Sunday 4 July 2021

जूझना होगा


त्म हो रही
आशाओं से
ठहरने की विनती करना
व्यर्थ है,
उन्हें रोकने के लिए
जूझना होगा नैराश्य से
आशा को निराशा के जबड़े से
खींचते समय उसकी
नुकीली दंतपंक्तियों से
लहुलूहान उंगलियों के
घावों को
करना होगा अनदेखा।

जूझना होगा...
झोली फैलाये, भाग्य भरोसे
नभ ताकती अकर्मण्यताओं से...
आशा की चिरौरी में
बाँधी गयी मनौतियों के कच्चे धागे 
प्रार्थनाओं की कातर स्वर लहरियों से
अनुकम्पा बरसने की बाँझ प्रतीक्षा को 
बदलना होगा उर्वरता में
 जोतने होंगे 
 कर्मठता के खेत
 बहाने होंगे अमूल्य स्वेद।

जूझना होगा...
अनजाने झंझावातों से 
आस को बुझाने के लिए
अचानक उठी आँधियों से
घबराकर बुझने के पहले
दृढ़ आत्मबल की हथेलियों से
 नन्हीं लौ की घेराबंदी
बचा ही लेगी 
उजाले की कोई 
 किरण।

और...
आशा के लिए जूझते समय
समय को कोसने की जगह
करना होगा पलों से संवाद 
कदाचित्...
तुम्हारी जुझारूपन की
ज्योर्तिमय गाथा
समय की कील पर टंगी
 नैराश्य की पोटली में
बंद सुबकती आत्माओं
की मृतप्राय रगो में
भर दे प्रेरणा की
संजीवनी।

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#श्वेता सिन्हा
४ जुलाई २०२१

Saturday 24 April 2021

आत्मा



आत्मा को ललकारती
चीत्कारों को अनसुना
करना आसान नहीं होता ...

इन दिनों सोचने लगी हूँ
एक दिन मेरे कर्मों का
हिसाब करती
प्रकृति ने पूछा कि-
महामारी के भयावह समय में
तुम्हें बचाये रखा मैंने
तुमने हृदयविदारक, करूण पुकारों,
साँसों के लिए तड़प-तड़पकर मरते
बेबसों जरूरतमंदों की 
क्या सहायता की?

मैं कहूँगी-

एक सभ्य और समझदार 
जिम्मेदार नागरिक की तरह,
महामारी से बचने के लिए
निर्गत दिशानिर्देशों का
अक्षरशः पालन किया।

अपनों को खोने को विवश
शोकाकुल,
घुटती साँस,तड़पती देह लिए
छटपटाते,लाचारों को
महामारी का ग्रास बनते 
देखकर आह भरती रही।

घटते-बढ़ते आँकड़ों का
सूक्ष्म विश्लेषण करती
सत्ताधीशों की मतलबपरस्ती 
व्यवस्थाओं की नाकामयाबी को
 खूब कोसती रही ।

मैंने सकारात्मक कविता लिखी
उत्साहवर्धक भूमिकाएँ लिखीं
मेरा प्रलाप सुनकर
प्रकृति ठठाकर हँस पड़ेगी
और मैं...
अपनी अकर्मण्यता को 
आवरणहीन देखकर
लज्जा से 
 फूट-फूटकर रो पडूँगी
तब प्रकृति मुझे 
मुट्ठीभर रेत बनाकर
मरूस्थल में बिखेर देगी।
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#श्वेता सिन्हा
अप्रैल २०२१


Sunday 18 April 2021

वक़्त के अजायबघर में

वक़्त के अजायबघर में
अतीत और वर्तमान 
प्रदर्शनी में साथ लगाये गये हैं-

ऐसे वक़्त में
जब नब्ज़ ज़िंदगी की
टटोलने पर मिलती नहीं,

साँसें डरी-सहमी
हादसों की तमाशबीन-सी
दर्शक दीर्घा में टिकती नहीं,

ज़िंदगी का हर स्वाद
खारेपन में तबदील होने लगा
मुस्कान होंठो पर दिखती नहीं,

नींद के इंतज़ार में
करवट बदलते सपने 
रात सुकून से कटती नहीं,

पर फिर भी  कभी किसी दिन
 ऐसे वक़्त में...

