आराम कमाने निकलते है आराम छोड़कर
जेब में रखते है मुट्ठीभर ख्वाहिश मोड़कर
दो निवाले भी मुश्किल हो जाते है सुकून से
कल की चिंता रख दे हर कदम झकझोर कर
टूटी गुल्लकों के साथ उम्मीद भरी आँखें मासूम
पापा हमें भी ला दो खिलौने और मिठाई मोलकर
रुपयों का मोल हर बार ज्यादा लगा दुकान पर
हर खुशी कम लगी जब देखी जेबे टटोलकर
कहते है सब खरीदा नही जा सकता है दाम देकर
कुछ भी न मिला भरे बाज़ार मे मीठे से बोलकर
अजीब है जिंंदगी ऊसूल भी गज़ब से लगते है
सिलसिला साँसों का टूट जायेगा यूँ ही भागदौड़ कर
आराम कमाने निकलते है आराम छोड़कर
ReplyDeleteजेब में रखते है मुट्ठीभर ख्वाहिश मोड़कर
....... अपने वजूद के ऊपर एक लाजवाब और सराहनीय रचना :)
जी,बहुत आभार शुक्रिया आपका संजय जी।
Deleteएक कोशिश आम आदमी की जद्दोज़हद पर😊
बहुत खूब
ReplyDeleteसुंदर रचना
बहुत आभार लोकेश जी।
Deleteबहुत सुन्दर...
ReplyDeleteअद्भुत जीवन दर्शन..
लाजवाब चिन्तन..
सिलसिला साँसों का टूट जायेगा यूँ ही भागदौड़ कर।
जी बहुत बहुत आभार शुक्रिया आपका रचना का भाव समझने के लिए सुधा जी।
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