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Friday, 29 November 2019

कब तक...?


फिर से होंगी सभाएँ
मोमबत्तियाँ 
चौराहों पर सजेंगी
चंद आक्रोशित नारों से
अख़बार की 
सुर्खियाँ फिर रंगेंगी
हैश टैग में 
संग तस्वीरों के
एक औरत की 
अस्मत फिर सजेगी
आख़िर हम कब तक गिनेंगे?
और कितनी अर्थियाँ 
बेटियों की सजेंगी?
कोर्ट,कानूनों और भाषणों 
के मंच पर ही
महिला सशक्तिकरण 
भ्रूण हत्या,बेटी बचाओ
की कहानियाँ बनेंगी
पुरुषत्व पर अकड़ने वाले को
नपुंसक करने की सज़ा 
कब मिलेगी?
मुज़रिमों को
पनाह देता समाज
लगता नहीं 
यह बर्बरता कभी थमेगी
क्यों बचानी है बेटियाँ?
इन दरिन्दों का 
शिकार बनने के लिए?
पीड़िता, बेचारी,अभागी
कहलाने के लिए
बेटियाँ कब तक जन्म लेंगी ?

#श्वेता सिन्हा

और कितनी दरिंदगी बाकी है
इंसानी भेड़ियों क्यों तुम्हारी ज़िंदगी बाकी है...?
वासना के लिजलिजे कीड़ों 
वहशियत और कितनी गंदगी बाकी है?





11 comments:

  1. . सच है दी कब तक लड़कियां, बेटियां यह सब सहेंगीं,. बहुत कुछ लिख दिया आपने इस कविता में दर्द, गुस्सा,संवेदना, सच कहूं तो यह घटना बहुत ही निर्ममतापूर्वक की गई, जब तक कड़े से कड़े दंड का प्रावधान नहीं बनेगा ऐसी घटनाएं शायद भविष्य में भी होती रहेंगी, आपकी कविता के द्वारा मेरी भी श्रद्धांजलि पीड़िता को समर्पित है..!!

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    1. बहुत नाराज़ हूँ अनु ख़ुद की अकर्मण्यता पर। क़लम घिसकर रह जाते हैं हम बस ऐसी दरिंदगी पर। क्या हम इतने बेबस है ऐसे अमनवीयता पर कुछ कर नहीं पाते।
      काश कि हम ऐसा होनै से रोक पाते?

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  2. बहुत शर्मनाक घटना
    मार्मिक अभिव्यक्ति

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  3. बेहद शर्मनाक

    मार्मिक

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  4. बहुत दुखद और वीभत्स घटना है। जब तक कड़ी सजा के रूप में समाज में संदेश नहीं जाएगा तब तक परिवर्तन नहीं आएगा। हर मामले में पुलिस की लापरवाही भी सामने आती है।

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  5. काश ऐसा कानून होता कि ऐसे लोगों से मानव कहलाने का अधिकार छीनकर उनको सजा उनके जुर्म के अनुरूप मिलता और उन्हें बचाने की कोशिश करने वालों को भी उनके समकक्ष खड़ा करके उनके बराबर की सजा दी जाती फिर चाहे वह परिवार हो या वकील।

