श्यामल नभ पर अंखुआये
कारे-कारे बदरीे गाँव
फूट रही है धार रसीली
सुरभित है बरखा की छाँव
डोले पात-पात,बोले दादुर
मोर,पपीहरा व्याकुल आतुर
छुम-छुम,छम-छम नर्तन
झाँझर झनकाती बूँद की पाँव
किलकी नदियाँ लहरें बहकी
जलतरंग जल पर चहकी
इतराती बलखाती धारा में
गुनगुन गाती मतवारी नाव
गीले नैना भर-भर आये
गीला मौसम गीली धरती
न हरषाये न बौराये
बरखा बड़ी उदास सखी
आवारा ये पवन झकोरे
अलक उलझ डाले है डोरे
धानी चुनरी चुभ रही तन को
मन संन्यासी आज सखी
बैरागी का चोला ओढ़े
गंध प्रीत न एक पल छोड़े
अंतस उमड़े भाव तरल
फुहार व्यथा अनुराग सखी
--श्वेता सिन्हा