Pages

Wednesday, 1 January 2025

आकांक्षा


नन्हीं-नन्हीं आकांक्षाओं की

गठरी सहेजे, 

आने वाली तिथियों के 

किवाड़ की झिर्रियों के पार

उत्सुकता से झाँकने का प्रयास,

नयी तिथियों की पाँव की रूनझुन 

उछाह और उमंग से भरकर

ताज़ा लाल गुलाब की 

नशीली खुशबू-सी 

मन के परों के अवगुठंन खोल देती है।


उड़ते मन की एक आकांक्षा 

नदियों, पहाड़ों,आकाश,बादल,

आकाशगंगा,नक्षत्रों, ग्रहों,

जंगलों,फूलों, तितलियों

कछुओं और मछलियों समेत

समूची प्रकृति की मौन की भाषा

समझ न पाने से विकल

ओस की बूँदों को छू-छूकर 

विलाप करने लगती है।


मन की कुछ आकांक्षाएँ

अपनी नाज़ुक हथेलियों से

काल के नीरनिधि पर

संसार का सबसे ख़ूबसूरत सेतु

बनाना चाहती है;

मानवता से मनुष्यता की,

जिसकी छाया में छल-प्रपंच,

द्वेष-ईष्या, घृणा-क्रोध,लोभ-मोह,

सृष्टि की समस्त कलुषिता भस्म हो जाए

किंतु;

हवा के पन्नों पर लिए लिखी इबारत 

आँधियों में तिनका-तिनका 

बिखर जाती है।


समय की कैंची

कुशलता से निःशब्द

निरंतर काट रही है

पलों की महीन लच्छियों को

जीवन के दिवस,मास,

बरस पे बरस स्मृतियों में बदल रहे हैं

और अब... 

अधूरी,अनगढ़ थकी

आकांक्षाओं का बोझ 

उतारकर 

आने वाले पलों से बे-ख़बर

मैं एक तितली के स्वप्न में 

पुष्प बनकर अडोल पड़ी रहना चाहती हूँ।

---------

-श्वेता

१ जनवरी २०२५

11 comments:

  1. Replies
    1. जी, आभारी हूँ प्रणाम सर। आपका आशीर्वाद मिलता रहे।

      Delete
  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 02 जनवरी 2025 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

    ReplyDelete
  3. आने वाले पलों से बे-ख़बर
    मैं एक तितली के स्वप्न में
    पुष्प बनकर अडोल पड़ी रहना चाहती हूँ।
    बहुत खूबसूरत रचना.

    ReplyDelete
  4. नववर्ष की शुभकामनाएँ प्रिय श्वेता

    ReplyDelete
  5. नव वर्ष की हार्द‍िक शुभकामनायें श्वेता जी

    ReplyDelete
  6. मन की कुछ आकांक्षाएँ
    अपनी नाज़ुक हथेलियों से
    काल के नीरनिधि पर
    संसार का सबसे ख़ूबसूरत सेतु
    बनाना चाहती है;
    वाह ! अति सुन्दर !
    नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ श्वेता जी !

    ReplyDelete
  7. मन अनंत से कम कुछ भी नहीं चाहता पर अपनी सीमा में बंधा रहकर, यही तो विडंबना है जो आपकी रचना में मुखर हो रही है

    ReplyDelete
  8. सुन्दर सृजन

    ReplyDelete
  9. जीवन के दिवस,मास,

    बरस पे बरस स्मृतियों में बदल रहे हैं

    और अब...

    अधूरी,अनगढ़ थकी

    आकांक्षाओं का बोझ

    उतारकर

    आने वाले पलों से बे-ख़बर

    मैं एक तितली के स्वप्न में

    पुष्प बनकर अडोल पड़ी रहना चाहती हूँ।
    वाह!!!
    बहुत ही सुंदर लाजवाब सृजन


    ReplyDelete
  10. ये कविता पढ़कर लगा जैसे किसी ने मन की गहराई से सारी आकांक्षाएँ शब्दों में ढाल दी हों। नन्हीं-नन्हीं उम्मीदों का बोझ, उनका टूटना-बिखरना और फिर भी सपनों का पलना, ये सब एकदम जीवंत चित्र की तरह सामने आ गया। मुझे खास तौर पर वो हिस्सा छू गया जहाँ तुमने मानवता और मनुष्यता के बीच पुल बनाने की बात कही, सच में यही सबसे बड़ी ज़रूरत है।

    ReplyDelete

आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।