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Friday, 17 March 2017

एक नया सवेरा


नीले समन्दर में सूरज का डेरा
फिर हो गया है हसींं इक सवेरा

बुझ गया चंदा बुझ गये दीपक
रात तक रुक गया ख़्वाबों का फेरा

मोड़कर सिरहाने लिहाफोंं के नीचे
छुप गया साँझ तक तन्हाई का लुटेरा

पोटली उम्मीद की बाँध चले घर से
लेकर के लौटेगे खुशियों कटोरा

यही ज़िंंदगानी है दो चार दिन की
कुछ टूटते नये बनते सपनों का बसेरा।


        #श्वेता

3 comments:

  1. ओहहहो आभार दी मेरी पुरानी रचना शेयर करने के लिए आभारी हूँ दी।
    बहुत शुक्रिया।

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  2. लाजवाब बस लाजवाब और शब्द नहीं है मेरे पास ।
    अनुपम।

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  3. मधुर रचना प्रिय श्वेता।कहाँ से आते हैं ये सुन्दर भाव???

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।