मन सिंधु को मथकर
जो शब्द के
मोती बाहर आते है
रचकर सादे पन्नों पर
इन्द्रधनुष बन जाते है
मंथन अविराम निरंतर
भावों की लहरे
हर गति से लहराती है
उछलती है वेग से
खुशियों के पूरणमासी को
कभी तट को बिना छुये ही
मौन उदास लौटकर
वापस जाती है
भावों के ज्वार समेटे
अनगिनत विचारों की
गंगा जमना और प्रदूषित धाराएँ
पीकर भी सिंधु
तटबंधों का उल्लंघन नहीं करता
अथाह खारे जलराशि को लिए
कर्म पथ पर अग्रसर है
विचारों की लेखनी थामें
अंतर में निहित मानिक मूँगे
भाव लहर में मचलते है तो
कोई कोई ही पाता है
पर ऐसा नहीं कि
सिंधु की पीड़ा
दूजा समझ नहीं पाता है
तो क्या जिनके हाथ रीते हो
रत्न भंडारों से
कुछ सीपियाँ और शंख
किसी ने मुट्ठी भर रेत ही पायी हो
उन विचारों की लहरों का
आना जााना निरर्थक है??
#श्वेता🍁
जो शब्द के
मोती बाहर आते है
रचकर सादे पन्नों पर
इन्द्रधनुष बन जाते है
मंथन अविराम निरंतर
भावों की लहरे
हर गति से लहराती है
उछलती है वेग से
खुशियों के पूरणमासी को
कभी तट को बिना छुये ही
मौन उदास लौटकर
वापस जाती है
भावों के ज्वार समेटे
अनगिनत विचारों की
गंगा जमना और प्रदूषित धाराएँ
पीकर भी सिंधु
तटबंधों का उल्लंघन नहीं करता
अथाह खारे जलराशि को लिए
कर्म पथ पर अग्रसर है
विचारों की लेखनी थामें
अंतर में निहित मानिक मूँगे
भाव लहर में मचलते है तो
कोई कोई ही पाता है
पर ऐसा नहीं कि
सिंधु की पीड़ा
दूजा समझ नहीं पाता है
तो क्या जिनके हाथ रीते हो
रत्न भंडारों से
कुछ सीपियाँ और शंख
किसी ने मुट्ठी भर रेत ही पायी हो
उन विचारों की लहरों का
आना जााना निरर्थक है??
#श्वेता🍁
मन को छूती रचना
ReplyDeleteजी, बहुत आभार लोकेश जी।
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