Thursday 3 January 2019

हर क्षण से.....


नवतिथि का स्वागत सहर्ष
नव आस ले आया है वर्ष
सबक लेकर विगत से फिर
पग की हर बाधा से लड़कर 
जीवन में सुख संचार कर लो
हर क्षण से खुलकर प्यार कर लो

प्रकृति का नियम परिवर्तन 
काल-चक्र  जीवन विवर्तन
अवश्यसंभावी उत्थान पतन
समय सरिता में भीगकर
सूखे स्वप्नों में हो प्रस्फुटन
धैर्य के मोती पिरो के दर्द में
जीवन का तुम श्रृंगार कर लो
हर क्षण से खुलकर प्यार कर लो

हृदय अपमान भूल,मान नहीं
चबा जा बीज दंश, आन नहीं
बिकता बेमोल भूख,धान नहीं 
कुछ नहीं चाहूँ मन मेरे संत हो
आगत दिवस सारे दुखों का अंत हो
अलक्षित क्षण यह आस कर 
पल-पल यहाँ त्योहार कर लो
हर क्षण से खुलकर प्यार कर लो

समय के खेल में मानव विवश है
कुछ नहीं मेरा यहाँ क्यों हवस है?
नियति पर जोर किसका वश है?
जो किया संचित वो साथी कर्म है
उलझी पहेली कौन समझा मर्म है
माया जगत के तुम अतिथि
 इस सत्य को स्वीकार कर लो
हर क्षण से खुलकर प्यार कर लो

-श्वेता सिन्हा

Tuesday 25 December 2018

धर्म


सोचती हूँ
कौन सा धर्म 
विचारों की संकीर्णता
की बातें सिखलाता है?

सभ्यता के
विकास के साथ
मानसिकता का स्तर
शर्मसार करता जाता है।

धर्मनिरपेक्षता 
शाब्दिक स्वप्न मात्र
नियम -कायदों के पृष्ठों में
दबकर कराहता है।

धर्म पताका
धर्म के नाम का
धर्म का ठेकेदार
तिरंगें से ऊँचा फहराता है।

शांति सौहार्द्र की 
डींगें हाँकने वाला
साम्प्रदायिकता की गाड़ी में
अमन-चैन ढुलवाता है।

अभिमान में स्व के
रौंदकर इंसानियत
निर्मम अट्टहास कर
धर्मवीर तमगा पा इठलाता है।

जीवन-चक्र
समझ न नादां
कर्मों का खाता,बाद तेरे
जग में रह-रह के पलटा जाता है।

मज़हबों के ढेर से
इंसानों को अलग कर देखो
धर्म की हर एक किताब में 
इंसानियत का पाठ पढ़ाया जाता है।

-श्वेता सिन्हा





Wednesday 19 December 2018

चाँद..


तन्हाई की आँच में
टुकड़ों में गल रहा है चाँद,
दामन से आसमाँ के  
देखो! पिघल रहा है चाँद।

छत की मुंडेरों पर 
झुकी हैंं पलकें सितारों की,
फुनगी पर नीम की 
शमा-सा जल रहा है चाँद।

शायद कोई ख़्वाब होगा 
तसव्वुर में रुमानी-सा,
चूम कर पेशानी अब्र की 
करवट बदल रहा है चाँद।

हवा की बाँसुरी पर
थिरकते चमन के फूलों पर,
छिड़क इत्र चाँदनी की
शोख़ मचल रहा है चाँद।

शबनमी बूँद भरी
रेशमी पैरहन में लिपटा,
आसमाँ के बदन पर 
ख़्वाब मल रहा है चाँद।

-श्वेता सिन्हा

Monday 17 December 2018

दिसम्बर


दिसम्बर
(१)
गुनगुनी किरणों का
बिछाकर जाल
उतार कुहरीले रजत 
धुँध के पाश
चम्पई पुष्पों की ओढ़ चुनर 
दिसम्बर मुस्कुराया

शीत बयार 
सिहराये पोर-पोर
धरती को छू-छूकर
जगाये कलियों में खुमार
बेचैन भँवरों की फरियाद सुन
दिसम्बर मुस्कुराया

चाँदनी शबनमी
निशा आँचल में झरती 
बर्फीला चाँद पूछे
रेशमी प्रीत की कहानी
मोरपंखी एहसास जगाकर
दिसम्बर मुस्कुराया

आग की तपिश में
मिठास घुली भाने लगी 
गुड़ की चासनी में पगकर
ठंड गुलाब -सी मदमाने लगी
लिहाफ़ में सुगबुगाकर हौले से
दिसम्बर मुस्कुराया

(२)

भोर धुँँध में
लपेटकर फटी चादर
ठंड़ी हवा के
कंटीले झोंकों से लड़कर
थरथराये पैरों को 
पैडल पर जमाता
मंज़िल तक पहुँचाते
पेट की आग बुझाने को लाचार
पथराई आँखों में 
जमती सर्दियाँ देखकर
सोचती हूँ मन ही मन
दिसम्बर तुम यूँ न क़हर बरपाया करो

वो भी अपनी माँ की
आँखों का तारा होगा
अपने पिता का राजदुलारा 
फटे स्वेटर में कँपकँपाते हुए
बर्फीली हवाओं की चुभन
करता नज़रअंदाज़
काँच के गिलासों में 
डालकर खौलती चाय
उड़ती भाप की लच्छियों से
बुनता गरम ख़्वाब
उसके मासूम गाल पर उभरी
मौसम की खुरदरी लकीर
देखकर सोचती हूँ
दिसम्बर तुम यूँ न क़हर बरपाया करो

बेदर्द रात के
क़हर से सहमे थरथराते
सीले,नम चीथड़ों के 
ओढ़न-बिछावन में
करवट बदलते
सूरज का इंतज़ार करते
बेरहम चाँद की पहरेदारी में
बुझते अलाव की गरमाहट
भरकर स्मृतियों में
काटते रात के पहर 
खाँसते बेदम बेबसों को 
देखकर सोचती हूँ 
दिसम्बर यूँ न क़हर बरपाया करो

-श्वेता सिन्हा

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Wednesday 12 December 2018

एहसास जब.....

