मैं
नित्य सुनती हूँ
कराह
वृद्धों और रोगियों की,
निरंतर
देखती हूँ
अनगिनत जलती चिताएँ
परंतु
नहीं होता
मेरा हृदयपरिवर्तन।
मैं
ध्यानस्थ होती हूँ
स्वयं की खोज में
किंतु
इंद्रियों के सुख-दुख की
प्रवंचना में
अपने कर्मों की
आत्ममुग्धता के
अंधकार में
खो देती हूँ
आत्मज्योति।
मुझे
ज्ञात है
सुख-दुःख का
मूल कारण,
सत्य-अहिंसा-दया
एवं सद्कर्मों
की शुभ्रता
किंतु
मानवीय मन
विकारों के
वृहद विश्लेषण में
जन्म-मृत्यु
जड़-चेतन की
भूलभुलैय्या में
समझ नहीं पाता
जीवन का
का मूल उद्देश्य।
हे बुद्ध!
मैं
तुम्हारी ही भाँति
स्पर्श करना
चाहती हूँ
आत्मज्ञान के
चरम बिंदुओं को
किंतु
तुम्हारी तरह
सांसारिक बंधनों का
त्याग करने में
सक्षम नहीं,
परंतु
यह सत्य भी
जानती हूँ
जीवन के अनसुलझे,
रहस्यमयी प्रश्नों
विपश्यना,
"मैं से मोक्ष"
की यात्रा में
की यात्रा में
तुम ही
निमित्त
निमित्त
बन सकते हो
कदाचित्।
©श्वेता सिन्हा
७ मई २०२०
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आत्म स्वीकृति के भावों साथ ही ज्ञान की अदम्य पिपासा,व्यक्त करती आत्म मंथन की गहन अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबस आत्मा पर आछादित काले बादल जिस दिन छंट जाएंगे । उसी समय बुद्ध बनने को अग्रसर होगी आत्मा ।
अनुपम लेखन ।
बहुत-बहुत आभारी हूँ दी रचना का मर्म स्पष्ट रती आपके उत्साहवर्धक आशीष के लिए।
Deleteबहुत शुक्रिया दी।
सादर।
सस्नेह।
बहुत-बहुत आभार दी।
ReplyDeleteआपका स्नेह है।
शुक्रिया
सादर।
परंतु
ReplyDeleteयह सत्य भी
जानती हूँ
जीवन के अनसुलझे,
रहस्यमयी प्रश्नों
विपश्यना,
"मैं से मोक्ष"
की यात्रा में
तुम ही
निमित्त
बन सकते हो
कदाचित्।
विश्वास बना रहे
सदा स्वस्थ्य रहें व दीर्घायु हों
जी दी आभारी हूँ।
Deleteस्नेहिल आशीष आपका।
शुक्रिया।
सादर।
आत्मबोध की चाह रखना, आत्मज्योति तक ध्यानस्थ होना, परपीड़ा को समझना और बुद्ध के ज्ञान का परिमार्जन करना , मैं से मौक्ष तक की यात्रा के लिए निमित्त को तलाशना और गृहस्थ का समुचित पालन करना मेरे हिसाब से सर्वश्रेष्ठ आचरण है बुद्ध की शरण और मौक्ष की प्राप्ति के लिए।
ReplyDeleteयदि मानव इतने भाव भी मन मे लिए जीवनयापन करे तो देवतुल्य होगा ...
बहुत ही लाजवाब विचारोत्तेजक उत्कृष्ट सृजन।
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteबुद्ध पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामंनाएँ।
very beautiful..
ReplyDeleteबहुत शानदार लिखा। मेरी रचना यशोधरा का प्रश्न पढ़कर जरूर अपनी प्रतिक्रिया दें
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteचाहती हूँ
ReplyDeleteआत्मज्ञान के
चरम बिंदुओं को
किंतु
तुम्हारी तरह
सांसारिक बंधनों का
त्याग करने में
सक्षम नहीं,
सांसारिक बंधनों का त्याग ना सही बुद्ध की भाँति थोड़ी सी संवेदना ही हृदय में जागृत कर सकें हम ,तो भी आज के परिवेश में बुद्धत्व को पा ही लगे
सुंदर विचारों से सुशोभित रचना ,सादर नमन श्वेता जी
अद्भुत !
