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Tuesday, 23 April 2019

धरती


हरी-भरी,फलती-फूलती
गर्भिणी धरती की
उर्वर कोख़ उजाड़कर
बंजर नींव में
रोप रहे हम
भावी पीढ़ियों के लिए
रेतीला भविष्य।

नभ से कुछ अंगुल कम
उन्नत छातियों से 
बर्फीले आवरण 
उतारकर 
लज्जित,उदास शिखरों
को फोड़कर बुन रहे हैं
अकाट्य कवच,
लोहे के गगनचुंबी स्वप्न।

अठखेलियाँ करती,
किलकती,गुनगुनाती
पवित्र धाराओं में
धोकर,बहाकर
अपनी कलुषिता, 
हम निष्कलुष हुये,
गंदगी के बोझ से थकी
क्षीण,जर्जर,
मरणासन्न नदियों की
देह के ऊपर
मंत्र फूँककर
जिलाने का ढ़ोंग!
क्या लौटा पायेंगी
जीवन का अमृत..?

बरसों की कठिन 
तपस्या से
धरती को प्राप्त
अनमोल उपहारों का
निर्दयता से प्रयोग करते हैं
अपनी सुविधानुसार,
दूहते...!
कलपती,सिसकती,
दिन-प्रतिदिन
खोखली होती
धरती,
 अपने गर्भ में ही 
मार डाले गये भ्रूणों के
अबोले शाप की अग्नि में
झुलसने से
कब तक बचा पायेगी
मनुष्य का अस्तित्व ...?

#श्वेता सिन्हा










8 comments:

  1. दर्द में सिमटी बहुत सुन्दर प्रस्तुति दी
    सादर

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  2. 22अप्रैल को "विश्व पृथ्वी दिवस" और उस पर वसुंधरा के अनावश्यक दोहन से उपजी व्यथा पर आपकी मार्मिक प्रस्तुति...., सुसुप्तावस्था से इन्सानों को चेतना में लाने का सुन्दर प्रयास ।

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  3. वाह ! विचारणीय विषय पर विहंगम दृष्टिपात करती शानदार रचना.

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  4. बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति

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  5. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 23/04/2019 की बुलेटिन, " 23 अप्रैल - विश्व पुस्तक दिवस - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  6. मनुष्य का अस्तित्व प्राकृति से है और जब इंसान ये समझ जाएगा स्वर्ग यहीं बन जाएगा ... नदियाँ, पहाड़ पेड़ इसी का रूप हैं ... अच्छी रचना है ...

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  7. Wahh शानदार रचना 👌 👌 👌

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  8. गंदगी के बोझ से थकी
    क्षीण,जर्जर,
    मरणासन्न नदियों की
    देह के ऊपर
    मंत्र फूँककर
    जिलाने का ढ़ोंग!
    क्या लौटा पायेंगी
    जीवन का अमृत..?
    बहुत ही लाजवाब रचना....
    वाह!!!

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।