Monday 6 July 2020

साधारण होना...



रोटी-दाल,
चावल-सब्जी से इतर
थाली में परोसी गयी 
पनीर या खीर देख
खुश हो जाना,
बहुत साधारण बात होती है शायद...
भरपेट मनपसंद भोजन और
आरामदायक बिस्तर पर
चैन से रातभर सो पाने की इच्छा।

जो मिला जीवन में
कुछ शिकायतों के साथ
नियति मानकर स्वीकार करना
बिना फेर-बदल किये
रस्मों रिवाजों,परंपराओं में,
ढर्रे को सहजता से अपनाना
चंद साधारण सपने देखना।

भीड़ का गुमनाम चेहरा,
एक मौन भीड़,
भेड़-बकरी के झुंड की तरह
किसी चरवाहे के इशारे पर
सर झुकाये पगडंडियों की
धूल उड़ाना और बिना प्रतिकार किये
बेबस,निरीह मानकर
स्वयं अपने कंठ में बँधी
 रस्सी का सिरा किसी
असाधारण के हाथ थमा देना।

जन्म से मृत्यु तक की
बेआवाज़ यात्रा
करने वाले बेनाम,
जिन्हें धिक्कारा गया
साधारण मनुष्य कहकर,
जो प्रेम और सुख की लालसा में
जी लेते हैं पूरा जीवन।

सोचती हूँ...
क्यों निर्रथक लगता है
साधारण होना...
इतिहास में दर्ज़ सभ्यताओं के
अति विशिष्ट योद्धाओं,विद्रोहियों
असाधारण मनुष्यों के अवशेष
गवाह हैं 
सृष्टि ने जीवों की रचना
कालजयी होने के लिए नहीं की
क्या सचमुच फ़र्क पड़ता है
साधारण, विशिष्ट या अतिविशिष्ट
होने से...
सभी तो जन्म लेते हैं
देह में कफ़न लपेटे।

#श्वेता सिन्हा
६ जुलाई २०२०

Thursday 2 July 2020

नमक का अनुपात


वे पूछते हैं बात-बात पर
क्या आपके खून में
देशभक्ति का नमक है? 
प्रमाण दीजिए, मात्रा बताइये
नमक का अनुपात कितना है?
एकदम ठंडा है जनाब
खौलता क्यों नहीं कहिये न
आपके रक्त का ताप कितना है?

बारूद की गंध सूँघाते हैं
करते तोप और टैंकों की गणना 
सैन्य क्षमता का आकलन 
सनसनी रचते समाचारों की,
जादुई पिटारे से निकालकर
युद्ध का जिन्न दिखा-दिखाकर पूछते हैं
आपमें साहस का नाप कितना है?

विदेशी मसालों के तड़के से
देशी खिचड़ी में स्वाद का प्रयास
तू-तू,मैं-मैं उठा-पटक 
कयास अतिशयोक्ति,विश्लेषण
बेमतलब बहसों का अतिशय शोर 
दलों के समर्थन या विरोध से ही
 बेझिझक झट से बतला देते हैं
आपके देशभक्ति का माप कितना है...!!

देश के जिम्मेदार ख़बरनवीस 
वकील संवेदनशील मुकदमों के
स्वयं ही महामहिम न्यायाधीश 
तत्ववेत्ता, गड़े मुर्दों के विशेषज्ञ
जीवित मुद्दों के असली मर्मज्ञ
सर्वगुणसम्पन्न पूजनीय सर्वज्ञ
प्रश्नों के लच्छे में उलझाने वालों
 मेरा भी है आपसे एक प्रश्न
आपकी व्यापारिक कर्त्तव्यनिष्ठता और 
आपकी अंतर्रात्मा में तुलनात्मक
 दाब कितना है?

©श्वेता सिन्हा
२जुलाई २०२०

Sunday 28 June 2020

सरहद


धरती के 
मानचित्र पर खींची गयी
सूक्ष्म रेखाओं के 
उलझे महीन जाल,
मूक और निर्जीव प्रतीत होती
अदृश्य रूप से उपस्थित  
जटिल भौगोलिक सीमाएं 
अपने जीवित होने का 
भयावह प्रमाण
देती रहती हैं। 

सोचती हूँ अक्सर 
सरहदों की
बंजर,बर्फीली,रेतीली,
उबड़-खाबड़,
निर्जन ज़मीनों पर
जहाँ साँसें कठिनाई से
ली जाती हैं वहाँ कैसे
रोपी जा सकती हैं नफ़रत?

