Sunday 5 May 2019

गुलमोहर


गरमी की
अलसायी सुबह,
जब तुम बुनते हो
दिनभर के सपने
अपने मन की रेशमी डोरियों से,
रक्ताभ आसमान से
टपककर आशा की किरणें
भर जाती हैं घने गुलमोहर की
नन्हीं कलियों में,

बेचैन दोपहर में
कार्य की अधिकता में
बिसराकर अपना अस्तित्व
चिलचिलाती घाम से तपकर
धैर्य से दिपदिपाते हो तुम,
तब गुलमोहर की 
कलियों के अधरों से फूटती हैं
लाल-पीली,मख़मली पंखुडियाँ..।

उमसभरी लंबी रातों में
नींदभरी पलकों की
फैली ओढ़नी पर 
अधूरे सपनों को
सीते हो बारीक़ी से
और गुलमोहर की फुनगी में 
अटका चाँद
तुम्हें थपकियाँ देकर
सुला देता है।

मैं तुम्हारे आँगन के,
अनगिनत गमलों में खिले
गुलाब,बेला,जूही के सुगंधित फूल
नहीं बनना चाहती,
जो सुख की छाँव में साथ देते हैं
और गर्मीे की प्रचंडता से
घबराकर मुरझा जाते हैं।

तुम्हारे कमरे की खिड़की से
झाँकता रहता है अपलक
तुम कितने भी उनींदे रहो,
थके रहो,अलसाये रहो,
जिन मख़मली लाल फूलों और
हरी पत्तियों को देखकर
तुम्हारे होंठ मुस्कुरा देते हैं...;

जिसमें मदहोश ख़ुशबू नहीं,पर
तुम्हारा दग्ध हृदय सुकून पाता है
तुम्हारे हर दुःख,पीड़ा और संताप पर
अचूक औषधि की तरह
तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ
आजीवन,  
और रचाना चाहती हूँ,
तुम्हारे मन में
आत्मिक सौंदर्य के गझिन बेलबूटे,
गुलमोहर के चटकीले फूलों
के गुच्छों-सा
प्रेम का प्रगाढ़ रंग।

#श्वेता सिन्हा

Friday 3 May 2019

तुम


चुप रहूँ तो शायद दिल तेरा ख़ुशलिबास हो 
दुआ हर लम्हा,खुश रहे तू न कभी उदास हो

तुम बिन जू-ए-बेकरार,हर सिम्त तलब तेरी
करार आता नहीं,कैसी अनबुझी मेरी प्यास हो

आजा के ओढ़ लूँ ,तुझको चाँदनी की तरह 
चाहती हूँ रुह मेरी तुमसे,रु-ब-रु बेलिबास हो

होगी तुम्हें शिकायत लाख़ मेरे महबूब सनम
दश्त-ए-ज़िंदगी में,तुम ही तो सब्ज़ घास हो


पिरोया है तुझे मोतियों-सा साँसों के तार में
ख़्वाहिश है वक़्त-ए-आख़िर तुम मेरे पास हो

#श्वेता सिन्हा

ख़ुशलिबास-सुंदर परिधान
जू-ए-बेकरार-बैचेन नदी
सब्ज़ - हरा-भरा
दश्त-ए-ज़िंदगी- ज़िंदगी के रेगिस्तान में

Wednesday 1 May 2019

मज़दूर



मज़दूर का नाम आते ही
एक छवि ज़ेहन में बनती है
दो बलिष्ठ भुजाएँ दो मज़बूत पाँव
 बिना चेहरे का एक धड़,
और एक पारंपरिक सोच,
बहुत मज़बूत होता है एक मज़दूर
कुछ भी असंभव नहीं
शारीरिक श्रम का कोई
भी काम सहज कर सकता है
यही सोचते हम सब,
हाड़ तोड़ मेहनत की मज़दूरी
के लिये मालिकों की जी-हुज़ूरी करते
पूरे दिन ख़ून-पसीना बहाकर
चंद रुपयों की तनख़्वाह
अपर्याप्त दिहाड़ी से संतुष्ट
जिससे साँसें खींचनेभर 
गुज़ारा होता है
उदास पत्नी,बिलखते बच्चे
बूढ़े माता-पिता का बोझ ढोते
जीने को मजबूर
एक ज़मीन को बहुमंजिला 
इमारतों में तब्दील करता
अनगिनत लोगों के ख़्वाबों 
की छत बनाता
मज़दूर,जिसके सर पर
मौसम की मार से बचने को
टूटा छप्पर होता है
गली-मुहल्ले,शहरों को
क्लीन सिटी बनाते
गटर साफ़ करते,कड़कती धूप में
सड़कों पर चारकोल उड़ेलते,
कल-कारखानों में हड्डियाँ गलाते  
सँकरी पाताल खदानों में
जान हथेली पर लिये 
अनवरत काम करते मज़दूर
अपने जीवन के कैनवास पर
छैनी-हथौड़ी,कुदाल,जेनी,तसला 
से कठोर रंग भरते,
सुबह से साँझ तक झुलसाते हैं,
स्वयं को कठोर परिश्रम की
आग में,ताकि पककर मिल सके
दो सूखी रोटियों की दिहाड़ी
का असीम सुख।


