Friday 25 January 2019

गीत

गणतंत्र दिवस पर
एक आम आदमी के मन
का गीत
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जीवन के 
हर दिवस के
कोरे पृष्ठ पर,
वह लिखना चाहता है
अपने सिद्धांत,ऊसूल,
ईमानदारी और सच्चाई 
की नियमावली,
सुसज्जित कर्म से
मानवता और प्रेम के
खिलखिलाते
मासूम गीत।

जरुरत,साधन,
जीने की ज़द्दोज़हद
और भूख की 
असहनीय
वेदना से तड़पता
आम आदमी
रोटी और भात के
दो-चार कौर के लिए
संघर्षरत हर क्षण में
लिखता है
फटेहाल जेब 
को सीने की 
चेष्टा में  
हसरतों का गीत।

लहुलुहान होते
दाँव-पेंच,
कारगुजारियों,
सही-गलत के
कश्मकश से पड़े 
मन के फफोलों से
पसीजता है
मवाद असंतोष का,
उसे जगभर से
छुपाने की कोशिश में
रुँधे कंठोंं से फूटता है
घुटन का गीत।

बचपन की चंचलता
यौवन की बेफ्रिक्री
लीलते
जिम्मेदारियों से 
झुके कंधे
अल्पवय में
झुर्रियों को गिनते
आजीवन 
आभासी खुशियों
को जुटाता
लिखता है
वो उम्मीद का गीत

#श्वेता सिन्हा




Wednesday 23 January 2019

याद का दोना

क्षितिज का 
सिंदूरी आँचल 
मुख पर फैलाये 
सूरज
सागर की 
इतराती लहरों पर
बूँद-बूँद टपकने लगा।

सागर पर 
पाँव छपछपता 
लहरों की 
एडि़यों में 
फेनिल झाँझरों से
सजाता
रक्तिम किरणों की 
महावर।

स्याह होते 
रेत के किनारों पर
ताड़ की 
फुनगी पर 
ठोढ़ी टिकाये
चाँद सो गया 
चुपचाप बिन बोले
चाँदनी के 
दूधिया छत्र खोले।

मौन प्रकृति का 
रुप सलोना
मुखरित मन का 
कोना-कोना
खुल गये पंख 
कल्पनाओं के
छप से छलका 
याद का दोना।

भरे नयनों के 
रिक्त कटोरे
यादों के 
स्नेहिल स्पर्शों से
धूल-धूसरित, 
उपेक्षित-सा
पड़ा रहा 
तह में बर्षों से।

 -श्वेता सिन्हा

Friday 18 January 2019

मन मेरा


मन मेरा औघड़ मतवाला
पी प्रेम भरा हाला प्याला
मन मगन गीत गाये जोगी
चितचोर मेरा मुरलीवाला

मंदिर , मस्जिद न गुरुद्वारा
गिरिजा ,जग घूम लिया सारा
मन मदिर पिपासा तृप्त हुई
रस प्रीत में भीगा मन आला

मोह आकर्षण उद्दीपन में
पी प्रीत उपहार संजीवन से
मन का मनका श्रृंगारित कर
हिय गूँथ लिया जीवन माला

मद्धम-मद्धम जलने को विवश
मतंग पतंग मंडराये अवश
खो प्रीत सरित आकंठ डूब
न मिट पायी विरहा ज्वाला

चुन पलकों से स्मृति अवशेष
टुकड़े मानस-दर्पण के विशेष
दृग पट में अंकित मीत छवि
वह बिम्ब बना उर का छाला

--श्वेता सिन्हा

"हरिवंश राय बच्चन" पुण्य तिथि(१८जनवरी) पर सादर समर्पित।


Wednesday 16 January 2019

समानता


देह की 
परिधियों तक
सीमित कर
स्त्री की 
परिभाषा
है नारेबाजी 
समानता की।

दस हो या पचास
कोख का सृजन
उसी रजस्वला काल 
से संभव
तुम पवित्र हो 
जन्म लेकर
जन्मदात्री
अपवित्र कैसे?

रुढ़ियों को 
मान देकर
अपमान मातृत्व का
मान्यता की आड़ में
अहं तुष्टि या
सृष्टि के
शुचि कृति का
तमगा पुरुष को

देव दृष्टि 
सृष्टि के 
समस्त जीव पर 
समान,
फिर...
स्त्री पुरुष में भेद?
देवत्व को 
परिभाषित करते 
प्रतिनिधियो; 
देवता का
सही अर्थ क्या?