एहसास जब दिल में दर्द बो जाते हैं
तड़पता देख के पत्थर भी रो जाते हैं

ऐसा अक्सर होता है तन्हाई के मौसम में
पलकों से गिर के ख़्वाब कहीं खो जाते हैं

तुम होते हो तो हर मंज़र हसीं होता है
जाते ही तुम्हारे रंग सारे फीके हो जाते हैं

उनींदी आँखों के ख़्वाब जागते हैंं रातभर
फ़लक पे चाँद-तारे जब थक के सो जाते हैं

जाने किसका ख़्याल आबाद है ज़हन में
क्यूँ हम ख़ुद से भी अजनबी हो जाते हैं

बीत चुका है मौसम इश्क़ का फिर भी
याद के बादल क़ब्र पे आकर रो जाते हैं

वक़्त का आईना मेरे सवाल पर चुप है
दिल क्यों नहीं चेहरों-से बेपर्दा हो जाते हैं

-श्वेता सिन्हा


Saturday 8 December 2018

स्वप्न


तन्हाइयों में गुम ख़ामोशियों की
बन के आवाज़ गुनगुनाऊँ 
ज़िंदगी की थाप पर नाचती साँसें
लय टूटने से पहले जी जाऊँ 

दरबार में ठुमरियाँ हैं सर झुकाये
सहमी-सी हवायें शायरी कैसे सुनायें
बेहिस क़लम में भरुँ स्याही बेखौफ़ 
तोड़कर बंदिश लबों की, गीत गाऊँ

गुम फ़िजायें गूँजती बारुदी पायल
गुल खिले चुपचाप बुलबुल हैं घायल
मंदिर,मस्जिद की हद से निकलकर
छिड़क इत्र सौहार्द के,नग्में सुनाऊँ

हादसों के सदमे से सहमा शहर
बेआवाज़ चल रही हैं ज़िंदगानी
धुँध की चादर जो आँख़ों में पड़ी
खींच दूँ नयी एक सुबह जगाऊँ

बंद दरवाज़े,सोये हुये हैंं लोग बहरे
आम क़त्लेआम, हँसी पर हज़ार पहरे
चीर सन्नाटों को, रचा बाज़ीगरी कोई
खुलवा खिडकियाँ आईना दिखाऊँ

काश! आदमियत ही जात हो जाये
दिलों से मानवता की बात हो जाये
कूची कोई जादू भरी मुझको मिले
स्वप्न सत्य करे,ऐसी तस्वीर बनाऊँ

-श्वेता सिन्हा


बेहिस-लाचार

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Wednesday 28 November 2018

नेह की डोर


मन से मन के बीच
बंधी नेह की डोर पर
सजग होकर 
कुशल नट की भाँति
एक-एक क़दम जमाकर 
चलना पड़ता है
टूटकर बिखरे
ख़्वाहिशों के सितारे
जब चुभते है नंगे पाँव में 
दर्द और कराह से 
ज़र्द चेहरे पर बनी
पनीली रेखाओं को
छुपा गुलाबी चुनर की ओट से 
गालों पर प्रतिबिंबिंत कर
कृत्रिमता से मुस्कुराकर
टूटने के डर से थरथराती डोर को
कस कर पकड़ने में
लहलुुहान उंगलियों पर
अनायास ही 
तुम्हारे स्नेहिल स्पर्श के घर्षण से
बुझते जीवन की ढेर में
लहक उठकर हल्की-हल्की
मिटा देती है मन का सारा ठंड़ापन
उस पल सारी व्यथाएँ 
तिरोहित कर 
मेरे इर्द-गिर्द ऑक्टोपस-सी कसती
तुम्हारे सम्मोहन की भुजाओं में बंधकर 
सुख-दुख,तन-मन,
पाप-पुण्य,तर्क-वितर्क भुलाकर 
अनगिनत उनींदी रातों की नींद लिए
ओढ़कर तुम्हारे एहसास का लिहाफ़
मैं सो जाना चाहती हूँ 
कभी न जागने के लिए।

---श्वेता सिन्हा

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Sunday 25 November 2018

थोड़ा-सा रुमानी हो लें


ज़िंदगी की उदासियों में
चुटकी भर रंग घोलें 
अश्क में मुहब्बत मिला कर
थोड़ा-सा रुमानी हो लें 

दर्द को तवज्ज़ो कितना दें
दामन रो-रो कर भीगो लें
चुभते लम्हों को दफ़न करके
बनावटी चेहरों पे कफ़न धरके
वफ़ा की बाहों में सुकूं से सो लें
थोड़ा-सा रुमानी हो लें 

रेत पर बिखरे मिले ख़्वाब घरौंदें
राज़ समुंदर का लहरें बोले
वक्त की दर्या में ज़ज़्बात बहा के
सफ़हों पे लिखे अरमान मिटा के
मौज में मुहब्बत की बेपरवाह डोले
थोड़ा-सा रुमानी हो लें

किसी इनायत के इंतज़ार में
दर कब तलक खुला रखें
नहीं लकीरों में उन्हें भुला के
ख़्वाबों की तस्वीर सब जला के
उल्फ़त में अपने होश हम खो लें
थोड़ा-सा रुमानी हो लें 

-श्वेता सिन्हा

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...