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Saturday, 2 September 2017

देहरी

चित्र- साभार गूगल

तन और मन की
देहरी के बीच
भावों के उफनते
अथाह उद्वेगों के ज्वार 
सिर पटकते रहते है।
देहरी पर खड़ा
अपनी मनचाही
इच्छाओं को 
पाने को आतुर
चंचल मन,
अपनी सहुलियत के
हिसाब से
तोड़कर देहरी की 
मर्यादा पर रखी
हर ईंट
बनाना चाहता है
नयी देहरी 
भूल कर वर्जनाएँ
भँवर में उलझ
मादक गंध में बौराया
अवश छूने को 
मरीचिका के पुष्प
अंजुरी भर
तृप्ति की चाह लिये
अतृप्ति के अनंत
प्यास में तड़पता है
नादान है कितना
समझना नहीं चाहता
देहरी के बंधन से
व्याकुल मन
उन्मुक्त नभ सरित के
अमृत जल पीकर भी
घट मन की इच्छाओं का
रिक्त ही रहेगा।

    #श्वेता🍁


32 comments:

  1. बहुत सुंदर मनोभिव्यक्ति

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    1. बहुत बहुत आभार तहेदिल से शुक्रिया आपका लोकेश जी।

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  2. व्याकुल मन.....उन्मुक्त नभ सरित के
    अमृत जल पीकर भी, घट मन की इच्छाओं का रिक्त ही रहेगा।
    सही कहा आपने, मन पर नियंत्रण जो करे, जग पर नियंत्रण वो ही धरे।।।।।।

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    1. आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया के लिए हृदय से बहुत बहुत आभार p.k ji.

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  3. व्याकुल और अतृप्त मन की जिजिभिषा,,,,, कभी मन के आकाश में समाहित अनन्त असीम को पाने की चाह और अभी सत्य का भान लिए धरातल पर खड़ी जीवन के सर्वभौमिक सच को परिलिक्षित करती पंक्तियां। क्या खूबसूरत
    अहसास है आपको पढ़ना।

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    1. वाह्ह...सुंदर विवेचना, मेरी रचना के मूल भाव को समझकर की गयी आपकी सुंदर सारगर्भित प्रतिक्रिया के लिए हृदयतल से अति आभार आपका।

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  4. आपका हृदय से अति आभार दी रचना को मान देने के लिए:)

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  5. श्वेता जी आपकी सारगर्भित रचनाएं इंसान के जटिल मन का सटीक विवेचन करती हैं. उत्क्रिस्ट लेखन.

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    1. जी,बहुत बहुत आभार आपका अपर्णा जी।आपकी सुंदर प्रतिक्रिया के लिए तहेदिल से शुक्रिया।

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  6. इन्सान के मन की आकांक्षाओं और दुविधा का विश्लेषण.....,बहुत सुन्दर‎ शब्दों‎ में किया है श्वेता जी शब

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    1. अति आभार आपका मीना जी,आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया के लिए हृदय से बहुत धन्यवाद।

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  7. देहरी पर खड़ा
    अपनी मनचाही
    इच्छाओं को
    पाने को आतुर
    चंचल मन
    सुन्दर सार्थक....
    मन की चंचलता को बहुत ही खूबसूरती से व्यक्त करती आपकी लाजवाब प्रस्तुति....

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    1. अति आभार आपका सुधा जी,आपकी सुंदर प्रतिक्रिया उत्साह बढ़ाती है।

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  8. उन्मुक्त नभ सरित के
    अमृत जल पीकर भी
    घट मन की इच्छाओं का
    रिक्त ही रहेगा।...सुन्दर! मन की चंचलता का चारू चित्रण!

