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Sunday, 17 November 2019

मैं भूल जाना चाहती हूँ



भुलक्कड़ रही सदा से
बचपन से ही
कभी याद न रख सकी
सहेज न सकी
कोई कड़ुवाहट
सखियों से झगड़ा
सगे या चचेरे-ममेरे
भाई बहनों से तीखी तकरार
हाथ-पाँव पर लगे
चोट पर लगा दिया करती थी
चुपचाप अपने आँसुओं का फ़ाहा
बिना किसी दर्द के शिकायत के
दादी-बुआ के तानों का
पास-पड़ोस के गप्प गोष्ठियों में
अपने रुप की तुलनात्मकता का
सहपाठियों के उपहास का
कोई शब्द याद नहीं
बदसूरती के तमगे को
हँसकर सहजता से स्वीकार किया
 तिरस्कार की खाद पर
उगाती रही मुस्कुराकर सदैव
खूबसूरत रिश्तों के फूल

उम्रभर
कभी बाँट न सकी
मन की व्यथा
भुलाती रही हमेशा
विषैले नश्तर
छीलकर मन की
कठोर परतों को
बोती रही कोमलता
जीवन के हर मोड़ पर
प्रक्षालित करती रही आत्मा
स्व का आकलन करती रही
 हर पड़ाव में
बाँटती रही खुशियाँ

पर फिर भी जाने कैसे
कुछ अटका रह गया 
जिसे चाहकर भी,
तमाम कोशिशों के बाद भी
भुला नहीं पाया मन
कुछ चुभाये गये दंश
सहजता से भूलने की आदत
कभी कोई नाम आते ही
सजग हो जाता है,
अस्फुट बड़बड़ाहट
अनवरत गूँजते हैं कानों में
मन की परतों को उधेड़ने लगते हैं,
बेकल छटपटाहट 
प्रार्थना करती है
हर वो शब्द मन से मिटाने का
जो लहुलुहान करता है,
एहसास होता है कि भूलना
कभी-कभी सरल नहीं होता...।

आजीवन सोचती रही
पर्याप्त होता है
पूर्ण समर्पित प्रेम होना
बिना किसी आशा के
आकांक्षारहित होकर
प्रेम के चरणों में
पवित्र मन के पुष्प अर्पित करने
भर से ही
प्रेम अबोले मन की भाषा के
अव्यक्त भाव पढ़कर
प्रतिदान स्वरूप "प्रेम" उड़ेल देगा
रिक्त झोली में
अपने भ्रम को सत्य की तरह
जीती रही
विश्वास और अतिभावुकता
के रेशे से गूँथती रही "नेह"....,
पर अब भूल जाना चाहती हूँ
दी हुई सिसकती निशानियाँ
पीड़ा और टूटे विश्वास की
सारी किर्चियाँ...

झाड़-पोंछकर स्वच्छ कर देना
चाहती हूँ 
अपने मन पर उगे काँटें
निकाल देना चाहती हूँ
कोमल और अबोध हृदय पर
पनपे नेह वृक्ष
जो सिर्फ़ प्रेम के लिये
मंगलकामनाएँँ करता है
उसे प्रतिदिन अंजुरीभर 
निःस्वार्थ भावजल से सींचना
चाहती हूँ...
किसी भी प्रतिदान
की अपेक्षा किये बगैर।

#श्वेता

12 comments:

  1. सच है की एक समय आता है जब इंसान सब कुछ भूल जाना चाहता है ... पर कई बार चुभे दंश उसे ऐसा करने नहीं देते ...
    शायद समय ही एक दावा है इसकी ...

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (१९ -११ -२०१९ ) को "फूटनीति का रंग" (चर्चा अंक-३५२४) पर भी होगी।

    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….

