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Thursday, 24 March 2022

अल्पसंख्यक



विश्व के इतिहास में दर्ज़
अनगिनत सभ्यताओं में
भीड़ की धक्का-मुक्की से अलग होकर
अपनी नागरिकता की फटी प्रतियाँ लिए
देशों,महादेशों,
समय के मध्यांतर में 
 देश-देशान्तर की
सीमाओं के बाहर-भीतर
अपनी उपस्थिति नामांकित करवाने के लिए
संघर्षरत 
सामाजिक खाँचों में अँटने 
की कोशिश करते
अनेक-अनदेखे कारणों से 
लगभग एक-सी कहानियों
के पात्र हैं अल्पसंख्यक।

अपने ही देश में,
अपने गाँव में
बहरूपियों के झाँसे में 
विश्वास की चट्टानों के
खिसकने से स्थान बदलती
अंर्तमन की प्लेटों से उत्पन्न
भूकंप और सुनामी में रक्तरंजित 
अपनों की आतंकित चीख़ें
अपने घर,माटी छोड़ने को करती है विवश 
झुंड के झुंड लोग बन जाते हैं
बहुसंख्यक से अल्पसंख्यक।

 अल्पसंख्यक- बहुसंख्यक की
गुणात्मक मात्राओं के मान के भार से दबे
मानवीय संवेदनाओं के 
अनुत्तरित प्रश्नों को भूलभुलैया के 
विवादास्पद संग्रहालय में
रखा गया है
जिसे परिस्थितियों के अनुसार
प्रदर्शनी में लगाकर
संवेदनाओं का
व्यापार किया जाता रहा है...।

सोचती हूँ....
क्यों नहीं सुनी जाती
दर्द में डूबी चीखें?
अनसुनी प्रार्थानाओं का कर्ज़ 
चढ़ता ही रहता है,
जीवन की भीख माँगती मृत्यु
अपराधी लगती है
किसी के अस्तित्व को रौंदकर
धारण किया गया विजय का मुकुट 
क्या शांति और सुख देता है ?
किसी धर्म, जाति ,समुदाय की छाती पर
अपने वर्चस्व का कील ठोंकने के क्रम में 
बहती रक्त की नदियों के तटपर
स्थापित करने को कटिबद्ध अपना 
एकछत्र साम्राज्य,
क्या सचमुच
कुछ हासिल होगा विश्व विजेता बनकर?
शायद एक बार
तुम्हें करना चाहिए
सिकंदर की आत्मा का
साक्षात्कार। 


-श्वेता सिन्हा
२४ मार्च २०२२

13 comments:

  1. प्रिय श्वेता, सत्ता और शक्ति में आकन्ठ डूबे, गर्वोन्मत नराधमों को आईना दिखाती ये रचना अस्थिर कुटिल समय का आरपार दृश्य उपस्थित करती है।जिसमें अभिमान और स्वाभिमान के दो पाषाण पाटों के बीच में पिसती निर्दोष और निरीह जनता की चीखें हैं ।अपनों को खोने की असह्य वेदना है तो मातृभूमि से पलायन के बाद दूसरोँ की कृपा पर जिन्दा रहने की मर्मांतक पीड़ा है।सच में किसी को भी जीवन की क्षणभंगुरता का तनिक भी एहसास नहीं। फिर भी विश्व विजय का सपना आँखों में लिए,सत्ता के मद में चूर लोग छ्ल-बल से मौत का नंगा खेल खेल रहे हैं।सच में,काश!ये चलन होता तो विश्व विजेता सिकंदर की आत्मा से साक्षात्कार कर वे जान पाते, विश्व की विजय के बाद भी संसार छोड़ते समय इन्सान खाली हाथ ही यहाँ से जाता है।आजकल युद्ध की भयावह त्रासदी की तस्वीरों और समाचारों से समस्त ब्रहमांड गुंजायमान है।जिन्हेँ देख-सुन कर संवेदनशील मन विचलित हुये जा रहे।एक कवि मन ही इतनी गहराई से इस पीड़ा की थाह पा सकता है।निशब्द हूँ,तुम्हारी रचना के लिए सराहना के लिए शब्द नहीं सूझ रहे।फिर भी साधुवाद इस मार्मिक अभिव्यक्ति के लिए ❤❤

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    1. प्रिय दी,
      मेरी रचना का मर्म स्पष्ट करती, सटीक विश्लेषण करती आपकी प्रतिक्रिया से लेखनी को संबंल मिला।
      दी धर्म और राजनीतिक स्वार्थ की बलिवेदी पर रक्त रंजित इंसानियत की दुर्गति देख सुनकर मन व्यथित है बहुत।
      स्नेह बना रहे आपका।
      प्रणाम दी
      सादर।

