Saturday 3 April 2021

चलन से बाहर...(कुछ मुक्तक)



१)
बिना जाने-सोचे उंगलियाँ उठा देते हैं लोग
बातों से बात की चिंगारियाँ उड़ा देते हैं लोग
अख़बार कोई पढ़ता नहीं चाय में डालकर
किसी के दर्द को सुर्खियाँ बना देते हैं लोग

२)
चलन से बाहर हो गयी चवन्नियों की तरह,
समान पर लिपटी बेरंग पन्नियों की तरह,
कुछ यादें ज़ेहन में फड़फड़ाती हैं अक्सर
हवाओं के इश्क़ में टूटी कन्नियों की तरह।

३)
किसी के शोख़ निगाहों से तकदीर नहीं बदलती
नाम लिख लेने से हाथों की लकीर नहीं बदलती
माना दुआओं में शामिल हो दिलोजान से हरपल,
दिली ज़ज़्बात से ज़िंदगी की तहरीर नहीं बदलती।

४)
कभी चेहरा तो कभी आईना बदलता है
सहूलियत से बात का मायना बदलता है
अज़ब है ये खेल मतलबी सियासत का
ख़ुदसरी में ज़ज़्बात का दायरा बदलता है

५)
मन पर चढ़ा छद्म आवरण भरमाओगे
मुखौटों की तह में क्या-क्या छिपाओगे?
एक दिन टूटेगा दर्पण विश्वास भरा जब
किर्चियों से घायल ख़ुद ही हो जाओगे

६)
शुक्र है ज़ुबां परिदों की अबूझ पहली है
वरना उनका भी आसमां बाँट आते हम
अगर उनकी दुनिया में दख़ल होता हमारा 
जाति धर्म की ईंटों से सरहद पाट आते हम

७)

ज़िंदगी नीम तो कभी है स्वाद में करेला
समय की चाल में हर घड़ी नया झमेला
दुनिया की भीड़ में अपनों का हाथ थामे
चला जा रहा बेआवाज़,आदमी अकेला 

८)
चाहा तो बहुत मनमुताबिक न जी सके
जरूरत की चादर की पैबंद भी न सी सके
साकी हम भरते रहे प्यालियाँ तमाम उम्र
ज़िंदगी को घूँटभर सुकून से न पी सके

#श्वेता सिन्हा

Saturday 27 March 2021

कली केसरी पिचकारी


कली केसरी पिचकारी 
मन अबीर लपटायो,
सखि रे! गंध मतायो भीनी
राग फाग का छायो। 

चटख कटोरी इंद्रधनुषी
वसन वसुधा रंगवायो,
सरसों पीली,नीली नदियाँ
सुमनों ने माँग सजायो।

कचनारी रतनारी डाली 
 लचक मटक इतरायो,
 सारंग सुगंध सुधहीन भ्रमर
 बाट बटोही बिसरायो।

सखि रे! गंध मतायो भीनी
राग फाग का छायो।

बाबरी कूहके अमराई
बँसवारी बिरवा अँखुआयो,
कली-कली मुँहजोर 
ललित लास्य ललचायो।

उचक-उचक चूमे तितली
मदन मालती  मुसकायो, 
सिंदूरी किरणों के तीर
धरणी मुंदरी पहिनायो।

सखि रे! गंध मतायो भीनी
राग फाग का छायो। 

राग-द्वेष का होम करें
होलिका हुलस हुमकायो,
प्रीत भरी पिचकारी धार
मन के मैल छुड़ायो।
 
उत्सव उमंग मंगलमय
नेह कलश लुढकायो,
फागुनी रूनझुनी धुन पर
गीत-गोविंद मन गायो।
 
सखि रे! गंध मतायो भीनी
राग फाग का छायो ।

#श्वेता सिन्हा
(२७ मार्च २०२१)

