बक्से के
भीतर ही भीतर
गूलर की कलियों-सी प्रस्फुटित प्रेम पुष्प
छुपाती रही 
तन के स्फुरण से अबोध
दो प्यासे मन का अलौकिक मिलन
आवारा बादलों की तरह
अठखेलियाँ करते निर्जन गगन में
संवेदनाओं के रथ पर आरुढ़
प्रेम की नयी ऋचाएँ गढ़ते रहे
स्वप्नों के तिलिस्म से भरा अनकहा प्रेम
यर्थाथ के खुरदरे धरातल को छूकर भी
विलग न हो सका
भावों को कचरकर देहरी के पाँव तले
लहुलुहान होकर भी
विरह की हूक दबाये
अविस्मरणीय क्षणों की 
टीसती अनुभूतियों को
अनसुलझे प्रश्नों के कैक्टस को अनदेखा कर
नियति मानकर श्रद्धा से
पूजा करेंंगे आजीवन
प्रेम की अधूरी कहानी की
पूर्ण अनुभूतियों को।


   -श्वेता सिन्हा

Friday 4 May 2018

आत्मबोध


हर शाम सूरज की 
बोझिल फीकी बाहें
स्याह क्षितिज में 
समाने के पहले
छूकर मेरी आँखों को
उदास कर जाती है
गहरे नीले नभ पर
छायी नीरवता
कोंचने लगती है
मन के सारे भावों को,
तब अपनी अनुभूतियों की
चिता पर लेटी
बेचैन,छटपटाती हुई
तुम्हारी स्मृतियों के एक-एक तारे गिनती हूँ
पूछती हूँ अनुत्तरित प्रश्न स्वयं से
क्यूँ मेरी सिसकियों को अनसुना कर
 विवशता का बहाना किये
बस टुकुर-टुकुर ताकते रहे?
तुम्हारे खोखले भावों में गहरे उतरती रही
तुम खेलते रहे निर्लज्जता से 
तुम्हारे छल को सच समझती रही
मैं जीती रही हर स्वप्न
भूल कर अपने अस्तित्व
पर फिर भी
लाख़ कोशिशों के बावजूद
न भूल सकी गंध
तुम्हारे चम्पई एहसास के
तुम्हें सीने से लगाये हर पल जीती रही
छल के जाल में उलझी
मन की यात्रा से थककर
अब तोड़कर कृत्रिम एहसासों के धागे
जलाकर छद्म अनुभूतियों का कफ़न
अपना सम्मान कर
आत्मबोध के आलोक में
जगमगाना चाहती हूँ।

-श्वेता सिन्हा


Sunday 22 April 2018

अस्तित्व के मायने

बड़ी हसरत से देखता हूँ
वो नीला आसमान 
जो कभी मेरी मुट्ठी में था,
उस आसमान पर उगे
नन्हें सितारों की छुअन से
किलकता था मन
कोमल बादलों में उड़कर
चाँद के समीप
रह पाने का स्वप्न देखता रहा
वक़्त ने साज़िश की 
या तक़दीर ने फ़ैसला लिया
जलती हवाओं ने
झुलसाये पंख सारे
फेंक दिया तपती मरूभूमि में
कहकर,भूल जा 
नीले आसमान के ख़्वाबगाह में
नहीं उगते खनकदार पत्ते
टिमटिमाते सितारों से
नहीं मिटायी जा सकती है भूख,
और मैं
अपने दायरे के पिंजरें 
क़ैद  कर दिया गया 
बांधे गये पंखों को फड़फड़ाकर
मैं बे-बस देख रहा हूँ
ज़माने के पाँव तले कुचलते
मेरे नीले आसमान का कोना
जो अब भी मुझे पुकारता है
मुस्कुराकर अपनी  बाहें पसारे हुये
और मैं सोचता हूँ अक्सर 
एक दिन 
मैं छूटकर बंधनों से
भरूँगा अपनी उड़ान
अपने नीले आसमान में
और पा लूँगा
अपने अस्तित्व के मायने

#श्वेता सिन्हा 

Friday 20 April 2018

क़दमों की आहट

साँझ की राहदारी में
क्षितिज की स्याह आँखों में गुम
ख़्यालों की सीढियों पर बैठी
याद के क़दमों की आहट टटोलती है।

आसमां की ख़ामोश बस्ती में
उजले फूलों के वन में भटकती
पलकों के भीतर डूबती आँखों से
पिघलते चाँद की तन्हाईयाँ सुनती है।

पागल समुंदर की लहरें
चाँद की उंगलियां छूने को बेताब
साहिल पर सीपियाँ बुहारती चाँदनी संग
रेत पर खोये क़दमों के निशां चुनती है।

मन की मरीचिका में
तपती मरुभूमि में दिशाहीन भटकते
बूँदभर चाहत लिए उम्र की पगडंडियों पर
बिछड़े क़दमों को ढूँढती नये ख़्वाब बुनती है।