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    1. अति आभार आपका विश्वमोहन जी,आपकी सराहना सदैव मनभाती है।तहेदिल से बहुत शुक्रिया आपका।

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  9. अति सुन्दर !
    ताजगीभरा सृजन !
    देहरी (देहलीज़ /Threshold ) हमें जीवनभर मर्यादा का भान कराता रहने वाला व्यापक शब्द है जिसे आपने जिस ख़ूबसूरती के साथ बिम्बों और प्रतीकों में संजोया है वह अनूठा बन पड़ा है।
    "तन और मन की देहरी के बीच भाव....." ये शब्द पाठको को अंत तक वाचन के क्रम में बाँधे रखते हैं।

    मन की चंचलता तो शाश्वत सत्य है। ध्यान को भटकाने में माहिर मन को यों ही हमें समझते रहना है जबकि मन को परिभाषित करने के यत्न किसी कोताही का संकेत नहीं देते फिर भी हमारे जीवन से जुड़े इस काल्पनिक सत्य को समय के साथ ख़ुशनुमा एहसास बनाने के लिए कुछ न कुछ रचते रहना होगा।

    इस महकती , उत्कृष्ट रचना के लिए बधाई एवं मगलकामनाएँ श्वेता जी।
    लिखते रहिये यों नवीनता से परिपूर्ण परिप्रेक्ष्य में ।

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    1. रवींद्र जी,
      आपकी विश्लेषणात्मक प्रतिक्रिया पढ़कर मन आहृलादित है आप सदैव रचना के सूक्ष्म भावों का गहन मंथन कर जो प्रतिक्रिया लिखते है वो अतुलनीय होती है।
      आपका तहे दिल से अति आभार बहुत सारा शुक्रिया।

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  10. दार्शनिक विचार ,आपकी रचना अत्यंत सराहनीय है उम्दा ! शुभकामनाओं सहित ,
    आभार ''एकलव्य"

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    1. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति

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    2. बहुत आभार शुक्रिया बहुत सारा आपका ध्रुव जी।

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  11. इच्छाओं का कोई अंत नहीं................बहुत ही भावपूर्ण तरीके से प्रदर्शित रचना

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    1. ब्लॉग पर आपका स्वागत है वंदना जी।
      आपकी सुंदर प्रतिक्रिया के लिए तहेदिल से शुक्रिया।

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  12. वाह्ह्ह्ह्ह्ह् खूब

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    1. आपका स्वागत है नवीन जी,सुंदर प्रतिक्रिया के लिए सादर आभार आपका।

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  13. सारा खेल इन अतृप्त इच्छाओं का ही तो है ! आपने बखूबी चेताया है श्वेता जी ! सोचने पर मजबूर कर देती आपकी सुंदर रचना । बधाई।

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    1. आपकी स्नेहमयी प्रतिक्रिया के लिए हृदयतल से अति आभार मीना जी।बहुत सारा शुक्रिया आपका।
      कृपया नेह बनाये रखे।

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  14. स्वेता, कहा जाता है न कि मैं की इच्छाएं तो अनगिनत होती है। एक पूरी हुई नहीं कि मन चाहता है कि दूसरी इच्छा पूरी हो। मन का बहुत ही सटीक आकलन किया है आपने।

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    1. जी, बिल्कुल सही कहा आपने ज्योति जी,रचना के भाव समझकर प्रतिक्रिया के लिए हृदय से बहुत बहुत आभार शुक्रिया आपका ज्योति जी।

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  15. मन का अंतर्द्वंद तो चलता रहता है ... कभी असीम ऊंचाइयों पर मन जाता है हर सीमा लांघ जाना चाहता है पर फिर देहरी का बंधन सत्य की हकीकत तक खींच लाने की जद्दोजेहद में भटकती रचना ... बहुत खूब ...

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    1. बहुत बहुत आभार आपका नासवा जी।आपकी सराहना का प्रसाद मिलता रहे यही प्रार्थना है।

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  16. देहरी पर खड़ा
    अपनी मनचाही
    इच्छाओं को
    पाने को आतुर
    चंचल मन
    सुन्दर सार्थक...दिल तक पहुंची बात ...सुन्दर अभिव्यक्ति

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    1. बहुत बहुत आभार शुक्रिया आपका संजय जी,सदैव आपने मेरा उत्साहवर्धन किया है,तहेदिल से बहुत बहुत धन्यवाद आपका।

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।