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Friday, 22 April 2022

पृथ्वी का दुःख



वृक्ष की फुनगी से
टुकुर-टुकुर पृथ्वी निहारती
चिड़िया चिंतित है
कटे वृक्षों के लिए...।
 
धूप से बदरंग 
बाग में बेचैन,उदास तितली 
चितिंत है 
फूलों के लिए...।

पहाड़ के गर्व से अकड़े
कठोर मस्तक
चिंतित हैं
विकास के बूटों की
कर्कश पदचापों से...।

सोंधी खुशबू नभ से
टपकने की
बाट जोहती साँवली माटी 
चिंतित है
शहरीकरण के 
निर्मम अट्टहासों से...।

शाम ढले
नभ की खिड़की से
अंधेरे के रहस्यों को 
घूँट-घूँट पीता चाँद
चिंतित है
 तारों की मद्धिम होती
टिमटिमाहटों से...।

बादलों से बनी
चित्रकारी देखकर
उछल-उछल के नाचता
सुर-ताल में गुनगुनाता समुंदर
चिंतित है
नदियों के अव्यवहारिक
प्रवाहों से...।

पृथ्वी सोच रही है...,
किसी दीवार पर
मौका पाते ही पसरे
ढीठ पीपल की तरह,
खोखला करता नींव को,
बेशर्मी से खींसे निपोरता, 
क्यों नहीं है चिंतित मनुष्य
अपने क्रियाकलापों से ...?

मनुष्यों के स्वार्थपरता से
चिंतित ,त्रस्त, प्रकृति के
प्रति निष्ठुर व्यवहार  से आहत
विलाप करती
पृथ्वी का दुःख
 सृष्टि में
प्रलय का संकेत है।

-श्वेता सिन्हा


12 comments:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(२३-०४ -२०२२ ) को
    'पृथ्वी दिवस'(चर्चा अंक-४४०९)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. प्रिय श्वेता,धरती के मन की बात एक संवेदनशील हृदय ही समझ सकता है।एक चिंतनपरक रचना जो धरा के अन्तस का प्रलाप है ,जिसे उसकी संतति माँ कह पुकारती है और दिन-रात अपने स्वार्थ के हथियार से उसका सीना भी छलनी किये दे रही है।बहुत सटीक विश्लेषण कर शब्दों में ढाला है तुमने धरती माँ की पीड़ा को।धरती का मूल स्वरुप,पहाडों का सौन्दर्य और वनस्पति का स्नेहिल प्रश्रय,सब मिटने को तैयार हैं।ये संभवतः प्रलय की ही आहट है। आखिर अनावश्यक दोहन और खुद से खिलवाड़ कैसे और कब तक सहे ये संतप्त धरा!
    तुम्हारी रचना ने सब कह दिया।तितली की व्यथा,चिडिया की मायूसी और पेड़ों की चिन्ता।पर कहीं नज़र नहीं आती स्वार्थी मानुष की दूरदर्शिता भरी दृष्टि,जिसके माध्यम से वह भविष्य की विनाशलीला को देख सके।सस्नेह ❤

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  3. वाह!प्रिय श्वेता ,बहुत खूब ।काश , माँ धरती की पीडा को समझे लोग ......।

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  5. "क्यों नहीं है चिंतित मनुष्य
    अपने क्रियाकलापों से ...?"

    गंभीर प्रश्न,यदि "पृथ्वी दिवस" को सच्चे दल से मनाना है तो एक संकल्प सभी को करना होगा "एक पौधा अपने नाम का उसे देना होगा" जैसे बच्चे के जन्म दिन के दिन पर हम केक काटते है। बहुत ही सुंदर विचारणीय सृजन आदरणीय श्वेता जी,सादर नमन आपको

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  6. सुन्दर सराहनीय रचना

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  7. मनुष्यों के स्वार्थपरता से
    चिंतित ,त्रस्त, प्रकृति के
    प्रति निष्ठुर व्यवहार से आहत
    विलाप करती
    पृथ्वी का दुःख
    सृष्टि में
    प्रलय का संकेत है।
    पृथ्वी का दुख सृष्टि का प्रलय !!
    सृष्टि का कण कण मनुष्य के विनाशकारी व्यवहार से चिंतित है सृष्टि पर उपस्थित प्राणिमात्र प्रलय की आहट से चिंतित है परन्तु मनुष्य को अपनी करनी का पछतावा भी नहीं सृष्टि के प्रलय की आहटों को अनदेखी और अनसुना करता मानव स्वयं चिंता का विषय बना हुआ है ।बहुत ही चिंतनपरक लाजवाब सृजन।

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  8. मनुष्यों के स्वार्थपरता से
    चिंतित ,त्रस्त, प्रकृति के
    प्रति निष्ठुर व्यवहार से आहत
    विलाप करती
    पृथ्वी का दुःख
    सृष्टि में
    प्रलय का संकेत है।
    ... इस सृष्टि का विनाश प्रकृति के हर रूप से परिलक्षित हो रहा है,परंतु मनुष्य अपनी आंखें खोलना ही नहीं चाहता । वह तो अपनी अनुकूल प्रतिकूल लिप्सा में व्यस्त है, स्वार्थपूर्ति के लिए किसी हद तक जाने वाला इंसान किसी भी प्रलय से सबक नहीं लेना चाहता ।
    पृथ्वी दिवस पर बहुत ही सार्थक रचना । बधाई प्रिय श्वेता जी ।
    आपके लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।

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  9. वाह कितनी सार्थक सामयिक और सुन्दर रचना. मेरे ब्लाग पर आपके आने का लाभ यह हुआ कि आपकी रचना पढ़ सकी.

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  10. बेहतरीन रचना।

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।