Thursday 12 July 2018

तुम नील गगन में


आँखों में भर सूरत उजली
मैं स्वप्न तुम्हारे बुनती हूँ
तुम नील गगन में रहते हो
मैं धरा से तुमको गुनती हूँ

न चाहत तुमको पाने की
न दुआ है संग मर जाने की
तुम हँसकर एक नज़र देखो
ख़्वाहिश दिल की मैं सुनती हूँ

तेरा साथ मुझे अपना-सा लगे
गुलकंदी इक सपना-सा लगे
रिमझिम बरसे रस चंदनियाँ
तेरी महक साँस में चुनती हूँ

 तुम्हें देख के आहें भरती हूँ
 सच कहती हूँ तुमपे मरती हूँ
 उजले लबों की छुअन तेरी
 छलकी,बहकी मैं बहती हूँ

मेरे चाँद ये दिल था वैरागी
तुझसे ही मन की लगन लागी
मन वीणा के निसृत गीतों में
प्रिय चाँद की धुन मैं सुनती हूँ

   -श्वेता सिन्हा


Saturday 7 July 2018

कचरे में ज़िंदगी की तलाश


अक्सर गली के उस मुहाने पर आकर
थम जाते है मेरे पैर
जहाँ मुहल्लेभर का कचरा 
बजबजाते कूड़ेदान के आस-पास बिखरा होता है
आवारा कुत्तों की छीना-झपटी के बीच
चीकट,मटमैली 
फटी कमीज, गंदला निकर पहने
वो साँवले मासूम बच्चेे 
बात-बात पर
ऊँची आवाज़ में भद्दी गालियाँ देते
ठहाके लगाते
पीली आँखें मिचमिचाते
बिखरे भूरे जटा-जूट बाल,
मरियल कुपोषित तन लिए
कचरे के ढेर से
अपने सपने बीनते है
गंदी प्लास्टिक की बोतल,
टीन,गत्ते के डब्बे, टूटे खिलौने
और भी न जाने क्या-क्या
आवारा  चौपायों 
के बीच से चुनकर
किसी बेशकीमती मोती-सा
 प्लास्टिक के बदबूदारे बोरे में भरते
पीठ पर स्कूल बैग की जगह
कचरे का बोझ लादे नौनिहाल
जन्मते ही यकायक जिम्मेदार हो जाते हैं
पेट की आग बुझाने को
बेचते हैं कचरा,
फुटपाथ, मंदिर की सीढ़ियों,
गंदे नालों के किनारे
फटे,मैले टाट ओढ़े निढाल
सिकुड़े बेसुध सो जाते हैं 
डेंडराइट के नशे में चूर।
किसी भी फोटोग्राफी प्रतियोगिता के लिए
सर्वश्रेष्ठ चेहरे बनते 
अखबार और टेलीविजन पर
दिए जाने वाले 
"बचपन बचाओ" के नारों से बेख़बर,
कचरे में अपनी ज़िंदगी तलाशते
मासूमों को देखकर,
बेचैन होकर कहती हूँ ख़ुद से
गंदगी की परत चढ़ी
इनके कोमल जीवन के कैनवास पर
मिटाकर मैले रंगों को
भरकर ख़ुशियों के चटकीले रंग
काश! किसी दिन बना पाऊँ मैं
इनकी ख़ूबसूरत तस्वीर।

     --श्वेता सिन्हा


Thursday 5 July 2018

काश! हमें जो.प्यार न होता


हृदय हीनता के हाथों
प्रहर प्रथम प्रहार न होता
मान और मनुहार न होता
काश! हमेंं जो प्यार न होता

अब आयेंगे सोच सोच कर
उत्कंठा अपरावार न रहता
उपेक्षा की चोट ये उनकी
बारम्बार ये वार न सहता

नयनों का नैश नशा उनका
अब भी मन को मदमा जाता
किन्तु कुटिल के कूट कृत्य
छल भी क्षण में भरमा जाता

कहते है कंकरीले पथ पर
पुष्प पराग पसारेंगे
धुक-धुक करती धमनी में
अनुरक्त रक्त वह ढारेंगे

 फिर जगे जब सपने आसों के
डरते निर्दय दुत्कार न होता
 समर्पण का व्यापार न होता
काश! हमेंं जो प्यार न होता