 #श्वेता सिन्हा


Sunday 28 April 2019

तुझमें ही...मन#१

बरबस ही सोचने लगी हूँ
उम्र की गिनती भूलकर
मन की सूखती टहनियों पर
नरम कोंपल का अँखुआना

ख़्यालों के अटूट सिलसिले
तुम्हारे आते ही सुगबुगाते,
धुकधुकाते अस्थिर मन का
यूँ ही बात-बेबात पर मुस्कुराना

तुम्हारे एहसास की गंध से मताये
बेज़ान,पंखहीन,स्पंदनहीन पड़़े
बंद मन की झिर्रियों से छटपटाती,
बेसुध तितलियों का मचलना

तुम्हारी हर बात को समेटकर
सीने से लिपटाये हुये घंटों तक
झरोखे,छत,घर के कमरों में फैला
अपने लिये तुम्हारे एहसास चुनना

देर तक तुम्हारे मौन होने पर
बेचैन हो मन ही मन पगलाना
उदास आँखों के सूनेपन में पसरी
तुम्हारी तस्वीरों के रंगों को भरना

सोचती हूँ क्यों एहसास मन के
यूँ मन को भावों से ढके रहते हैं?
बदलते मौसम से बेअसर,बेख़बर
मेरा सिर्फ़ तुझमें ही खोये रहना

#श्वेता सिन्हा

Saturday 27 April 2019

धूप


तमतमाते धूप का 
बेरंग चेहरा देख
बालकनी के
गमलों में खिलखिलाते
गुलाब,बेली,सदाबहार के 
फूल सहम गये,गर्दन झुकाये,
बैठक की काँच की
खिड़की से होकर
 परदों की झिर्रियों से 
 साधिकार सोफे पर
आकर पैर फैलाते 
धूप को देखकर
हवा का झोंका जोर से
बड़बड़ाया,परदे हिलाकर,
फड़फड़ाते किताब और 
अख़बार के पन्नों के शोर
से चिड़चिड़ाया धूप
चुपचाप उठकर
बाहर आँगन में चला आया।
तेज़ क़दमों से चढ़कर
बरगद की फुनगी पर
शाखों की बाहों के मख़मली घेरे में
लेटे,अधलेटे,चहकते
परिदों को सताने लगा,
दिन भर गरम बूँदों की
पिचकारियों से 
सड़कों,बागों,नदियों को
झुलसाता रहा
भटकता रहा पूरा दिन आवारा,
साँझ की दस्तक सुनकर
बेडरूम की खिड़की के समीप
बोगनबेलिया की झाडियों 
के नीचे बिछाकर
गद्देदार मौन का बिस्तर
ओढ़कर स्याह चादर, बेख़बर
नींद के आगोश में खो गया,
मुँह अंधेरे कोयल और बुलबुल की
मीठी रियाज़ सुनकर कुनमुनाया
इधर-उधर करवट बदलता
गौरेया की चीं-चीं,चूँ-चूँ पर
अंगड़ाई लेकर
आँखें मलता,केसरी पलकें 
खोलकर बैठा है 
तुलसी के बिरवे की गीली मिट्टी पर
पुरवाई के धप्पे से चिंहुका
अब शरारत से 
धमा-चौकड़ी मचायेगा
लुका-छिपी खेलेगा धूप
सारा दिन। 

#श्वेता सिन्हा
२७ अप्रैल "१९"

Wednesday 24 April 2019

पुकार

पृथ्वी दिवस पर मेरी एक रचना 
पत्रिका लोकजंग में-
पुकार
---
पेड़ों का मौन रुदन सुनो
अनसुना करो न तुम साथी
हरियाली खो जायेगी 
तो गीत भी होंगे गुम साथी

अस्तित्व खो रहा गाँवों का
ताल,तल्लैया सूख रही
कंक्रीट के बढ़ते जंगल
मेड़ खेत की टूट रही
प्रगति के नाम दुहाते
पहाड़ों पर हुआ जुलुम साथी