ReplyDeleteवाह! बहुत खूब लिखा आपने आदरणीया दीदी जी। सुंदर,अनुपम। जब आत्मा पर चढ़ी धूल हट जाती है और आत्मा करुणा का शृंगार करती है तब बुद्ध होने की यात्रा आरंभ होती है। सादर प्रणाम दीदी। सुप्रभात 🙏
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत रचना.जीवन का ध्येय समझना जरूरी है। इंसान अपना पूरा जीवन मोह माया में बिता देता है बिना यह जाने और समझे कि धरती पर उसके अवतरण का मूल उद्देश्य क्या है।जीवनपर्यंत वह दूसरों की कमियां खोजने में लगा रहता है और इस चक्र में वह स्वयं को कहीं खो देता है। आवश्यक है आत्मबोध।खुद को जानने समझने की चाह ही पहली सीढ़ी है बुद्धत्व की।
ReplyDeleteसाधुवाद....👌👌👌
जीवन के अनसुलझे,
ReplyDeleteरहस्यमयी प्रश्नों
विपश्यना,
"मैं से मोक्ष"
की यात्रा में
तुम ही
निमित्त
बन सकते हो
कदाचित्।----उत्कृष्ट सृजन
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ReplyDeleteमैं
ध्यानस्थ होती हूँ
स्वयं की खोज में
किंतु
इंद्रियों के सुख-दुख की
प्रवंचना में
अपने कर्मों की
आत्ममुग्धता के
अंधकार में
खो देती हूँ
आत्मज्योति।
...अन्तर्मन के प्रश्नों से जूझती और खुद को खोजती अनुपम कृति,बहुत शुभकामनाएं श्वेता जी ।
मैं से मोक्ष मिलते ही तो बुद्ध हो जाओगी ।।
ReplyDeleteमैंने तो तथागत से ही प्रश्न कर डाले हैं कि गृहस्थ का त्याग किये बिना क्या ज्ञान नहीं प्राप्त होता ?
भावों को गहनता से समेटा है ।
बुद्ध को करुणा भरा उद्बोधन प्रिय श्वेता!
ReplyDeleteविषम परिस्थितियों में हम सभी बुद्ध हो जाते हैं पर हालात बदलते ही उसी लोकाचार में लौट आते हैं। बुद्ध का बुद्धत्व स्थायी था। हज़ारों सालों में कोई एक बुद्ध हो सकता है पर कोशिश सभी करते हैं। मन के गहन चिंतन को सहेजती भावपूर्ण रचना! हार्दिक शुभकामनाएं 💐💐🌹🌹
आदरणीया मैम, अत्यंत सुंदर, आध्यात्मिक भावों से भरी हुई रचना। आपकी यह रचना मुझे भीष्म पितामह के सहर-शैया पर लेटने के बाद भगवान श्री-कृष्ण व अर्जुन के बीच का संवाद याद दिलाती है । उस समय अर्जुन भी दुखी हो कर भगवान कृष्ण से यही कहते हैं कि "हे केशव, मैं ने तुमसे गीत सुनी है और यह जानता हूँ यह संसार क्षण-भंगुर है और यह शरीर नश्वर है, पर अब मैं स्वयं को कैसे समझाऊँ कि यह मेरे पितामह नहीं, केवल उनका शरीर सहर-शैया पर लेता हुआ है, अब तुम कृपया करो और मुझे अपनी शरण दो "।
ReplyDeleteइस बहुत ही सुंदर आध्यात्मिक भाव से भरी रचना के लिए आभार व आपको प्रणाम ।
उत्कृष्ट सृजन।
ReplyDeleteबहुत उत्कृष्ट वर्णन
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 30 सितम्बर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteशीर्षक में ही जीवन का सत्य है।
ReplyDeleteबुद्धम शरणम गच्छामि।
उत्कृष्ट सृजन।