लगता है मानो
सरहदों को लगी
होती है आदम भूख...
या शायद अपनी जीवंतता
बनाये रखने के लिए 
लेती है समय-समय पर बलि
शूरवीरों की...।

पर सच तो यह है कि....
इंसानों की बस्ती के 
बुद्धिमान,स्वार्थी,
महत्वाकांक्षी नुमाइंदे
वर्चस्व की मंडी के
सर्वश्रेष्ठ व्यापारी होने की होड़ में
सरहद के पहरेदारों के
रक्त से क्रूरता का 
इतिहास लिखकर
खींची सरहद लकीरों को ज्यादा
गहरा करके महानता 
का पदक पहनते और
स्वयं को शांति का
पुरोधा बताते है!!

©श्वेता सिन्हा
२९जून २०२०

Thursday 25 June 2020

वह उदास औरत

चित्र : मनस्वी प्राजंल

अंधेरे मुँह 
बेआवाज़ उठकर
ठंडी बालकनी में
पाँव सिकोड़े मूढ़े पर बुत-सी बैठी
दूर तक पसरी नीरवता,
गहन अंधकार में स्वयं को 
एकाकार करती
पश्चिम की
नीम की डालियों से 
धीरे-धीरे फिसलकर स्याह मकान के
आँगन में उतरते चाँद को
एकटुक निहारती
वह उदास औरत...।

उत्साहीन,अलसाई
मशीन की भाँति
काम-काज निबटाती
अनमनी-सी,सोच में ग़ुम
ओस से भीगी 
खिड़की के शीशे पर
आड़ी-तिरछी लकीरें खींचती
कोई नाम लिखती-मिटाती
भीगी हथेलियों से 
रह-रहकर छूती आँखें
वह उदास औरत...।

इष्टदेव के समक्ष
डबडबायी आँखों से
निर्निमेष ताकती
अधजली माचिस की तीलियों
बुझी बातियों से खेलती
बेध्यानी में,
मंत्रहीन,निःशब्द
तुलसी  सींचती
दीये की जलती लौ में
देर तक बनाती कोई छवि
वह उदास औरत...।

चूल्हे पर से उबलकर
बहा दूध देखकर 
खीझे बिना  
देर तक स्लैब पोंछती
किसी व्यंजन में
नमक,मिर्च,मसालों के
ज्यादा-कम पड़ने की परवाह
किये बिना 
ठंडी पड़ चुकी चाय 
के घूँट भरती 
रोटियाँ सेंकने में जली उँगलियों
को भींचकर जोर से बरतन रगड़ती
बच्चों की पुकार अनसुनी कर
रसोई की खिड़की से बाहर
सूखी आँखों से चिड़ियों,
बादलों के बहाने 
शून्य में घंटों तैरती
वह उदास औरत....।

बिना सँवारे बालों का बेढ़ंगा-सा जूड़ा लपेटे
तुड़ी-मुड़ी सलवार कमीज में
बिना मेल का दुपट्टा ओढ़े कपड़े सुखाती
पड़ोसियों के जोर से टोकने पर 
हौले से मुसकाती
बिना कुछ कहे व्यस्तता के बहाने 
दरवाज़ा लगाकर
कमरे के एक कोने में अधलेटी 
मकड़ी को जाले बुनती देखती
बे-वजह ही भर आती
पनियायी आँखों में काज़ल नहीं लगाती
वह उदास औरत...।

कोई फ़र्क नहीं पड़ता 
सूरज,चंदा,तारे
बादल,फूल,पेड़,तितली,पक्षी,झरने
भोर,दोपहर,साँझ रात...
दीवार,छत,कमरे
या साथ रहने वालों की
दिनचर्या मेंं
किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता
उसकी उदासी से...