सूरज का अग्निबाण चला
भस्म हो रही शीतलता
पिघल रहे हिमखंड अनवरत
खारे जल में है विह्वलता
असमय मेघ का आना-जाना
है प्रकृति विनाशी धुन साथी

नदियाँ गंदी नाला बनती
है बूँद-बूँद अब संकट में
भू-जल सोते सूख रहे 
प्यास तड़पती मरघट में
सींच जतन कर कंठ धरा के
बादल से बरखा चुन साथी

हवा हुई अब ज़हरीली
घुटती साँसों पर पहरे हैं
धुँधलाये नभ में चंदा तारे
 बादल के राज़ भी गहरे हैं
चिड़ियों की चीं-चीं यदा-कदा
खोई वो भोर की धुन साथी

घने वन,नग,झर-झर झरने
वन पंखी,पशुओं के कोलाहल
क्या स्मृतियों में रह जायेंगे? 
पूछे धरती डर-डर पल-पल
आने वाली पीढ़ी ख़ातिर
प्रकृति उपहार तो बुन साथी?

#श्वेता सिन्हा

Tuesday 23 April 2019

धरती


हरी-भरी,फलती-फूलती
गर्भिणी धरती की
उर्वर कोख़ उजाड़कर
बंजर नींव में
रोप रहे हम
भावी पीढ़ियों के लिए
रेतीला भविष्य।

नभ से कुछ अंगुल कम
उन्नत छातियों से 
बर्फीले आवरण 
उतारकर 
लज्जित,उदास शिखरों
को फोड़कर बुन रहे हैं
अकाट्य कवच,
लोहे के गगनचुंबी स्वप्न।

अठखेलियाँ करती,
किलकती,गुनगुनाती
पवित्र धाराओं में
धोकर,बहाकर
अपनी कलुषिता, 
हम निष्कलुष हुये,
गंदगी के बोझ से थकी
क्षीण,जर्जर,
मरणासन्न नदियों की
देह के ऊपर
मंत्र फूँककर
जिलाने का ढ़ोंग!
क्या लौटा पायेंगी
जीवन का अमृत..?

बरसों की कठिन 
तपस्या से
धरती को प्राप्त
अनमोल उपहारों का
निर्दयता से प्रयोग करते हैं
अपनी सुविधानुसार,
दूहते...!
कलपती,सिसकती,
दिन-प्रतिदिन
खोखली होती
धरती,
 अपने गर्भ में ही 
मार डाले गये भ्रूणों के
अबोले शाप की अग्नि में
झुलसने से
कब तक बचा पायेगी
मनुष्य का अस्तित्व ...?

#श्वेता सिन्हा










Sunday 21 April 2019

अमलतास

अप्रैल माह के तीसरे सप्ताह की एक सुबह 
पार्क के कोने में मौन तपस्वी-सा खड़े अमलतास
के पेड़ पर फूटते पीले फूलों में आँखें उलझ गयीं।
प्रकृति का संसार भी विचित्र है न कितना? हर ऋतु का स्वागत और श्रृंगार कितनी तन्मयता से करती है।  खूबसूरत चटख पीले रंग के सुंदर जालों की कारीगरी अंचभित करती है। 
आपने भी देखा होगा न अपने शहर में अमलतास?
भाग-दौड़,जीने की मशक्कत,जीवन की जटिलताओं के बीच गुम होकर, शीशे के झरोखे,भारी परदों,वातानुकूलित कमरों में बंद होते हम आज प्रकृति से दूर हो रहे हैं।
आप भी पढ़िये अमलतास पर फूटते मोहक फूलों को देखकर, महसूस कर लिखी मेरी कुछ पंक्तियाँ

अमलतास
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आहट पाकर गर्मी की
एक पेड़ हौले-से शरमाता है
गरम हवा संग अंगड़ाई ले
पत्तियों का दुपट्टा गिराता है

पत्रविहीन शाखों ने पहने
दिव्य वस्त्र अलंकरण खास
किस करघे से काता गया
कुरता पीला,मखमली लिबास

प्रकृति की कूची अनोखी
रचाये ऋतु अनूठा चित्र
धू-धू दिन के कैनवास पर 
पीत तितलियाँ झुंड विचित्र

ताप संग करता परिहास
सड़क किनारें बाँह पसारे
फानूस की झालर अंगूरी
मुग्ध नयन यह रुप निहारे

पथिक थका जो पास है आता
करता बालक-सा मृदुल हास
चुपके से पीला रंग लगाकर
कितना खुश होता अमलतास।

#श्वेता सिन्हा


मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...