Friday 19 March 2021

उम्र अटकी रह जाती है


विचारों के विशाल
सिंधु की लयबद्ध
लहरें मथती रहती है
अनवरत,
मंथन से प्राप्त 
विष-अमृत के घटो का
विश्लेषण करता
जीवन नौका पर सवार 
'उम्र'...
सीमाहीन मन 
शापग्रस्त देह लिए...
नाव के पाल पर बैठे
अनजान पक्षी की 
भाषा में उलझकर
अक़्सर भटक जाती है 
मंजिल से 
भूलकर यात्रा का उद्देश्य।
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जन्म-मरण के
प्राकृतिक चक्र की
सरल परिभाषा को
जोड़ती
काल्पनिक, अदृश्य रेखा
उम्र के हर घुमाव पर
गहरी होती जाती है।
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उम्र का हर पड़ाव
पहाड़ की पगडंडी सा
प्रतीत होता है
जिनके डंठल में
उगे उमंग से भरे
 नन्हें गाँव के
 आकर्षण में
 यात्रा की दुरूहताओं 
 को पथिक स्वीकारता है।
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जीवनभर की
यात्राओं में 
चलता रहता है,
समय की गंधहीन 
आँच में तपकर निरंतर
बदलता रहता है 
देह का मौसम
किंतु 
उम्र अटकी रह जाती है
कभी किसी 
बसंत में खिले
पलाश की टहनियों पर।
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#श्वेता सिन्हा
१८ मार्च २०२१


 

Wednesday 3 March 2021

हे प्रकृति...



मुझे ठहरी हुई हवाएँ
बेचैन करती हैं
बर्फीली पहाड़ की कठिनाइयाँ
असहज करती है
तीख़ी धूप की झुलसन से
रेत पर पड़ी मछलियों की भाँति
छटपटाने लगती हूँ
किसानों की तरह जीवट नहीं
ऋतुओं की तीक्ष्णता सह नहीं पाती
मैं बीज भी तो नहीं
जो अंकुरित होकर
धान की बालियाँ बने
और किसी का पेट भर सके
मैं चिड़िया भी नहीं 
जिसकी किलकारी से
मौन खिलखिला उठे
मैं पीपल या वट वृक्ष भी नहीं
जो असंख्य जीवों को
अपनी शाखाओं में समेटे
सुरक्षा का एहसास करा सके
मैं पहाड़ पर चढ़कर
बादलों में सपने नहीं भर सकी
मैं प्रेम भी नहीं हो सकी
जो मिटा सके मनुष्य के हृदय की
कलुषिता
मैं ज्ञान भी नहीं बन सकी
जो हो सके पुल
संभव और असंभव के बीच
मैं धूप-छाँव,नदी या झरना
भी नहीं 
शायद... बारिश की वह बूँद हूँ
जो गर्म रेत में गिरते ही सूखकर 
भाप बन जाती है
किसी कंठ की 
प्यास भी नहीं बुझा सकती,

उजाला,अंधेरा,
हरियाली,मरूभूमि, पहाड़,
सागर,सरिता,चिड़िया,चींटी
तितली,मौसम जैसी अनगिनत 
रंगों की अद्भुत चित्रात्मक
कृतियों की तरह ही
सृष्टि ने
मुझको भी दी है 
धरती की नागरिकता
अपने अधिकारों के
भावनात्मक पिंजरे में 
फड़फड़ाती 
जो न पा सकी उस
दुःख की गणना में
अपने मनुष्य जीवन के
कर्तव्यों को
पूरी निष्ठा से निभाने का शायद
ढोंग भर ही कर सकी। 
 
जीवन की 
यात्रा से असंतुष्ट
लासनायुक्त देह और
अतृप्त इच्छाओं के शापग्रस्त मन
का बोझ उठाये
अपने कर्मपथ की भूलभुलैया में 
निरंतर चलती थक चुकी हूँ
मात्र भीड़ की एक देह 
बनकर
अब जन्म-मरण के चक्र में
निरूद्देश्य और असंतुष्ट भटकना 
मुझे स्वीकार नहीं
हे प्रकृति!
मुझे बंधनों से मुक्त करो!
मुझे स्वयं में
एकाकार कर 
मेरे अस्तित्व को
सार्थकता प्रदान करो।

#श्वेता सिन्हा
३ मार्च २०२1


Thursday 25 February 2021

जोगिया टेसू मुस्काये रे


गुन-गुन छेड़े पवन बसंती
धूप की झींसी हुलसाये रे, 
वसन हीन वन कानन में
जोगिया टेसू मुस्काये रे।