किसी उपेक्षित कोने-सी
स्वयं का अवलोकन करती
अपने जीवन का सामान्य अर्थ
स्वयं के उदास मनोभावों को 
फुसलाने में प्रयासरत 
घर आये मेहमानों से
अपने परिवार और बच्चों के
सुखों की अनगिनत कहानियाँ सुनाती
अपने अस्तित्व की परिभाषा 
मिटाकर उसकी जगह लिखकर
अपनों की खुशियाँ 
अक़्सर सुख का
चेहरा ओढ़े मुस्कुराती दिखती है
वह उदास औरत...।

#श्वेता सिन्हा


Saturday 20 June 2020

सैनिक मेरे देश के



सूर्य की किरणें
निचोड़ने पर
उसके अर्क से
गढ़ी आकृतियाँ, 
सैनिक मेरे देश के।

चाँदनी की स्वप्निल
डोरियों से 
उकेरे रेखाचित्र
स्निग्ध,धवल 
बुनावट,यथार्थ की
मोहक कलाकृतियाँ,
सैनिक मेरे देश के।

पर्वतों को
गलाकर बाजुओं में
धारते, वज्र के
परकोटे, 
विषबुझी टहनियाँ,
सैनिक मेरे देश के।

लक्ष्मण रेखा,
सीमाओं के
जीवित ज्वालामुखी,
शांत राख में दबी
चिनगारियाँ,
सैनिक मेरे देश के।

हुंकार मृत्यु की
जयघोष विजय,
शत्रुओं की हर
आहट पर
तुमुलनाद करती
दुदुंभियाँ,
सैनिक मेरे देश के।

माँ-बाबू के
कुम्हलाते नेत्रों की
चमकती रोशनी,
सिंदूरी साँझ में
प्रतीक्षित विरहणियों की
फालसाई स्मृतियाँ,
सैनिक मेरे देश के।

सभ्यताओं के
बर्बर छत्तों में
जीवन पराग 
हँस-हँसकर त्याजते,
मातृभूमि के लाड़ले सपूत,
मानवता की बाड़ की
दुर्भेद्य कमाचियाँ,
सैनिक मेरे देश के।

©श्वेता सिन्हा
२० जून २०२०

Wednesday 17 June 2020

नियति


तुम्हारी 
प्राथमिकताओं की
सूची में
सर्वोच्च स्थान
पाने की कामना
सदा रही,
किंतु तुम्हारी
विकल्पों की सूची में भी
स्वयं को सबसे अंतिम पाया।

तुम्हारे लिये
विशेष मैं हो नहीं सकती
परंतु अपने अंश का
शेष भी सदैव
तुम्हारा मुँह जोहते 
उपेक्षित पाया।

एकटुक,
अपलक निहारो कभी,
तुम्हारी आँखोंं में
स्वयं को पिघलाने का स्वप्न
मर्यादाओं की
लक्ष्मणरेखा का यथार्थ
लाँघकर भी
तुम्हारी दृष्टि में
व्यर्थ ही रहा।

बहुत चाहा
तुम्हारी तृप्ति का
एक बूँद हो सकूँ
किंतु तुम्हारे अहं की 'धा' में
भाप बनी
अपने लिए
तुम्हारे मनोभावों
 की सत्यता
जानकर भी
 तुम्हारे ही
 आस-पास
 भटकना
 और मिट जाना
 नियति है मेरी।

©श्वेता सिन्हा

Sunday 14 June 2020

शोक गीत


चेतना के बंद कपाट के पार,
मनमुताबिक न मिल पाने की
तीव्रतम यंत्रणा से क्षत-विक्षिप्त,
भरभरायी उम्मीद घूरती है।

अप्राप्य इच्छाओं के कोलाज
आँसुओं में भीगकर गलते है,
जीवन की धार भोथड़ होकर,
संघर्ष का गला रेतती है।

प्रतिकूल जीवन के ढर्रे से विद्रोह
संवाद का कंठ अवरुद्ध करके,
भावनाओं की सुनामी का ज्वार
अनुभूतियों का सौंदर्य लीलती है।

मन के अंतर्द्वंद्व का विष पीकर
मुस्कान में घोंटकर श्वास वेदना,
टूटी देह, फूटे प्रारब्ध से लड़कर 
जीवन का मंत्र बुदबुदाती पीड़ा।

विजय और उम्मीद पताका लिए
स्व,स्वजन,स्वदेश के लिए जूझते, 
साहसी,वीर योद्धाओं का अपमान है,
कायरों के आत्मघात पर शोक गीत।

©श्वेता सिन्हा
१४ जून २०२०

Wednesday 10 June 2020

क्या तुम नहीं डरते?