 -श्वेता सिन्हा
  

Wednesday 4 July 2018

पल दो पल में


पल दो पल में ही ज़िदगी बदल जाती है।
ख़ुशी हथेली पर बर्फ़-सी पिघल जाती है।।

उम्र वक़्त की किताब थामे प्रश्न पूछती है,
जख़्म चुनते ये उम्र कैसे निकल जाती है।

दबी कोई चिंगारी होगी राख़ हुई याद में,
तन्हाई के शरारे में बेचैनी मचल जाती है।

सुबह जिन्हें साथ लिये उगती है पहलू में,
उनकी राह तकते हर शाम ढल जाती है।

ख़्वाहिश लबों पर खिलती है हँसी बनकर,
आँसू बन उम्मीद पलकों से फिसल जाती है।


    श्वेता सिन्हा

Sunday 1 July 2018

मरते सपने




बीतती उम्र के खोल पर
खुशियों का रंग पोते
मैं अक्सर फड़फड़ाता हूँ
मुस्कुराता हूँ चहककर
अपने लिये तय दायरों में
थकाऊ,उबाऊ रास्तों पर
चलते-चलते सुस्ताता
अक्सर रात को
तन्हां आसमां
चुपचाप निहारकर
घंटों करवट बदलकर
टटोलकर कुछ सितारे
सँभालकर सिरहाने
किसी सुनहरे स्वप्न की 
राह तकते सो जाता हूँ
पर जाने क्यूँ रुठी-रुठी है मुझसे
स्वप्नों की परियाँ
बीत जाती है रात उनींदी
और पलकों की खाली डिबिया में
हर सुबह ढूँढता हूँ
सपनों की  रंगीन तितलियाँ

कितना कुछ तो है
पिछली गलियों में सहेजा हुआ
बचपन की पगडंडियों की
कच्ची धूप 
रेत के घरौंदे में सजे
रंग-बिरंगे काँच और पन्नियाँ
और एक अधूरी तस्वीर
जिसके रंग समय के साथ
गहराते रहे
दिन,महीने,साल में बदलते
 चंद पल
ठहरे है उसी मोड़ पर
हथेलियों से छूटकर गिरी
जिस राह पर
रात लम्हों को
चुनते बीत जाती है
सपनों की पोटली लिये जुगनू
इंतज़ार में नींद के
उँघकर वापस लौट जाते हैं
सुरमई आँखों में खुशबू 
भरने को आतुर कोमल फूल
आँखों में उगे कैक्टस में उलझकर
टूट कर बिखर जाता है
स्वप्न परियों की कहानियाँ
अधूरी रह जाती हैं
रंगीन तितलियाँ
खाली आँखों की 
डिबिया में घुटकर मर जाती है
और उम्र की हथेलियों पर
तड़पती नींद
बिना सपनों के कराहती है।


    #श्वेता सिन्हा


Saturday 30 June 2018

नागार्जुन



ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा का चंद्र साहित्य जगत में उदित लेखनी के ओज से और अपने व्यक्तित्व के बेबाकीपन से संपूर्ण जगत को प्रभावित करने वाले बाबा नागार्जुन की छवि प्रतिबिंबत करता है। मधुबनी का सतलखा गाँव की माटी ३० जून १९११ के शुभ दिन स्वयं को धन्य समझने लगी जब बाबा नागार्जुन के नन्हें पाँवों ने उस धरती को चूमा।
"वैद्यनाथ मिश्र" यही इनका असली नाम था। 
परंपरागत पद्धति से प्रारंभिक शिक्षा संस्कृत से हुई।
आगे की शिक्षा स्वाध्याय से आगे बढ़ी।
खेतिहर और पुरोहित पिता गोकुल मिश्र के साथ 
आस-पास के इलाकों के भ्रमण ने उन्हें बचपन से ही यात्री बना दिया था। 
राहुल सांस्कृत्यायन की अनुदित किताब "संयुक्त निकाय" पढ़ने के बाद मूल किताब जो पालि में थी, को पढ़ने की ललक में वो श्री लंका जा पहुँचे वहाँ पर बौद्ध भिक्खुओं को संस्कृत सिखाते और उनसे पालि सीखते। बाद में वहीं उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली और विख्यात बौद्ध दार्शनिक के नाम पर अपना नाम "नागार्जुन" रखा।
हिन्दी,मैथिली के साथ-साथ अंग्रेजी,संस्कृत,पालि,बंग्ला,सिंहली,तिब्बती भाषाओं का ज्ञान भारतीय परंपराओं और संस्कृति से पगा हृदय उनके यात्रीपन को परिभाषित करता है।
तात्कालिक समय और परिवेश से प्रत्यक्ष जुड़ाव उनकी रचनाओं का श्रृंगार है।
कबीर से लेकर धूमिल तक की पूरी काव्य परंपरा जीवित करने वाले चमत्कारिक व्यक्तित्व के धनी  कालजयी साहित्यकार भारतीय मिट्टी से बने आधुनितम कवि है।
उनके लिखे व्यंग्य किसी भी वर्ग से अछूते नहीं है।
ऐसे तीखे व्यंग्य जो मानस को चीरता हुआ छीलकर लहुलुहान कर जाता है। नौकरशाही के भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी को उघाड़ते हुये उनपर लिखी उनकी इस कविता की लेखनी का चाबुक देखिए-