ऋतु फाग के स्वागत में 
धरणी झूमी पहन महावर, 
अधर हुए सेमल के रक्तिम
सखुआ पाकड़ हो गये झांवर,

फुनगी आम्र हिंडोले बैठी
कोयलिया बिरहा गाये रे,
निर्जन पठार की छाती पर
जोगिया टेसू मुस्काये रे।

ओढ़ ढाक की रेशमी चुनरी 
साँझ चबाये मीठी गिलौरी,
धनुष केसरी,भँवर प्रत्यंचा
बींधे भर-भर रंग कटोरी,
 
छींट-छींट चंदनिया चंदा
भगजोगनी संग इतराये रे,
रेशमी आँचल डुला-डुला
जोगिया टेसू मुस्काये रे।

दह-दह,दह दहके जंगल
दावानल का शोर मचा, 
ताल बावड़ी लहक रहे
नभ वितान का कोर सजा,

गंधहीन पुष्पों की आँच 
श्वेत शरद पिघलाये रे,
टिटहरी की टिटकारी सुन
जोगिया टेसू मुस्काये रे।

दान दधीचि-सा पातों का
प्रकृति करती आत्मोत्सर्ग,
नवप्रसून के आसव ढार
भरती सृष्टि में अष्टम् सर्ग,

लोलक-सी चेतना डोल रही
नयनों में टेसू भर आये रे,
हृदय की सूनी पगडंडी पर
जोगिया टेसू मुस्काये रे।

#श्वेता सिन्हा
२५ फरवरी २०२१

Monday 22 February 2021

दौर नहीं है



कुछ भी लिखने कहने का दौर नहीं हैं।
अर्थहीन शब्द मात्र,भावों के छोर नहीं हैं।

उम्मीद के धागों से भविष्य की चादर बुन लेते हैं
विविध रंगों से भ्रमित कोई चटक चित्र चुन लेते हैं
समय की दीर्घा में बैठे गुज़रती नदी की धार गिनते
बेआवाज़ तड़पती मीनों को नियति की मार लिखते

भेड़ों में हालात बदलने की होड़ नहीं है।
कुछ भी लिखने कहने का दौर नहीं हैं।

चौहद्दी में बंद संवेदना,छद्म चीख़ का राज हुआ
शेर डटे हैं सरहद पर ,जंगल का राज़ा बाज़ हुआ 
कबतक प्रश्न टोकरी ढोये ,उत्तर ढूँढें बोझिल आँखें
कबतक बंधक दर्द को रखे,उड़ पायेंगी चोटिल पाँखें?

मौन की कोठरी,मात्र एक खोल नहीं है।
कुछ भी लिखने कहने का दौर नहीं हैं।

हर बहस उन्मादित,चैतन्यता का दहन हुआ
स्वार्थी उद्दीपनों में नैतिकता का क्षरण हुआ
पूर्णता के मिथकीय दृश्य, मधुर स्वप्न टूटते रहे
दिशाहीन मरूभूमि में भटककर साथ छूटते रहे

बौद्धिक परिपक्वता में तृप्ति के बौर नहीं है।
कुछ भी लिखने कहने का दौर नहीं है।

@श्वेता सिन्हा
 २२ फरवरी २०२१

Thursday 11 February 2021

मैं प्रकृति के प्यार में हूँ...।



मैं प्रकृति के प्यार में हूँ...।

किसी उजली छाँह की तलाश नहीं है
किसी मीठे झील की अब प्यास नहीं है,
नभ धरा के हाशिये के आस-पास
धडक रही है धीमे-धीमे -साँस,
उस मीत के सत्कार में हूँ।
मैं प्रकृति के प्यार में हूँ...।


सृष्टि की निभृत पीड़ाओं से मुक्त हो
दिशाओं के स्वर पाश से उन्मुक्त हो,
नक्षत्रों के बियाबान के कहीं उस पार 
सूर्य-चंदा रत्नजड़ित अलौकिक शृंगार ,
भावनाओं के विमुग्ध संसार में हूँ
मैं प्रकृति के प्यार में हूँ...।