सुनो ओ!जंगल के दावेदारों
विकास के नाम पर
लालच और स्वार्थ की कुल्हाड़ी लिए
तुम्हारी जड़ को 
धीरे-धीरे बंजर करते,
तुम्हारी आँखों में सपने भरकर
संपदा से भरी भूमि को
कंक्रीट में बदलते,
हवा में फैले जंगली फूलों की  
सुगंध सोखकर,
धान के खेतों में
कारखानों की चिमनी का ज़हरीला धुँआ
रोपने वाले "दिकुओं" 
के झाँसे में आकर 
अपने गाँव को
शहर बनाने की होड़ में
माटी की खुशबू
मत बेचो।

शिक्षा-स्वास्थ्य और संस्कृति के लिए
किया गया 
उलगुलान का संकल्प बिसराकर 
 बारूद और कारतूस के बल पर
निर्दोषों के खून माटी में सानकर
तुम अपने अधिकार नहीं
उपजा पाओगे,
मत सोचो कि
भटककर बीहड़ में
तुम क्रांतिदूत बन अंधविश्वास
और पिछड़ेपन से
से समाज को उबार लोगे...!

शहरी चकाचौंध के आकर्षण में
 कठपुतली बन 
 स्वार्थी जनप्रतिनिधियों,
चालक माफियाओं,व्यापारियों
 बहेलिये के जाल में फँसकर
अपनी मासूमियत का सौदा मत करो
जंगल-जमीन सौंपकर
मान-सम्मान गिरवी रखकर
सुविधायुक्त जीवन की लालसा में 
लुप्त होती जनजातियों के वंश बीज  
अपने पूर्वजों की आत्मा का गीत
मत नष्ट करो।

जंगल सूना करके
रोता छोड़कर 
गलियाँ,ताल,वृक्षों की बाहें
आधुनिकता की होड़ में
अपने रक्त के ईंधन से
शहर के चौराहे जगमगाकर
हड्डियाँ गलाकर बनाकर
विकास का लुभावना ढाँचा 
स्वाभिमान गँवाकर
शहरी बगुलों के व्यवहार से विस्मित
मिलनसारिता भुलाकर
भीड़ के विचित्र व्यवहार से
 अकबका कर
अपनी " प्रकृति माँ" की स्मृतियों से विह्वल
थके-हारे जब लौटोगे 
अजनबी गंध देह में लपेटकर
तुम्हें नहीं पहचानेंगी 
कटे हुए जंगल की हवाएँ,
धुएँ से काली हो चुकी बेजान माटी
तुमसे लिपटकर नहीं खेलेगी
लौटकर वापस नहीं आयेंगी
पठार विहीन मैदान के 
उसपार गुम हो जायेंगी तुम्हारी
आवाज़
रेत पीकर मरती नदियाँ
सूखे पत्थर  पर पड़े 
झरनों के निशान
कीचड़ भरे ताल में 
अंतिम साँस लेती कुमुदिनी
सभी के प्रश्नों के उत्तर
तुम कैसे दे पाओगे?

पाकड़,शीशम के जड़
खोदने के पहले
करम,साल की शाख़
रेतने के पहले 
सोचो न एक बार 
सरहुल,टुसू,करमा,
 लोकपर्वों के अवसर पर
नव परिधान से सज्ज
सरई की खुशबू से
मताया जंगल
टकटक लाल ढाक
जूड़े में खोंसकर
मांदर की थाप पर 
महुआ गंध में डूबकर
 थिरकते पाँव,
लोकगीतों की मिठास
में पगा पीठा, हड़िया,
करील का अचार 
खाते-पीते नाचते-गाते
परिचत,सम्बन्धियों,मित्रों से
ताल मिलाती कोयल की कूक
मुर्गियों बतखों की चूँ-चूँँ से
खिलखिलाते खलिहान,
फल-फूल और अनाज
से भरा-पूरा होने का
संपन्नता का आशीष देने वाली
प्रकृति माँ को पूजने के लिए
सखुआ का पेड़
बहनों के नेह में गूँथी
करम की डालियाँ
फिर कहाँ पाओगे?
तुम भूल गये कैसे
"धरती आबा" को दिया वचन?
क्या तुम नहीं डरते हो 
अब प्रकृति के शाप से?

©श्वेता सिन्हा
१० जून २०२०





मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...