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Wednesday, 12 March 2025

बचाना अपने भीतर


सरक रहे हैं

तनों की सुडौल देह से

पातों के उत्तरीय,

टहनियों की नाजुक 

कलाइयों से 

टूटकर बिखर रही हैं 

खनकती हरी चुड़ियाँ।


निर्वस्त्र हुए वृक्षों पर

पक्षियों के रहस्य और

हैं धमनियों के जाल;


टूटे,झरे,निराशा के ठूँठ पर

नन्हीं,कोमल,आशाओं से भरी

पत्ती मुस्कुराती है;

नारंगी भोर कुलाचें भरकर

टहक सांझ में बदल जाती है।


सुनो...

जीवन है पतझड़ और बसंत 

कभी लगे अंत तो कभी अनंत

ऋतुओं के दंश से घबराकर

जड़ न होकर

जड़ बन जाना

हर मौसम से बे-असर रह जाना

पतझड़ में धैर्य रखकर;

वसंत और बरखा को बचाना अपने भीतर

इस संसार को सुंदर,जीवंत और 

नम बनाए रखने के लिए...। 

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-श्वेता
१२ मार्च २०२५