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  2. मर्मांतक प्रश्न के साथ लाजवाब पँक्तियाँ 👌👌👌👌

    किसी के अस्तित्व को रौंदकर
    धारण किया गया विजय का मुकुट
    क्या शांति और सुख देता है ?
    किसी धर्म, जाति ,समुदाय की छाती पर
    अपने वर्चस्व का कील ठोंकने के क्रम में
    बहती रक्त की नदियों के तटपर
    स्थापित करने को कटिबद्ध अपना
    एकछत्र साम्राज्य,
    क्या सचमुच
    कुछ हासिल होगा विश्व विजेता बनकर?
    शायद एक बार
    तुम्हें करना चाहिए
    सिकंदर की आत्मा का
    साक्षात्कार।
    😐😐🤔

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  3. इन सवालों का हल शायद किसी के पास नहीं है, कटु मगर सत्य, जीवन कितना बेबस हो जाता है इस अन्याय और बेवजह की हिंसा के कारण, मार्मिक रचना!

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    1. बिल्कुल सही कहा आपने अनीता जी बेबस इंसान की कमजोरी का फायदा उठाने का हुनर ही अनेक समस्याओं का मूल है।
      स्नेह के लिए आभार आपका।
      सादर।

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  4. स्वेता दी,काश,आज इंसान सचमुच सिकन्दर की आत्मा से साक्षात्कार कर पाता। लेकिन दी ये भी सच है कि हर इंसान को पता है कि उसे जाना खाली हाथ ही है। फिर भी जीते जी व्व ये बात जानते हुए भी अनजान बन विश्व विजेता बनने के चक्कर मे कितने मासूमो के खून से अपने हाथ रंग लेता है।
    युद्ध की जो तस्वीरे टी बी दिखती है वो देख कर मन विचलीत हो जाता है। काश, हम इन विश्व आकाओं को कुछ समझा पाते। लाखों लोगों के आंसुओं से शायद इनके दिल पसीजते! लेकिन हम और आप आम जनता कर ही क्या सकती है?
    बहुत ही सुंदर रचना दी।

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  5. देश और दुनिया के हालातों का वर्णन या चित्रण तो आजकल हर दूसरी रचना में पढ़ने को मिल रहा है लेकिन आपकी इस अभिव्यक्ति की एक एक पंक्ति मनन चिंतन करने योग्य है। रचना को सिर्फ सुंदर नहीं कहूँगी, बस अद्भुत लेखन है आपका प्रिय श्वेता !
    अल्पसंख्यक- बहुसंख्यक की
    गुणात्मक मात्राओं के मान के भार से दबे
    मानवीय संवेदनाओं के
    अनुत्तरित प्रश्नों को भूलभुलैया के
    विवादास्पद संग्रहालय में
    रखा गया है
    जिसे परिस्थितियों के अनुसार
    प्रदर्शनी में लगाकर
    संवेदनाओं का
    व्यापार किया जाता रहा है...।

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  6. बहुत खूब, विचारोत्तेजक रचना। राधे राधे

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  7. शायद एक बार
    तुम्हें करना चाहिए
    सिकंदर की आत्मा का
    साक्षात्कार।

    शायद सिकंदर और हिटलर की आत्मा से साक्षात्कार भी हो जाये फिर भी कौन सुनेगा। जब सर पर अहम का राक्षस सवार होता है तब तो रावण जैसे ज्ञानी भी मूढ़ बन जाता है। मार्मिक अभिव्यक्ति श्वेता जी,सादर नमन

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  8. बहुत ही गूढ़ विश्लेषणात्मक अभिव्यक्ति ।
    सामयिक और यथार्थ के गहन चिंतन के उपरांत निकली रचना बहुत ही उत्कृष्ट और सराहनीय है ।
    शुभकामनाएं श्वेता जी ।

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  9. लाजबाब सृजन

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  10. संवेदनाओं के व्यापार की प्रदर्शनी...
    काश करते ये सिकंदर की आत्मा से साक्षात्कार
    बहुत ही विचारणीय एवं चिंतनपरक सृजन
    अद्भुत एवं लाजवाब।

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  11. सत्ता पाइ काह मद नाहीं. मद दूसरों का दमन करता ही है. शोषक और शोषितों का अस्तित्व शुरु से ही चला आ रहा है. मानव ही नही हर प्राणी वर्ग में. इसके पीछे किसी की शक्ति ही दूसरे की कमज़ोरियाँ भी हैं. खैर..
    बहुत सार्थक और मार्मिक अभिव्यक्ति है.. बधाई.

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।