चौराहे पर खड़ा वक़्त
राह भटका मुसाफ़िर-सा,
रात ज़िंदगी की अंधेरों में
भोर की किरणें टटोल ही लेगा...,

वक़्त के पिंजरे में
बेबस छटपटाते हालात
उड़ान की हसरत में
फड़फड़ाकर पंख खोल ही लेगें...,

मरूस्थली सुरंग के
दूसरी छोर की यात्रा में
हाँफते ऊँटों पर लदा,बोझिल दर्द
मुस्कुराकर बोल ही पड़ेगा...,

उदासियों के कबाड़
शोकगीतों के ढेर पर चढ़कर
ऐ ज़िंदगी! तेरी इक आहट 
उम्मीदों की चिटकनी खोल ही देगी...।

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#श्वेता सिन्हा
 १७ अप्रैल २०२१


 

Friday 9 April 2021

तुम्हारा मन


निर्लज्ज निमग्न होकर मन
देता है तुम्हें मूक निमंत्रण
और तुम निर्विकार,शब्द प्रहारकर
झटक जाते हो प्रेम अनदेखा कर
जब तुम्हारा मन नहीं होता...।

घनीभूत आसक्ति में डूबा
अपनी मर्यादा भूल
प्रणय निवेदन करता मन 
तुम्हारे  दर्शन बखान पर
अपनी दुर्बलताओं के भान पर
लजाकर सोचता है
तुम कितने निर्मोही हो जाते हो
जब तुम्हारा मन नहीं होता...।

मेरी आत्मीयता के विस्तार पर
तुम झट से खींच देते हो लक्ष्मण रेखा
मेरे सारे प्रश्नों को विकल,
अनुत्तरित छोड़ चले जाते हो
जब तुम्हारा मन नहीं होता...।

तुम्हारा सानिध्य आत्मिक सुख है
परंतु,तुम्हारे प्रेम के लिए सुपात्र नहीं मैं
अपनी अपात्रता पर ख़ुद ही खीझती हूँ
तुम्हारे अबोलेपन पर भी रीझती हूँ
तुम्हारे एहसास में अकेली ही भींजती हूँ
जब तुम्हारा मन नहीं होता...।

#श्वेता सिन्हा


 

Saturday 3 April 2021

चलन से बाहर...(कुछ मुक्तक)



१)
बिना जाने-सोचे उंगलियाँ उठा देते हैं लोग
बातों से बात की चिंगारियाँ उड़ा देते हैं लोग
अख़बार कोई पढ़ता नहीं चाय में डालकर
किसी के दर्द को सुर्खियाँ बना देते हैं लोग

२)
चलन से बाहर हो गयी चवन्नियों की तरह,
समान पर लिपटी बेरंग पन्नियों की तरह,
कुछ यादें ज़ेहन में फड़फड़ाती हैं अक्सर
हवाओं के इश्क़ में टूटी कन्नियों की तरह।

३)
किसी के शोख़ निगाहों से तकदीर नहीं बदलती
नाम लिख लेने से हाथों की लकीर नहीं बदलती
माना दुआओं में शामिल हो दिलोजान से हरपल,
दिली ज़ज़्बात से ज़िंदगी की तहरीर नहीं बदलती।

४)
कभी चेहरा तो कभी आईना बदलता है
सहूलियत से बात का मायना बदलता है
अज़ब है ये खेल मतलबी सियासत का
ख़ुदसरी में ज़ज़्बात का दायरा बदलता है

५)
मन पर चढ़ा छद्म आवरण भरमाओगे
मुखौटों की तह में क्या-क्या छिपाओगे?
एक दिन टूटेगा दर्पण विश्वास भरा जब
किर्चियों से घायल ख़ुद ही हो जाओगे

६)
शुक्र है ज़ुबां परिदों की अबूझ पहली है
वरना उनका भी आसमां बाँट आते हम
अगर उनकी दुनिया में दख़ल होता हमारा 
जाति धर्म की ईंटों से सरहद पाट आते हम

७)

ज़िंदगी नीम तो कभी है स्वाद में करेला
समय की चाल में हर घड़ी नया झमेला
दुनिया की भीड़ में अपनों का हाथ थामे
चला जा रहा बेआवाज़,आदमी अकेला 

८)
चाहा तो बहुत मनमुताबिक न जी सके
जरूरत की चादर की पैबंद भी न सी सके
साकी हम भरते रहे प्यालियाँ तमाम उम्र
ज़िंदगी को घूँटभर सुकून से न पी सके

#श्वेता सिन्हा

Saturday 27 March 2021

कली केसरी पिचकारी


कली केसरी पिचकारी 
मन अबीर लपटायो,
सखि रे! गंध मतायो भीनी
राग फाग का छायो। 

चटख कटोरी इंद्रधनुषी
वसन वसुधा रंगवायो,
सरसों पीली,नीली नदियाँ
सुमनों ने माँग सजायो।

कचनारी रतनारी डाली 
 लचक मटक इतरायो,
 सारंग सुगंध सुधहीन भ्रमर
 बाट बटोही बिसरायो।

सखि रे! गंध मतायो भीनी
राग फाग का छायो।

बाबरी कूहके अमराई
बँसवारी बिरवा अँखुआयो,
कली-कली मुँहजोर 
ललित लास्य ललचायो।

उचक-उचक चूमे तितली
मदन मालती  मुसकायो, 
सिंदूरी किरणों के तीर
धरणी मुंदरी पहिनायो।