देह के बंदीगृह से
स्वतंत्र होने को
छटपटाती आत्मा
स्त्री-पुरुष के भेद
मिटाकर ही
पा सकेगी
ब्रह्म और जीव
की सही परिभाषा।

-श्वेता सिन्हा



Saturday 12 January 2019

शब्द


मौन हृदय के आसमान पर
जब भावों के उड़ते पाखी,
चुगते एक-एक मोती मन का 
फिर कूजते बनकर शब्द।

कहने को तो कुछ भी कह लो
न कहना जो दिल को दुखाय,
शब्द ही मान है,शब्द अपमान
चाँदनी,धूप और छाँव सरीखे शब्द।

न कथ्य, न गीत और हँसी निशब्द
रूंधे कंठ प्रिय को न कह पाये मीत,
पीकर हृदय की वेदना मन ही मन 
झकझोर दे संकेत में बहते शब्द।

कहने वाले तो कह जाते है 
रहते उलझे मन के धागों से,
कभी टीसते कभी मोहते 
साथ न छोड़े बोले-अबोले शब्द।

फूल और काँटे,हृदय भी बाँटे
हीरक,मोती,मानिक,माटी,धूल,
कौन है सस्ता,कौन है मँहगा
मानुष की कीमत बतलाते शब्द।

    #श्वेता सिन्हा
    (अक्षय गौरव पत्रिका में प्रकाशित मेरी लिखी एक रचना)



Wednesday 9 January 2019

दर्दे दिल...

दर्दे  दिल  की अजब  कहानी  है
होंठों पर मुस्कां आँखों में पानी है

जिनकी ख़्वाहिश में गुमगश्ता हुये
उस राजा की  कोई और  रानी  है

रात कटती है  यूँ  रोते च़रागों की
ज्यों बाती ने ख़ुदकुशी की ठानी है

दर्द,ग़म,तड़प,अश्क और रूसवाई,
इश्क़ ने जहाँभर की खाक़ छानी है

बेहया दिल टूटकर भी धड़कता है
ज़िंदा लाशों की ये तो बदज़ुबानी है


-श्वेता सिन्हा

गुमगश्ता= भटकता हुआ, खोया हुआ





Thursday 3 January 2019

हर क्षण से.....


नवतिथि का स्वागत सहर्ष
नव आस ले आया है वर्ष
सबक लेकर विगत से फिर
पग की हर बाधा से लड़कर 
जीवन में सुख संचार कर लो
हर क्षण से खुलकर प्यार कर लो

प्रकृति का नियम परिवर्तन 
काल-चक्र  जीवन विवर्तन
अवश्यसंभावी उत्थान पतन
समय सरिता में भीगकर
सूखे स्वप्नों में हो प्रस्फुटन
धैर्य के मोती पिरो के दर्द में
जीवन का तुम श्रृंगार कर लो
हर क्षण से खुलकर प्यार कर लो

हृदय अपमान भूल,मान नहीं
चबा जा बीज दंश, आन नहीं
बिकता बेमोल भूख,धान नहीं 
कुछ नहीं चाहूँ मन मेरे संत हो
आगत दिवस सारे दुखों का अंत हो
अलक्षित क्षण यह आस कर 
पल-पल यहाँ त्योहार कर लो
हर क्षण से खुलकर प्यार कर लो

समय के खेल में मानव विवश है
कुछ नहीं मेरा यहाँ क्यों हवस है?
नियति पर जोर किसका वश है?
जो किया संचित वो साथी कर्म है
उलझी पहेली कौन समझा मर्म है
माया जगत के तुम अतिथि
 इस सत्य को स्वीकार कर लो
हर क्षण से खुलकर प्यार कर लो

-श्वेता सिन्हा

Tuesday 25 December 2018

धर्म


सोचती हूँ
कौन सा धर्म 
विचारों की संकीर्णता
की बातें सिखलाता है?

सभ्यता के
विकास के साथ
मानसिकता का स्तर
शर्मसार करता जाता है।

धर्मनिरपेक्षता 
शाब्दिक स्वप्न मात्र
नियम -कायदों के पृष्ठों में
दबकर कराहता है।

धर्म पताका
धर्म के नाम का
धर्म का ठेकेदार
तिरंगें से ऊँचा फहराता है।

शांति सौहार्द्र की 
डींगें हाँकने वाला
साम्प्रदायिकता की गाड़ी में
अमन-चैन ढुलवाता है।

अभिमान में स्व के
रौंदकर इंसानियत
निर्मम अट्टहास कर
धर्मवीर तमगा पा इठलाता है।

जीवन-चक्र
समझ न नादां
कर्मों का खाता,बाद तेरे
जग में रह-रह के पलटा जाता है।

मज़हबों के ढेर से
इंसानों को अलग कर देखो
धर्म की हर एक किताब में 
इंसानियत का पाठ पढ़ाया जाता है।

-श्वेता सिन्हा





मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...