    ---श्वेता सिन्हा

Monday 16 April 2018

मत लिखो प्रेम कविताएँ


मत लिखो प्रेम कविताऐं
महसूस होती प्रेम की अनुभूतियों को
हृदय के गोह से निकलते
उफ़नते भावों के
मुख पर रख दो
संयम का भारी पत्थर
और उन पत्थरों जैसे हो रहे
इंसानियत का आख्यान लिखो
फूल और कलियों की मुस्कान,
भँवरें और तितलयों का गान
ऋतुओं की अंगड़ाई
चिड़ियों का कलरव
चाँद की किरणें,
ओस की बूँदें
झरने का राग
नदियों का इठलाना,
व्यर्थ है तुम्हारा लिखना,
प्रकृति का कोमल स्पर्श
खोलो तुम आँखें
देखो न;
कोमल कलियों 
फूल सी बेटियों पर दुराचार
तुम्हें क्यों नहीं दिखता?
प्रदूषित धुएँ में धुँधलाता आसमां,
अट्टालिकाओं में छुपा चाँद,
गुम होती गौरैया
नाला बनती नदियाँ
बूँद-बूँद पानी को तरसते लोग
तुम जानते नहीं क्या?
मानवता का गान
देशभक्ति का बखान
परोपकार का प्रवचन
प्रेम का मौसम
भाईचारे का उद्घोष
धर्मग्रंथों तक सीमित
शब्दकोश में सुशोभित है
मार-काट, ईष्या-द्वेष,
बात-बात पर उबलता लहू,
सांप्रदायिकता की अग्नि में जलता धर्म,
स्वार्थ में लिप्त आत्मीयता
क्यों नहीं लिख पाते हो तुम?
अगर कहलाना है तुम्हें
अच्छा कवि 
तो प्रेम और प्रकृति जैसे
हल्के विषयों पर
क़लम से नक्क़ाशी करना छोड़ो
मर्यादित रहो,
गंभीरता का लबादा ओढ़ो,
समाज की दुर्दशा पर लिखो,
गिरते सामाजिक मूल्यों पर लिखो,
वरना तुम्हारा
चारित्रिक मूल्य आंका जायेगा,
प्रेम जैसी हल्की अनुभूतियों को लिखना
तुम्हारी छवि को
भारी कैसे बना सकता हैंं?
आखिर तुम कवि हो
अपने दायित्वों का बोध करो;
मत लिखो प्रेम कविताऐं
सभ्य मनुष्य और समाज को
बदसूरती का आईना दिखाकर
समाज में नवचेतना जागृत करो।

    -श्वेता सिन्हा

Saturday 7 April 2018

उड़ान भरें


चलो बाँध स्वप्नों की गठरी
रात का हम अवसान करें
नन्हें पंख पसार के नभ में
फिर से एक नई उड़ान भरेंं

बूँद-बूँद को जोड़े बादल
धरा की प्यास बुझाता है
बंजर आस हरी हो जाये
सूखे बिचड़ों में जान भरेंं

काट के बंधन पिंजरों के
पलट कटोरे स्वर्ण भरे
उन्मुक्त गगन में छा जाये
कलरव कानन में गान भरेंं

चोंच में मोती भरे सजाये
अंबर के विस्तृत आँगन में
ध्रुवतारा हम भी बन जाये
मनु जीवन में सम्मान भरें

जीवन की निष्ठुरता से लड़
ऋतुओं की मनमानी से टूटे
चलो बटोरकर तिनकों को
फिर से एक नई उड़ान भरेंं

     -श्वेता सिन्हा


Tuesday 3 April 2018

आरक्षण

आरक्षण के नाम पर 
घनघोर मचा है क्लेश
अधिकारों के दावानल में
पल-पल सुलगता देश

लालच विशेषाधिकार का
निज स्वार्थ में भ्रमित हो
क्या मिल जायेगा सोचो?
दूजे नीड़ के तिनकों से,
चुनकर के स्वप्न अवशेष

जाति,धर्म के दीमक ने ही
प्रतिभाओं को चाट लिया
नेताओं ने कुर्सी की खातिर
अगड़े पिछड़े को बाँट लिया
टुकड़े हो देश,यही दुर्गति शेष

आरक्षण की वेदी पर चढ़ा
अनगिनत मासूमों की भेंट
नर,नराधम अमानुष बन
पुरुषार्थ हीन करते आखेट
फिर,कैसे तुम हुये विशेष?

अधिकारों का ढोल पीटते
कितने कर्तव्य निर्वहन किये?
बस जलाकर,दहशत फैला
अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किये
देशभक्ति का यह अनूठा वेश

बाजुओं में दम है तो जाओ
कर्मों की अग्नि जलाओ
क्यों बनो याचक कहो न?
बन के सूरज जगमगाओ
सार्थक उदाहरण,तुम बनो संदेश

      -श्वेता सिन्हा

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...