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Tuesday, 27 June 2017

खिड़कियाँ ज्यादा रखो

दीवारें कम खिड़कियाँ ज्यादा रखो
शोर क्यों करो चुप्पियाँ ज्यादा रखो

न बोझ हो सीने में कोई न मलाल हो
बिना उम्मीद के नेकियाँ ज्यादा रखो

दिखावे का जमाना है पिछड़ जाओगे
मेहमां कम सही कुर्सियाँ ज्यादा रखो

चल रहे हो भीड़ में चीखना बेमानी है
बँधे हुये हाथों में तख्तियाँ ज्यादा रखो

सुख दुख की लहरों से लड़ना हो गर
हौसलों से भरी कश्तियाँ ज्यादा रखो

दौड़ती हाँफती ज़िदगी के लम्हों से
परे हटा गम़ो को मस्तियाँ ज्यादा रखो

       #श्वेता🍁

2 comments:

  1. वाह...
    क्या बात है
    बेहतरीन
    सादर

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    Replies
    1. बहुत बहुत आभार आपका दी।

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।