Pages

Friday, 19 March 2021

उम्र अटकी रह जाती है


विचारों के विशाल
सिंधु की लयबद्ध
लहरें मथती रहती है
अनवरत,
मंथन से प्राप्त 
विष-अमृत के घटो का
विश्लेषण करता
जीवन नौका पर सवार 
'उम्र'...
सीमाहीन मन 
शापग्रस्त देह लिए...
नाव के पाल पर बैठे
अनजान पक्षी की 
भाषा में उलझकर
अक़्सर भटक जाती है 
मंजिल से 
भूलकर यात्रा का उद्देश्य।
----
जन्म-मरण के
प्राकृतिक चक्र की
सरल परिभाषा को
जोड़ती
काल्पनिक, अदृश्य रेखा
उम्र के हर घुमाव पर
गहरी होती जाती है।
----
उम्र का हर पड़ाव
पहाड़ की पगडंडी सा
प्रतीत होता है
जिनके डंठल में
उगे उमंग से भरे
 नन्हें गाँव के
 आकर्षण में
 यात्रा की दुरूहताओं 
 को पथिक स्वीकारता है।
------
जीवनभर की
यात्राओं में 
चलता रहता है,
समय की गंधहीन 
आँच में तपकर निरंतर
बदलता रहता है 
देह का मौसम
किंतु 
उम्र अटकी रह जाती है
कभी किसी 
बसंत में खिले
पलाश की टहनियों पर।
-----////----

#श्वेता सिन्हा
१८ मार्च २०२१


 

18 comments:

  1. अत्यंत भावपूर्ण अभिव्यक्ति है यह आपकी श्वेता जी । कितनी सच्ची बात है यह कि देह का मौसम बदलता रहता है किंतु आयु का कोई छोर अतीत की किसी मधुर स्मृति में अटका ही रह जाता है !

    ReplyDelete
  2. देह का मौसम
    किंतु
    उम्र अटकी रह जाती है
    कभी किसी
    बसंत में खिले
    पलाश की टहनियों पर।
    बहुत सुंदर और भावपूर्ण ,उम्र के विभिन्न पड़ावों की सरल सहज अभिव्यक्ति को सहेजती अर्थ पूर्ण रचना प्रिय श्वेता। उम्र एक ऐसा सफर है जिसके परिणाम और पड़ाव बहुधा अप्रत्याशित होते हैं, फिर भी कुछ तो ऐसा हो जाता है कभी कभी जब आत्मा देह के नहीं मन के मधुमास को संजोये जीवन व्यतीत कर देती है। लाजवाब चिंतनपरक सृजन के लिए बधाई और शुभकामनाएं ❤❤🌹🌹

    ReplyDelete
  3. विचारों के सिंद्धु से एक नायब मोती लायी हो ..बेहतरीन रचना . जीवन कि पूरी यात्राओं में आंच पर तपी देह का मौसम , निरंतर आगे बढ़ते कदम फिर भी भूल ही जाते कि गंतव्य क्या है ...

    तुम्हारी ही रचना से उपजे मन के कुछ भाव ---कहाँ तक कह पाई हूँ नहीं पता ... तुम ही बता देना ....

    सोचों का विशाल समंदर 
    करता रहता मंथन 
    अपनी ही लहरों के 
    आने जाने से
    उम्र की देह का मौसम 
    बदलता रहता
    नित नए अफसाने से 
    अक्सर ही नहीं होता पता
    कि आखिर
    क्या उद्देश्य है
    इस यात्रा का 
    फिर भी चढ़ते रहते हैं 
    मार्ग पहाड़ का । 
    निष्फल नहीं होते
    यूँ अनजाने सफर भी । 
    और न ही मौसम 
    हर बार रहता है खुशगवार 
    फिर भी न जाने क्यों 
    मन में रह जाता है 
    टेसू का प्यार । 

    (संगीता दीदी )

    ReplyDelete
  4. अंतिम पंक्तियाँ लाजवाब हैं।

    ReplyDelete
  5. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 19 मार्च 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    ReplyDelete
  6. सादर नमस्कार।

