Pages

Monday, 24 April 2017

गुम होता बचपन

ज़िदगी की शोर में
गुम मासूमियत
बहुत ढ़ूँढ़ा पर
गलियों, मैदानों में
नज़र नहीं आयी,
अल्हड़ अदाएँ,
खिलखिलाती हंसी
जाने किस मोड़ पे
हाथ छोड़ गयी,
शरारतें वो बदमाशियाँ
जाने कहाँ मुँह मोड़ गयी,
सतरंगी ख्वाब आँखों के,
आईने की परछाईयाँ,
अज़नबी सी हो गयी,
जो खुशबू बिखेरते थे,
उड़ते तितलियों के परों पे,
सारा जहां पा जाते थे,
नन्हें नन्हें सपने,
जो रोते रोते मुस्कुराते थे,
बंद कमरों के ऊँची
चारदीवारी में कैद,
हसरतों और आशाओं का
बोझा लादे हुए,
बस भागे जा रहे है,
अंधाधुंध, सरपट
ज़िदगी की दौड़ में
शामिल होती मासूमियत,
सबको आसमां छूने की
जल्दबाजी है।

          #श्वेता🍁

8 comments:

  1. हसरतों और आशाओं का
    बोझा लादे हुए,
    बस भागे जा रहे है,
    अंधाधुंध, सरपट
    ज़िदगी की दौड़ में.....

    सुंदर रचना।।।।👌👌👌

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत आभार शुक्रिया आपका P.K ji

      Delete
  2. समय की रफ़्तार ने जिंदगी को लील लिया है ...
    गहरे भाव ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी आभार दिगंबर जी

      Delete
  3. ...उफ़...खूबसूरत प्रस्तुति

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी बहुत शुक्रिया आभार संजय जी मेरी इतनी सारी रचनाएँ पढ़ने के लिए।

      Delete
  4. #श्वेता जी आपकी इस रचना को कविता मंच ब्लॉग पर साँझा किया गया है

    संजय भास्कर
    http://kavita-manch.blogspot.in

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत आभार संजय जी...आपके मान के लिए शुक्रिया आपका हृदय से।।

      Delete

आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।