दो हज़ार मन गेहूँ आया दस गाँवों के नाम

राधे चक्कर लगा काटने, सुबह हो गई शाम

सौदा पटा बड़ी मुश्किल से, पिघले नेताराम

पूजा पाकर साध गये चुप्पी हाकिम-हुक्काम

भारत-सेवक जी को था अपनी सेवा से काम

खुला चोर-बाज़ार, बढ़ा चोकर-चूनी का दाम

भीतर झुरा गई ठठरी, बाहर झुलसी चाम

भूखी जनता की ख़ातिर आज़ादी हुई हराम

नया तरीका अपनाया है राधे ने इस साल

बैलों वाले पोस्टर साटे, चमक उठी दीवाल

नीचे से लेकर ऊपर तक समझ गया सब हाल

सरकारी गल्ला चुपके से भेज रहा नेपाल

अन्दर टंगे पडे हैं गांधी-तिलक-जवाहरलाल

चिकना तन, चिकना पहनावा, चिकने-चिकने गाल

चिकनी किस्मत, चिकना पेशा, मार रहा है माल

नया तरीका अपनाया है राधे ने इस साल


उनके सहज,सरल,पारदर्शी व्यक्तित्व में प्रतिवादी लोकतंत्र का बिंदास लेखक ठाठें मारता था। 
लंबें समय तक पत्रकारिता से जुड़े बाबा को जनता के दुःख दर्द से गहरा सरोकार था  एक न्यायपूर्ण समाज का स्वप्न उनकी लेखनी की स्याही में घुली हुई थी।
उनकी सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वह जैसा लिखते थे वैसा ही जीते थे।
छायावाद,जनवाद,प्रगतिवाद,प्रयोगवाद,अकविता,जनवादी,नवगीत जैसे अनेक काव्य आंदोलन चले पर बाबा के काव्य केंद्र में कोई वाद नहीं रहा उनका बेबाक,बेलौस लेखन ने अपनी ही लीक का निर्माण किया।

एक प्रसिद्ध कविता जिसकी कलात्मकता मुझे बेहद आकर्षित करती है

अकाल और उसके बाद

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास 

कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास 

कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त 

कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद 

धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद 

चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद 

कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।


लेखनी का कोई भी रंग इनकी कूची से अछूता नहीं था।
प्रकृति पर इतनी सुंदर कविता जिसे बार-बार पढ़ने को मन को बाबा की कलम से ही प्रसवित हो सकती है।


समुद्र के तट पर

सीपी की पीठ पर

तरंगित रेखाओं की बहुरंगी अल्पना, हलकी!

ऊपर औंधा आकाश

निविड़ नील!

नीचे श्याम सलिल वारुणी सृष्टि!
सबकुछ भूल
तिरोहित कर सभी कुछ
– अवचेतन मध्य
खड़े रहेंगे मनुपुत्र दिगंबर
पता नहीं, कब तक...
पश्चिमाभिमुख।


उनकी कविताओं की एक प्रमुख शैली है, मुक्त बात-चीत की शैली। अद्भुत प्रभावशाली शैली में लिखी व्यंग्य कविताएँ जनमानस की पीड़ा का सचित्र वर्णन है।

ओ रे प्रेत -"

कडककर बोले नरक के मालिक यमराज 

-"सच - सच बतला !

कैसे मरा तू ?

भूख से , अकाल से ?

बुखार कालाजार से ?
पेचिस बदहजमी , प्लेग महामारी से ?
कैसे मरा तू , सच -सच बतला !"
खड़ खड़ खड़ खड़ हड़ हड़ हड़ हड़ 
काँपा कुछ हाड़ों का मानवीय ढाँचा 
नचाकर लंबे चमचों - सा पंचगुरा हाथ 
रूखी - पतली किट - किट आवाज़ में
प्रेत ने जवाब दिया -

" महाराज !

सच - सच कहूँगा 

झूठ नहीं बोलूँगा 

नागरिक हैं हम स्वाधीन भारत के 

पूर्णिया जिला है , सूबा बिहार के सिवान पर 

थाना धमदाहा ,बस्ती रुपउली

जाति का कायस्थ 
उमर कुछ अधिक पचपन साल की 
पेशा से प्राइमरी स्कूल का मास्टर था 
-"किन्तु भूख या क्षुधा नाम हो जिसका 
ऐसी किसी व्याधि का पता नहीं हमको 
सावधान महाराज ,
नाम नहीं लीजिएगा 
हमारे समक्ष फिर कभी भूख का !!"

