थोड़ी इंसानियत तो आदमी में रहने दो।
पत्थर नहीं हो रौ जज़्बात की बहने दो।।
बे-हाल लहूलुहान है वो शहर आजकल,
बे-नाम सड़कों पे दरिया मरहम का बहने दो।
जज़्ब कहाँ हो पाते हैं आँखों के समुंदर,
अश्क में भीगे सपने दहते हैं तो दहने दो ।
काग़ज़ के कुछ फूल लगाके खिड़की पे,
बहारों के ग़म ख़ामोशी से सहने दो।
बहुत मायूस है दिल-ए- नादां समझाऊँ कैसे,
आओ न बैठो पहलू में दर्द ज़रा-सा कहने दो।
रोज़ कहती हूँ ज़िंदगी से बे-ज़ार रूह को,
कुछ दिन और जिस्म के पिंजर में रहने दो।
------------------------
✍️श्वेता
१२ जुलाई २०२५
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में सोमवार 14 जुलाई 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
ReplyDeleteवाह!! बेहद उम्दा ग़ज़ल! ज़िंदगी में जज़्बात ना हीन तो कितना रूखी-सूखी हो जाती है, दिमाग़ से दिल का रास्ता यूँ तो छोटा सा है पर वहाँ पहुँचने में अक्सर बहुत देर हो जाती है
ReplyDeleteवाह ! प्रत्येक शेर में उम्दा सोच .., नायाब सृजन । बेहतरीन ग़ज़ल श्वेता जी ! स्नेहिल नमस्कार !
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रिय श्वेता! सभी शेर समय की नब्ज पकड़ कर लिखे गए हैं! सभी सार्थक हैं और मोहक हैं!
ReplyDeleteबहुत दिन बाद तुम्हारी इस मिजाज की रचना से मन खुश हो गया! मेरी ढेरों शुभकामनायें और प्यार ❤️
सुन्दर पंक्तियाँ
ReplyDeleteबे-हाल लहूलुहान है वो शहर आजकल,
ReplyDeleteबे-नाम सड़कों पे दरिया मरहम का बहने दो।
.... बहुत खूब,,,
आजकल हर कोई बस चल रहा है, रुककर किसी की आंखों में झाँकने की फुर्सत ही नहीं है। और जो आपने कहा “काग़ज़ के फूल लगाके खिड़की पे, बहारों के ग़म ख़ामोशी से सहने दो”, भाईसाब, क्या बात है। कितनी ख़ूबसूरती से आपने तन्हाई और उम्मीद को एक फ्रेम में रख दिया।
ReplyDeleteवर्तमान समय की नज़ाकत को पहचानती बेहद उम्दा गज़ल
ReplyDeleteबधाई
बहुत ही उम्दा गजल प्रिय श्वेता !
ReplyDeleteबेनाम सडकों पर दरिया मरहम का बहने दो ..वाह !क्या बात है!