    कृपया १९ को २० पढ़े।

    ReplyDelete
  7. "उम्र अटकी रह जाती है" नामक इस अमूल्य और अतुल्य अपनी "सर्वाधिकार सुरक्षित" रचना में बहुत ही सुन्दर और गूढ़ शब्द-चित्र वाले बिम्बों को गढ़ा है आपने।
    वैसे तो इसकी सारी सकारात्मकताओं के लिए सभी गुणीजनों ने पहले ही प्रतिक्रिया स्वरुप बहुत कुछ कह ही दिया है, परन्तु एक वाक्यांश "शापग्रस्त देह लिए..." कुछ हद तक ऋणात्मकता भरा लगा मुझे। गलत भी हो सकती है मेरी सोच/बात।
    तत्काल तो अपनी बात/सोच के समर्थन में गोपालदास "नीरज" जी का आलम्बन ले रहा हूँ -
    "बड़े जतन के बाद रे ! मिले मनुज की देह
    इसको गन्दा कर नहीं, है ये प्रभु का गेह।"
    आप तो आस्तिक हैं भी, फिर "प्रभु का गेह" शापग्रस्त कैसे हो सकता है भला ? दूसरी तरफ उन्होंने ये भी कहा है कि -
    "तन तो एक सराय है, आत्मा है मेहमान
    तन को अपना मानकर, मोह न कर नादान।"
    सराय माना है, जो सच भी है, पर फिर भी शापग्रस्त नहीं माना है। तन /देह है तभी आत्मा है, मन है, रचना भी। अगर देह शापग्रस्त होगा तो उसमें निवास करने वाली आत्मा भी और मन भी, पनपने वाले विचार भी बोझ महसूस होंगें .. शायद ...
    चलते-चलते अगर बुरा ना लगे तो "नीरज" जी के हवाले से एक और हँसुआ के बिआह में खुरपी के गीत गाता चलूँ कि उन्हीं के कहे अनुसार कई रचनाकार लोग कई मंचों पर उनकी दो पंक्तियाँ दुहराते हुए अपनी गर्दन अकड़ाते हैं कि
    " आत्माके सौंदर्य का शब्द रूप है काव्य, 
    मानव होना भाग्य है कवि होना सौभाग्य।"
    भले ही वो गर्दन अकड़ाने वाले रचनाकार निजी या सार्वजनिक जीवन में नीच कर्मों को करते हुए बेशर्मी की हर हदें पार कर जाते हों। फ़िलहाल आप सकारात्मक सोचिए भी , कहिए भी .. बस यूँ ही ...

    ReplyDelete
  8. देह का मौसम
    किंतु
    उम्र अटकी रह जाती है
    कभी किसी
    बसंत में खिले
    पलाश की टहनियों पर।
    श्वेता दी, उम्र के विभिन्न पड़ावो का बहुत ही खूबसूरती से वर्णन किया है आपने।

    ReplyDelete
  9. वाह...बहुत सुन्दर रचना!

    ReplyDelete
  10. दर्शन,मनन और चिंतन आध्यात्म सा सृजन श्वेता बहुत गहन मंथन करती आपकी एक एक पंक्ति ।
    कर्म बंधन स्वरूप ही मानव देह मिलती है उस को पाकर अगर सही दिशा को चुनकर चलें तो सभी कुछ सकारात्मक हो सकता है,अप्रत मोहनीय कर्मों से छुटकारा ही सिद्धत्व की सीढ़ी है।
    अप्रतिम सृजन।
    सस्नेह।

    ReplyDelete
  11. उम्र का हर पड़ाव
    पहाड़ की पगडंडी सा
    प्रतीत होता है
    जिनके डंठल में
    उगे उमंग से भरे
    नन्हें गाँव के
    आकर्षण में
    यात्रा की दुरूहताओं
    को पथिक स्वीकारता है।
    ------
    जीवनभर की
    यात्राओं में
    चलता रहता है,
    समय की गंधहीन
    आँच में तपकर निरंतर
    बदलता रहता है
    देह का मौसम
    किंतु
    उम्र अटकी रह जाती है
    कभी किसी
    बसंत में खिले
    पलाश की टहनियों पर
    उत्कृष्ट रचना, सबने सही कहा गहन मंथन करती हुई एक एक पंक्ति है, मन को भा गई श्वेता जी आपकी ये रचना, ढेरों बधाई हो

    ReplyDelete
  12. आपकी लिखी कोई रचना सोमवार 22 मार्च 2021 को साझा की गई है ,
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    ReplyDelete
  13. बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना

    ReplyDelete
  14. उम्र का हर पड़ाव
    पहाड़ की पगडंडी सा
    प्रतीत होता है
    जिनके डंठल में
    उगे उमंग से भरे
    नन्हें गाँव के
    आकर्षण में
    यात्रा की दुरूहताओं
    को पथिक स्वीकारता है।----बहुत गहरी रचना और बहुत गहरा मंथन है...बधाई श्वेता जी।

    ReplyDelete
  15. वाह, बहुत सुंदर

    ReplyDelete
  16. गजब की अभिव्यक्ति है प्रिय श्वेता । सुबोध जी, संगीता दी और रेणु बहन ने बहुत अच्छी समीक्षा की है रचना की, जिसके लिए वे भी बधाई के पात्र हैं।
    सस्नेह।

    ReplyDelete
  17. जीवन दर्शन एवम गूढ़ चिंतन से परिपूर्ण रचना ।

    ReplyDelete
  18. कमाल का सृजन श्वेता जी!
    बहुत ही लाजवाब चिन्तनपरक।

    ReplyDelete

आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।