अनघ सानिध्य में अनुभूतियों के
तृप्त कामनाओं के दिव्य वीथियों के,
जीवन-मरण के प्रश्न सारे भूलकर
अमर्त्य आत्मा के बाहुपाश में झूलकर,
वीतरागी 'पी' के अधिकार में हूँ।
मैं प्रकृति के प्यार में हूँ....।


#श्वेता सिन्हा
११फरवरी२०२१


Saturday 6 February 2021

उत्तरदायी


शताब्दियों से
विश्व की तमाम सभ्यताओं के
आत्ममुग्ध शासकों के द्वारा
प्रजा के लिए बनाये नियम
और निर्गत विशेषाधिकार के 
समीकरणों से असंतुष्ट,
असहमति जीभ पर उठाये
उद्धारक एवं प्रणेता...
शोषित एव शासकों,
छोटे-बड़े का वर्गीकरण करते
 समाजिक चेतना की
महीन रेखाओं की
 गूढ शब्दावली को
 परिभाषित करने के लिए 
भेदकारी छन्ना-पात्र 
धारण किये उत्पन्न हुये।

बौद्धिकता के
चुंबकीय आभा से
सम्मोहित अनुसरणकर्ताओं को
आत्मोत्सर्ग के लिए 
उकसाया गया 
अलग-अलग प्रकार से
कभी स्वप्नों की थैली तो कभी
जीवन मूल्य तत्वों के रक्षा का
हवाला देकर
समानता के लिए
प्रज्जवलित यज्ञाग्नि में
हर बार आहुति में डाली गयी
स्वार्थों के घी में लपेटी गयी
सूखी लाचार जीवित देह की समिधा।

सत्ता और सामर्थ्य पर
आधिपत्य के लिए
नेतृत्वकर्ताओं ने
स्वघोषित उद्देश्यों की पूर्ति 
के लिए स्थितियों को
बदलने का इंद्रजाल बुनकर
वर्तमान की धरातल से खींचकर
भविष्य के पिंजरें में
कैद कर दिया।

रंगीन दीवारों पर
पोतकर काले रंग
बुझाकर मशाल
मात्र विरोध के लिए 
खिड़कियों के परदे गिराकर
बाँधकर पट्टियाँ आँखों पर
एकत्रित भीड़ के संग
अंधेरों के विरुद्ध
नारे लगाना 
साहसिक माना।

हर उस कोंपल को
जो बन सकते हैं नये वृक्ष
उन्हें उपेक्षितकर
 कूड़ों से पाटकर
 भ्रम फैलाकर कि
 इसमें खिलेंगे
 विषैले फल
 नष्ट कर दी गयी
 संभावनाएं।

असहमति, विरोध और
आलोचनाओं से विलग
आदर्शों, उसूलों, बड़े-बड़े सपनों,
कमज़ोरों के आँसू,दर्द और हक़ की
हिमायत करते नारे बदलकर
लक्षित व्यंग्यबाणों में छलनी करने लगे
मानवीय मूल्य,
व्यक्तिगत भर्त्सना के धधकते स्वर
झुलसाने लगी व्यवहार की 
नरम कोमल टहनियों को,
अपने समाज और देश को
सम्मान और उपलब्धियों
से गौरवान्वित करने वालों के लिए
चारित्रिक प्रमाणपत्र बाँटते
अनुसरणकर्ताओं की
आचरण और प्रवृतियाँ
क्रमशः
उनके पंथ,वाद,दल की
स्तर और मानसिकता का दर्पण है
भले ही यह नकार दिया जाए
किंतु इतिहास में अंकित हो रहे
काल-खंड के पृष्ठों में 
पूर्वाग्रही उद्धरणों से उठे
प्रश्नों के उत्तर में
रिक्त स्थानों की पूर्ति में
अगर आनेवाली पीढ़ियां
समाज और देश से पूर्व
स्व,
 स्वार्थ और अवसरवादिता
भरेगी तो 
इसका उत्तरदायी 
किसे माना जायेगा?
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#श्वेता सिन्हा
६ फरवरी २०२१

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...