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  6. श्वेता जी! फ़िलहाल मैं आपकी इस रचना पर कोई भी टिप्पणी नहीं कर रहा हूँ। ना ही आँसू वाले स्माइली चिपका रहा हूँ। अगर आप बुरा ना माने तो एक कुतर्की सवाल आपकी इस रचना के बहाने समाज के सभी रचनाकारों, तथाकथित स्थापित साहित्यकारों, सभ्य ब्लॉगरों और सुसंस्कृत सोशल मिडिया की भीड़ से पूछना चाहता हूँ कि अगर हमारी अपनी बहन या बेटी के साथ ऐसी कोई अप्रत्याशित घटना घटे तो हमारे दिमाग में भी ऐसी कोई रचना पनप सकती है क्या !??? ( मेरे स्वयं के भी दिमाग में जो अभी कुतर्की बतकही कर रहा है )। हम भी अगली सुबह या शाम मोमबत्तियों को जला कर शहर के किसी नामी चौराहे पर प्रेस रिपोर्टरों के कैमरे के फ़्लैश के सामने अपनी मुट्ठियाँ भींचे आकाश की ओर उछालते हुए नारा लगा कर अपना चेहरा उठा सकते हैं क्या !???
    शायद नहीं ... है ना !? अगर मेरे मन में भी "समानुभूति" का क़तरा भर भी पनपे अगर ...
    मेरी उँगलियों को तो जैसे लकवा मार जाता है ऐसी घटनाओं को जानकार। ( इनदिनों हम कलम या स्याही का इस्तेमाल नहीं करते तो लेखनी, कलम या स्याही जैसी वस्तुओं की संज्ञा का ज़िक्र करना यहाँ बेमानी होगा शायद। )
    हम चंद रचनाओं , स्माइलियों और पोस्टों को प्रेषित कर अपनी जिम्मेवारी का इतिश्री कर के एक सभ्य और सुसंस्कृत नागरिक होने का प्रमाण देने का प्रयास भर करते हैं। फिर अपने पोस्ट के सफलता का आंकलन उस पर आने वाली अँगूठे वाली 'लाइक' या दिल वाली या आँसू वाली या फिर और कोई वैकल्पिक स्माइली या प्रतिक्रियाओं से करते रहता हैं।
    पर किसी ऐसे मौकों पर हमारी कुत्सित मानसिकता वाले इस समाज के सुधार के लिए "सहानुभूतियों" की नहीं "समानुभूतियों" की आवश्यकता है शायद।
    हमें जमीनी तल पर " समानुभूति " का अहसास करने वाले एक ऐसी मानवीय मानसिकता की फसल उगानी होगी जो केवल धन कमाने (दो नम्बरी भी) वाली नौकरी के लिए अंकप्राप्त करने वाले पाठ्यक्रम की किताबों से उगने वाले फ़सल से इतर होगी।
    अगर कम से कम भावी पीढ़ी भी इस अभियान के तहत पनपे तो सारे अपराध शून्य हो जाएंगे। बस आवश्यकता है - इन्हें हम सभी को अपनी पीढ़ी से इतर "सहानुभूति" की जगह " समानुभूति" का पाठ (अंक-प्राप्ति वाला नहीं) पढ़ाना होगा और इसका उन्हें अहसास कराना होगा। जब हम दुसरे के दर्द को स्वयं अहसास या एहसास करने लग जाएंगे तो किसी को पीड़ा दे ही नहीं सकते।
    सामूहिक बलात्कार के बाद ज़िन्दा या हत्या कर जला देना .... सोचने भर से हाथ-पाँव कांपने लगता है। धकधकी बढ़ जाती है। कोई कर भी कैसे सकता है भला !????
    पूर्वजों की बातों पर संतोष कर लेना चाहिए क्या हमें कि :-
    १) तथाकथित भगवान अवतार लेंगें इस पाप को नष्ट करने।
    २) जेही विधि राखे राम, जेही विधि रहिए।
    ३) कर्म किये जाओ, फल की चिंता मत करो।
    ४) क्या ले कर आए हो, क्या लेकर जाओगे ?
    या फिर ब्राह्मणों की मान लें कि :-
    ५) पिछले जन्म के कर्मों का फल हम सभी भुगतते हैं इस जन्म में ।
    अरे बुद्धिजीवियों !!!!!!! मैं "असभय कुतर्की" पूछता हूँ कि उस बलात्कार के समय तथाकथित भगवान कहाँ सोया था ????? ये क्या उस अबला (ये विशेषण शब्द भी पुरुष-प्रधान समाज की ही देन है) के पूर्व जन्म के किसी बुरे कर्मों का प्रतिफल था या तथाकथित गूँगा-बहरा भगवान को अवतार लेने के शुभ-मुहूर्त किसी ब्राह्मण ने "पतरा" देख कर नहीं बतलाया है?????
    मत रहिए "पत्थर" के भरोसे, मिलकर कम से कम भविष्य और भावी पीढ़ी के लिए भावी पीढ़ी को नए ढंग से पनपाइए ताकि आने वाला कल तो कम से कम सुनहरा हो।

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    1. आपके मर्मांतक शब्दों ने कुछ कहने की गुंजाइश नहीं छोड़ी सुबोध जी। सचमुच कुछ तो ऐसा है जिसे किये हम दोषी हैं। किसी हंसती खेलती होनहार लाडली बेटी (भले होनहार न हो,सुंदर ना हो ,या फिर शिक्षित भी ना हो) घर से जाए और जली , नोची खसोटी फिर जिंदा जलाई लाश के रूप में लौट कर आये तो उस दर्द उस वेदना को कौन सी कलम लिखा पायेगी। नारी पूजा वाले विधानयुक्त राष्ट्र में इस तरह के अन्याय से आँखें ग्लानि भाव से झुकी हैं। कथित बदनाम सभ्यता वाले पश्चमी देशों में नारी सुरक्षित है तो सीता, सावित्री के गौरवशाली देश में उसकी अस्मिता दरिंदगी से रोज तार तार हो रही हैं । आपके विचार झझकोर गए।

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  7. जी नमस्ते,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (०१-१२ -२०१९ ) को "जानवर तो मूक होता है" (चर्चा अंक ३५३६) पर भी होगी।
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।

    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….
    अनीता सैनी

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  8. सचमुच ऐसा लगता है जिस दरिंदे की जिंदगी की हम बात करते हैं वह उसकी दरिंदगियाँ हम ही पनपाते ।इसके लिए सिर्फ कानून और पुलिस को ही दोषी ठहराना बेमानी है ।ऐसी घटनाओं की पीड़ा का उदाहरण प्रस्तुत कर हमें अपने बच्चों को इन बुराइयों के दोष बताकर उन्हे समझाना होगा। बनाना होगा।

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  9. सटीक प्रस्तुति

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।