मन के पाखी
*हिंदी कविता* अंतर्मन के उद्वेलित विचारों का भावांकन। ©श्वेता सिन्हा
Pages
(Move to ...)
Home
प्रकृति की कविताएं
दार्शनिकता
छंदयुक्त कविताएँ
प्रेम कविताएँ
स्त्री विमर्श
सामाजिक कविता
▼
Wednesday, 5 September 2018
शिक्षक
›
नित नन्हे माटी के दीपक गढ़ते, नव अंकुरित भविष्य के रक्षक हैं । सपनों में इंद्रधनुषी रंग भरने वाले, अद्वितीय चित्रकार शिक्षक हैं। ...
28 comments:
Saturday, 1 September 2018
स्वर खो देती हूँ
›
पग-पग के अवरोधों से मैं घबराकर रो देती हूँ झंझावातों से डर-डरकर समय बहुमूल्य खो देती हूँ संसृति की मायावी भँवरों में सुख-दु...
14 comments:
Thursday, 30 August 2018
जागृति
›
असहमति और विरोध पर, एकतरफ़ा फ़रमान ज़ारी है। हलक़ से ख़ींच ज़ुबान काटेंगे, बहुरुपियों के हाथ में आरी है। कोई नहीं वंचित और पीड़ित! ...
13 comments:
Friday, 24 August 2018
अनछुआ मन
›
जीवन-यात्रा में बूँद भर तृप्ति की चाह लिये रेगिस्तान-सी मरीचिका में भटकता है मन, छटपटाहटाता व्याकुल गर्म रेत के अंगारें को...
19 comments:
Saturday, 18 August 2018
भावों का ज्वार
›
गहराती , ढलती शाम और ये तन्हाई बादलों से चू कर नमी पलकों में भर आई। गीला मौसम, गीला आँगन, गीला मन मतवारा संझा-बाती,...
18 comments:
Tuesday, 14 August 2018
आज़ादी
›
अभी मैं कैसे जश्न मनाऊँ,कहाँ आज़ादी पूरी है, शब्द स्वप्न है बड़ा सुखद, सच को जीना मजबूरी है। आज़ादी यह बेशकीमती, भेंट किया हमें वीरों ने...
22 comments:
Sunday, 12 August 2018
दृग है आज सजल
›
मौन हृदय की घाटी में दिवा सांझ की पाटी में बेकल मन बौराया तुम बिन पल-पल दृग है आज सजल मन के भावों को भींचता पग पीव छालों क...
43 comments:
Wednesday, 8 August 2018
अजीर्णता नदियों की
›
देखते-देखते जलधारा ने लिया रुप विकराल लील गयी पग-पग धरती का जकड़ा काल कराल तट की चट्टानों से टकरा विदीर्ण जीवन पोत हुआ...
20 comments:
‹
›
Home
View web version