निकल गया भाप आवेग का 

तदनंतर शांत - स्तंभित स्वर में प्रेत बोला -

"जहाँ तक मेरा अपना सम्बन्ध है 

सुनिए महाराज ,

तनिक भी पीर नहीं 

दुःख नहीं , दुविधा नहीं 

सरलतापूर्वक निकले थे प्राण 
सह न सकी आँत जब पेचिश का हमला .."

सुनकर दहाड़ 

स्वाधीन भारतीय प्राइमरी स्कूल के 

भुखमरे स्वाभिमानी सुशिक्षक प्रेत की 

रह गए निरूत्तर 

महामहिम नर्केश्वर |


जीवन को साहित्य के लिए समर्पित करने वाले बाबा की लेखनी का महिमामंडन शब्दों परे है उनकी लेखनी का ओज प्रचंड ताप लिये हुये है।
रचनाओं में निहित धधकता ज्वालामुखी जनमानस की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता हुआ प्रतीत होता है। उनकी कविताओं में देशी बोली के ठेठ शब्दों से लेकर संस्कृतनिष्ठ शास्त्रीय पदावली का चमत्कारिक प्रयोग पाठकों को मंत्रमुग्ध करने में सक्षम है।
५ नवंबर १९९८ को ख्वाजा सराय दरभंगा में बाबा अपनी स्याही के अमिट रंगों की बहुमूल्य धरोहर सौंपकर जन्म के बंधन से मुक्त हो गये।
बाबा जैसे कालजयी, बौद्धिक साहित्यकार  जन की संवेदना को टोहनेवाला संवेदनशील कवि की रचनाएँ गाँव के चौपाल से बुद्धिजीवियों की बैठकी मेें सामन्य रुप से सम्मान पाती है।

  

  -श्वेता सिन्हा

Wednesday 27 June 2018

गीत सुनो


दुःख,व्यथा,क्षोभ ही नहीं भरा
बस विरह, क्रोध ही नहीं धरा
मकरंद मधुर उर भीत सुनो
जीवन का छम-छम गीत सुनो

ज्वाला में जल मिट जाओगे
गत मरीचिका आज लुटाओगे
बनकर मधुप चख लो पराग
कुछ क्षण का सुरभित रंग-राग
अंबर से झरता स्नेहप्रीत सुनो
कल-कल प्रकृति का गीत सुनो

क्यूँ उर इतना अवसाद भरा?
क्यूँ तम का गहरा गाद भरा?
लाली उषा की,पवन का शोर
छलके स्वप्न दृग अंजन कोर
घन घूँघट चाँदनी शीत सुनो
टिम-टिम तारों का गीत सुनो

इस सुंदर जीवन से विरक्ति क्यों?
कड़वी इतनी अभिव्यक्ति क्यों?
मन अवगुंठन,हिय पट खोलो तुम
खग,तितली,भँवर संग बोलो तुम
न मुरझाओ, मनवीणा मनमीत सुनो
प्रेमिल रून-झुन इक गीत सुनो

--श्वेता सिन्हा

Monday 25 June 2018

एकांत का उत्सव

नभ के दालान से
पहाड़ी के 
कोहान पर फिसलकर
क्षितिज की बाहों में समाता
 सिंदुरिया सूरज,
किरणों के गुलाबी गुच्छे
टकटकी बाँधें
पेड़ों के पीछे उलझकर
अनायास ही गुम हो जाते हैंं,
गगन के स्लेटी कोने से 
उतरकर
मन में धीरे-धीरे समाता
 विराट मौन
अपनी धड़कन की पदचाप 
से चिंहुकती
अपनी पलकों के 
झपकने के लय में गुम
महसूस करती हूँ 
एकांत का संगीत
चुपके से नयनों को ढापती
स्मृतियों की उंगली थामे
मैं स्वयं स्मृति हो जाती हूँ
एक पल स्वच्छंद हो 
निर्भीक उड़कर 
सारा सुख पा लेती हूँ,
नभमंडल पर विचरती 
चंचल पंख फैलाये
भूलकर सीमाएँ
कल्पवृक्ष पर लगे 
मधुर पल चखती
भटकती
अमृत-घट की 
एक बूँद की लालसा में
तपती मरुभूमि में अनवरत,
दिव्य-गान हृदय के 
भावों का सुनती
विभोर सुधी बिसराये
घुलकर चाँदनी की रजत रश्मियों में
एकाकार हो जाती हूँ
तन-मन के बंधनों से मुक्त निमग्न 
सोमरस के मधुर घूँट पी
कड़वे क्षणों को विस्मृत कर
चाहती हूँ अपने
एकांत के इस उत्सव में
तुम्हारी स्मृतियों का
चिर स्पंदन।

----श्वेता सिन्हा






मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...