Wednesday 5 September 2018

शिक्षक


नित नन्हे माटी के दीपक गढ़ते,
नव अंकुरित भविष्य के रक्षक हैं ।
सपनों में इंद्रधनुषी रंग भरने वाले,
अद्वितीय चित्रकार  शिक्षक हैं।

कृषक, शिष्यों के जीवन के कर्मठ,
बंजर भूमि पर हरियाली लाते हैं।
बोकर बीज व्यक्तित्व निर्माण के,
समय के पन्नों पर इतिहास बनाते हैं।

जनगणना और मतगणना करना
अब रह गये शिक्षक के कर्तव्य।
"लोलुप व्यापारी"का तमगा देते
उंगली थामे दिखलाते जो गतंव्य

शिक्षा अगर व्यवसाय बन रहा,
गहराई में मथकर वजह तलाशिये।
अव्यवस्थित प्रणाली के कीचड़ से,
शिक्षक के आत्मसम्मान न बांचिये।

जो करते है जीवन का अंधियारा दूर
सम्मान में उनके ज़रा सर तो झुकाइये
मुट्ठीभर कलुषित चरित्र के दंड स्वरूप
समस्त समूह को कटघरे में न लाइये

शिक्षक को अपशब्द कहने के पहले,
अपनी आत्मा का भार अवश्य तोलिए।
अपने शब्द भंडार का कीमती पिटारा,
आत्मविश्लेषण के पश्चात खोलिए।

माना वक़्त बदल गया और बदली सोच
चाणक्य,द्रोण,संदीपन से गुरु नहीं मिलते
पर सोचिये न एकलव्य,अर्जुन,चंद्रगुप्त,
अब अरुणि जैसे पुष्प भी तो नहीं खिलते

जीवन रथ के सारथी,पथ के मार्गदर्शक
प्रस्तर अनगढ़,धीरज धर,गढ़ते मूर्ति रुप
ऊर्जावान हैं सूर्य से,नभ सा हृदय विशाल
इस जीवन के संग्राम में गुरु प्रभु समरुप


-श्वेता सिन्हा

Saturday 1 September 2018

स्वर खो देती हूँ


पग-पग के अवरोधों से
मैं घबराकर रो देती हूँ
झंझावातों से डर-डरकर
समय बहुमूल्य खो देती हूँ

संसृति की मायावी भँवरों में
सुख-दुःख की मारक लहरों में
भ्रम जालों में उलझी-उलझी
खुशियाँ प्रायः खो देती हूँ

मैं चिड़िया हूँ बिन पंखों की
पड़ी रेत सजावटी शंखों-सी 
सागर मीठा करते-करते
अस्तित्व सदा खो देती हूँ

दिवस ताप अकुलाई-सी
निशि स्वप्न भरमाई-सी
खोया-पाया गुनते-गुनते
रस प्रेम सुधा खो देती हूँ 

क्यों तोड़ न पाती बंधन को?
सच मानूँ मिथ्या स्पंदन को
अधरों पर बंशी रखते-रखते
मैं गीत के स्वर खो देती हूँ

-श्वेता सिन्हा


Thursday 30 August 2018

जागृति


असहमति और विरोध पर,
एकतरफ़ा फ़रमान ज़ारी है।
हलक़ से ख़ींच ज़ुबान काटेंगे,
बहुरुपियों के हाथ में आरी है।

कोई नहीं वंचित और पीड़ित!
सपनों की दुनिया ही प्यारी है
हुनर सीखो मुखौटा लगाने का
यही तो असली अय्यारी है।

उड़नखटोला हवा की सैर पर,
आतंकित बुद्धिजीवी सवारी है।
महाभारत इसे कैसे कहना?
कौरवों की कौरवों से मारा-मारी है।

जलाकर ख़ुद को रौशनी करे,
कहाँ अब ऐसी कोई चिंगारी है।
सिंहासन पाने की प्रतियोगिता में,
निर्लज्जता ही सब पर भारी है।

ईमानदारी-बेईमानी,सच-झूठ,
सब एक कीमत की तरकारी है।
कोई क्या खायें और किसे पूजे,
यही लोकतांत्रिक ज़िम्मेदारी है!