    अनीता सैनी

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  3. बहुत सुन्दर कविता !
    लेकिन इतना भला होना, इतना निश्छल होना, इतना क्षमाशील होना, इतना दयावान होना, इतना स्नेहयुक्त होना, व्यावहारिक नहीं है.
    देवी मत बनो, मानवी बनो और अपने कर्तव्यों के साथ-साथ अपने अधिकारों के प्रति भी सचेत रहो.

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  4. बेहद उम्दा.... वाह|

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  5. गहराई समेटे हुए कुछ शब्द ...

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  6. बहुत सुंदर प्रिय श्वेता! एक सरल, शालीन, करुणामयी नारी के कल्याणकारी उद्दात भावों से भरा सृजन। हर नारी प्राय ऐसी ही होती है । नारी का ये सुसंस्कारी स्वरूप सदैव ही आदर्श माना गया , पर जैसा कि आदरणीय गोपेश जी ने लिखा, देवी नहीं , मानवी बनकर गलत बातों का प्रतिकार एक नारी को जरूर करना चाहिए। अति वर्जित है, अति झुकना भी, क्योकि फलदार वृक्ष के झुकने
    पर, लोग फल के साथ उसके पत्र और टहनियाँ भी खसोट ले जाते है।

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  7. कोई भी लड़की या महिला बदसूरत नहीं होती, इसका सबसे बड़ा सबूत भी यही है कि वो एक लड़की या महिला है... बस।
    सहन करने की क्षमता तक सहन करना ही चाहिए इसके बाद बगावत ही उचित राह होता है जिससे मैल हटाया जा सकता है और शुद्धता को निखारा जा सकता है; गीता से ये बखूबी सीखा जा सकता है।
    लेकिन हमारे सहन करने की क्षमता की सीमा क्या हो ये विषय विचार करने योग्य है।
    एक नारी के अंतर्मन तक पहुंचने की राह है ये कविता।
    मुझे बहुत पसंद आई।

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  8. समय समय पर मिले तीखे दंश,प्रेम को मिला मौकापरस्ती का नाम,रूप की अन्यों से तुलना, घायल मनःस्थिति में मौन हो जाओ तो घमंडी का तमगा....
    क्या क्या भूला जाए ? जमाने के साथ चलना सीखने के लिए क्या करें ? आपकी कविता में मुझे मानो अपने ही मन का प्रतिबिंब नजर आया है !!!

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  9. नारी सहनशील होती है पर कभी -न-कभी अपने ऊपर हो रहे ज्यादतियों के लिए इस घायल मन में प्रतिकार की भावना अवश्य जागृत होती है । सहनशील व्यक्ति को लोग बेवकूफ और दव्बू समझने लगते हैं ।इसलिए अपने ऊपर हो रहे दुल्हनों का विरोध भी आवश्यक है । वैसे मन के भाव को बहुत ही सुंदर और भावपूर्ण ढंग से व्यक्त किया है।

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  10. न भूल पाते
    किसी के द्वारा
    किया गया उपहास
    और न ही
    किसी के
    व्यंग्य बाण ।
    खुद को भ्रमित कर
    खुश रहने की
    खुशफहमी पाले हुए
    सोचती रहीं कि
    नहीं फर्क पड़ता
    किसी के कुछ कहने से
    झाड़ती पोंछती रहीं
    स्व मन को
    लेकिन
    होता यही है कि
    अक्सर बड़े काँच के टुकड़े
    देते हैं कम वेदना
    जब कि किरचें
    चुभ जातीं हैं तो
    निकालनी हो जाती हैं
    अत्यंत कठिन
    आखिर
    अटक ही गया न कुछ
    जो भूलना
    नहीं था सरल ।
    अकांक्षा रहित प्रेम के
    प्रतिदान स्वरूप
    प्रेम से
    झोली भरने की चाहत
    अपेक्षा रहित
    न कही जाएगी ,
    इसी लिए
    मन पर उगे काँटे
    निकालने में
    भले ही हो जायें
    उंगलियाँ लहूलुहान
    प्रेम के पौधों को
    उगाने के लिए
    नेह की एक
    अँजुरी काफी है ।

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।