सखि रे! गंध मतायो भीनी
राग फाग का छायो। 

राग-द्वेष का होम करें
होलिका हुलस हुमकायो,
प्रीत भरी पिचकारी धार
मन के मैल छुड़ायो।
 
उत्सव उमंग मंगलमय
नेह कलश लुढकायो,
फागुनी रूनझुनी धुन पर
गीत-गोविंद मन गायो।
 
सखि रे! गंध मतायो भीनी
राग फाग का छायो ।

#श्वेता सिन्हा
(२७ मार्च २०२१)

Friday 19 March 2021

उम्र अटकी रह जाती है


विचारों के विशाल
सिंधु की लयबद्ध
लहरें मथती रहती है
अनवरत,
मंथन से प्राप्त 
विष-अमृत के घटो का
विश्लेषण करता
जीवन नौका पर सवार 
'उम्र'...
सीमाहीन मन 
शापग्रस्त देह लिए...
नाव के पाल पर बैठे
अनजान पक्षी की 
भाषा में उलझकर
अक़्सर भटक जाती है 
मंजिल से 
भूलकर यात्रा का उद्देश्य।
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जन्म-मरण के
प्राकृतिक चक्र की
सरल परिभाषा को
जोड़ती
काल्पनिक, अदृश्य रेखा
उम्र के हर घुमाव पर
गहरी होती जाती है।
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उम्र का हर पड़ाव
पहाड़ की पगडंडी सा
प्रतीत होता है
जिनके डंठल में
उगे उमंग से भरे
 नन्हें गाँव के
 आकर्षण में
 यात्रा की दुरूहताओं 
 को पथिक स्वीकारता है।
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जीवनभर की
यात्राओं में 
चलता रहता है,
समय की गंधहीन 
आँच में तपकर निरंतर
बदलता रहता है 
देह का मौसम
किंतु 
उम्र अटकी रह जाती है
कभी किसी 
बसंत में खिले
पलाश की टहनियों पर।
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#श्वेता सिन्हा
१८ मार्च २०२१


 

Wednesday 3 March 2021

हे प्रकृति...



मुझे ठहरी हुई हवाएँ
बेचैन करती हैं
बर्फीली पहाड़ की कठिनाइयाँ
असहज करती है
तीख़ी धूप की झुलसन से
रेत पर पड़ी मछलियों की भाँति
छटपटाने लगती हूँ
किसानों की तरह जीवट नहीं
ऋतुओं की तीक्ष्णता सह नहीं पाती
मैं बीज भी तो नहीं
जो अंकुरित होकर
धान की बालियाँ बने
और किसी का पेट भर सके
मैं चिड़िया भी नहीं 
जिसकी किलकारी से
मौन खिलखिला उठे
मैं पीपल या वट वृक्ष भी नहीं
जो असंख्य जीवों को
अपनी शाखाओं में समेटे
सुरक्षा का एहसास करा सके
मैं पहाड़ पर चढ़कर
बादलों में सपने नहीं भर सकी
मैं प्रेम भी नहीं हो सकी
जो मिटा सके मनुष्य के हृदय की
कलुषिता
मैं ज्ञान भी नहीं बन सकी
जो हो सके पुल
संभव और असंभव के बीच
मैं धूप-छाँव,नदी या झरना
भी नहीं 
शायद... बारिश की वह बूँद हूँ
जो गर्म रेत में गिरते ही सूखकर 
भाप बन जाती है
किसी कंठ की 
प्यास भी नहीं बुझा सकती,

उजाला,अंधेरा,
हरियाली,मरूभूमि, पहाड़,
सागर,सरिता,चिड़िया,चींटी
तितली,मौसम जैसी अनगिनत 
रंगों की अद्भुत चित्रात्मक
कृतियों की तरह ही
सृष्टि ने
मुझको भी दी है 
धरती की नागरिकता
अपने अधिकारों के
भावनात्मक पिंजरे में 
फड़फड़ाती 
जो न पा सकी उस
दुःख की गणना में
अपने मनुष्य जीवन के
कर्तव्यों को
पूरी निष्ठा से निभाने का शायद
ढोंग भर ही कर सकी। 
 
जीवन की 
यात्रा से असंतुष्ट
लासनायुक्त देह और
अतृप्त इच्छाओं के शापग्रस्त मन
का बोझ उठाये
अपने कर्मपथ की भूलभुलैया में 
निरंतर चलती थक चुकी हूँ
मात्र भीड़ की एक देह 
बनकर
अब जन्म-मरण के चक्र में
निरूद्देश्य और असंतुष्ट भटकना 
मुझे स्वीकार नहीं
हे प्रकृति!
मुझे बंधनों से मुक्त करो!
मुझे स्वयं में
एकाकार कर 
मेरे अस्तित्व को
सार्थकता प्रदान करो।

#श्वेता सिन्हा
३ मार्च २०२1


मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...