कितना भी खुरचो मिटती नहीं,
वैचारिकी फफूँँद बड़ी बीमारी है।
आज़ाद देश के गुलाम साथियों,
चमन में बहेलिये की पहरेदारी है।

कृष्ण और राम ले चुके अवतार,
अब क़लमकार ही शस्त्रधारी है।
रो-धोकर हालात नहीं बदलते,
उठो,अब जागृति की बारी है।


-श्वेता सिन्हा



Friday 24 August 2018

अनछुआ मन


जीवन-यात्रा में
बूँद भर तृप्ति की चाह लिये
रेगिस्तान-सी मरीचिका
में भटकता है मन,
छटपटाहटाता
व्याकुल
गर्म रेत के अंगारें को
अमृत बूँद समझकर
अधरों पर रखता है
प्यासे कंठ की तृषा मिटाने को
झुलसता है,
तन की वेदना में,
मौन दुपहरी की तपती
पगलाई गर्म रेत की अंधड़
से घबराया मन छौना
छिप जाना चाहता है
बबूल की परछाई की ओट में
घनी छाँह का 
भ्रम लिये,
बारिश की आस में
क्षितिज के शुष्क किनारों को
रह-रहकर
ताकती मासूम आँखें
 नभ पर छाये
मंडराते बादलों को देखकर  
आहृलादित होती है,
स्वप्न बुनता है मन
भुरभुरी रेत से 
इंद्रधनुषी घरौंदें बनाने का,
बारिश की बूँदें
देह से लिपटकर,
देह को भींगाकर,
देह को सींचकर
देह के भावों को 
जीवित करती है
देह की कोंपल पर लगे
पुष्प की सुगंध के 
आकर्षण में
भ्रमित हुआ मन 
भूल जाता है
सम्मोहन में
पलभर को सर्वस्व ,
देह की अभेद्य
दीवार के भीतर
पानी की तलाश में
सूखी रेत पर रगड़ाता
अनछुआ मन
मरीचिका के भ्रम में उलझ
तड़पता रहता है
परविहीन पाखी-सा
आजीवन।

-श्वेता सिन्हा

Saturday 18 August 2018

भावों का ज्वार


गहराती ,
ढलती शाम
और ये तन्हाई
बादलों से चू कर
 नमी पलकों में भर आई।

गीला मौसम,
गीला आँगन,
गीला मन मतवारा
संझा-बाती,
रोयी पीली,
बहती अविरल धारा।

भावों का ज्वार,
उफनता,
निरर्थक है आवेश,
पारा प्रेम का,
ढुलमुलाता,
नियंत्रित सीमा प्रदेश।

तम वाहिनी साँझ,
मार्गदर्शक 
चमकीला तारा
भावनाओं के नागपाश
 उलझा बटोही पंथ हारा।

नभ की झील,
निर्जन तट पर,
स्वयं का साक्षात्कार
छाया विहीन देह,
 तम में विलीन निराकार।

मौन की शिराओं में,
बस अर्थपूर्ण 
मौन शेष,
आत्मा के कंधे पर,
ढो रहा तन छद्म वेष।

-श्वेता सिन्हा





Tuesday 14 August 2018

आज़ादी

अभी मैं कैसे जश्न मनाऊँ,कहाँ आज़ादी पूरी है,
शब्द स्वप्न है बड़ा सुखद, सच को जीना मजबूरी है।

आज़ादी यह बेशकीमती, भेंट किया हमें वीरों ने,

सत्तावन से सैंतालीस तक ,शीश लिया शमशीरों ने।

साल बहत्तर उमर हो रही,अभी भी चलना सीख  रहा,

दृष्टिभ्रम विकास नाम का,छल जन-मन को दीख रहा।

जाति,धर्म का राग अलाप,भीड़ नियोजित बर्बरता,

नहीं बेटियाँ कहीं सुरक्षित,बस नारों में गूँजित समता।

भूखों मरते लोग आज भी,शर्म कहाँ तुम्हें आती है?

