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Thursday, 6 July 2017

संभव नहीं






राह के कंटकों से हार मानूँ मैं,संभव नहीं।
बिना लड़े जीवन भार मानूँ मैं,संभव नहीं।

हंसकर,रोकर ,ख्वाहिश बोकर,भूल गम
खुशियों पे अधिकार मानूँ मैं, संभव नहीं।

रात है तो ख्वाब है,पलकों पे नव संसार है
स्वप्न को जीवन आधार मानूँ मैं,संभव नहीं।

तुम न करो मैं न करूँ,ऐसे न होते नेह डोर
प्रेम को लेन देन व्यापार मानूँ मैं,संभव नहीं।

तम उजाला मन भरा,और कुछ है धरा नहीं
बुरा देख जग को बेकार मानूँ मैं,संभव नहीं।

         #श्वेता🍁

4 comments:

  1. बहुत सुंदर एहसास से भरी अच्छी ग़ज़ल

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    1. बहुत बहुत आभार शुक्रिया आपका लोकेश जी।

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  2. बहुत सुंदर दिल के जज्बात पिरोए हें आपने अपनी कविता में हर शब्द जैसे दिल से निकल रहा हो !सुंदर भाव ...

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    1. जी, बहुत शुक्रिया आपका हृदय से आभार संजय जी।

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।