आतंकी की गोली माँ के लाल को कफ़न पिन्हाती है।

आज़ादी क्या होती है पूछो ,कश्मीर के पत्थरबाजों से,

ईमान जहाँ बिकते डर के , कुछ जेहादी शहजादों से।

मन कैसे हो उल्लासित, बंद कमरों में सिमटे त्योहार,

वाक् युद्ध अब नहीं चुनावी, मैले दिल बदले व्यवहार।

आँखें मेरी सपना बुनती, एक नयी सुबह मुस्कायेगी,

शिक्षा की किरण तम को हर कर,भय,भूख से मुक्ति दिलायेंगी

हम सीखेंगे मनुष्यता और मानवता के पुष्प खिलायेंगे।

स्वयं के अहं से ऊपर उठकर भारतवासी कहलायेंगे।

भूल विषमता व्यक्तित्व परे,सब मिलकर अलख जगायेंगे।

कन्या से कश्मीर तक स्वरबद्ध जन-मन-गण दोहरायेंगे।

---श्वेता सिन्हा

sweta sinha जी बधाई हो!,


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Sunday 12 August 2018

दृग है आज सजल


मौन हृदय की घाटी में
दिवा सांझ की पाटी में
बेकल मन बौराया तुम बिन
पल-पल दृग है आज सजल

मन के भावों को भींचता
पग पीव छालों को सींचता
कैसे अनदेखा कर दूँ बोलो?
तेरा सम्मोहन,हिय को खींचता

साँसों की सिहरन भाव भरे
मन-मंथन गहरे घाव करे
पिंजरबंद्ध अकुलाये पाखी
पल-पल दृग है आज सजल

भंवर नयन गह्वर में उलझी
प्रश्न पहेली कभी न सुलझी
क्यों दुखता है पाटल उर का?
मौन तुम्हारा हरपल चुभता

प्राणों का कर दिया समर्पण
झर-झर झरते आँसू अपर्ण
स्मृतियों के पाँव पखारुँ
पल-पल दृग है आज सजल

--श्वेता सिन्हा

Wednesday 8 August 2018

अजीर्णता नदियों की



देखते-देखते जलधारा ने
लिया रुप विकराल
लील गयी पग-पग धरती का
जकड़ा काल कराल 

तट की चट्टानों से टकरा
विदीर्ण जीवन पोत हुआ
बिखरा, टूटा, अवसादग्रस्त
क्रंदन से विह्वल स्रोत हुआ

करुण चीत्कार,हाय पुकार
दहती गृहस्थी ,टूटते सपने
आँख पनीली,कोई देखे कैसे?
जलसमाधि में बचे न अपने

नभ ताकती भूखी आँखों से
गिरता हया-शरम का पानी
सिकुड़ी आँतें,सूखे अधर पर
है विप्लव की पड़ी निशानी

राहत शिविर,रिरियाता बेबस
दानों को मुहताज कलपता
लाशों का व्यापार सीखकर
मददगार अपना घर भरता

फ्लैश चमकती,सुर्खियाँ बनती
ख़बर चटपटी,स्वादिष्ट हो छनती
मुआवज़े का झुनझुना थमाकर
योजनायें,जाँच-समितियाँ जनतींं

जी-भर मनमानी कर पानी
लौटा अपनी सीमाओं में
संड़ांध,गंदगी,महामारी की 
सौगात भर गयी राहों में

हाय! अजीर्णता नदियों की
प्रकृति का निर्मम अट्टहास
मानव पर मानव की क्रूरता
नियति का विचित्र परिहास

--श्वेता सिन्हा

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...