किरणों के बाल सुनहरे है
लुक छिप सूरज के पहरे है
लुक छिप सूरज के पहरे है
कलकल करती जलधाराएँ
बादल पर्वत पर ठहरे है
बादल पर्वत पर ठहरे है
धरती पे बिखरी रंगोली
सब इन्द्रधनुष के चेहरे है
सब इन्द्रधनुष के चेहरे है
रहती है अपने धुन में मगन
चिड़ियों के कान भी बहरे है
चिड़ियों के कान भी बहरे है
टिपटिप करती बूँदों से भरी
जो गरमी से सूखी नहरे है
जो गरमी से सूखी नहरे है
चुप होकर छूती तनमन को
उस हवा के राज़ भी गहरे है
उस हवा के राज़ भी गहरे है
बेहतरीन रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका शुक्रिया लोकेश जी।
Deleteबहुत सुन्दर ,आभार। "एकलव्य"
ReplyDeleteआपका आभार बहुत सारा 'एकलव्य' जी।
Deleteवाह ! वाह ! क्या कहने हैं ! लाजवाब ! बहुत खूब आदरणीया ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार शुक्रिया आपक सर।
Deleteवाह ... एक और नयी ताजगी का एहसास कराती हुयी रचना ...
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार शुक्रिया आपका नासवा जी।
Deleteवाह ! इतनी सहज सरल अभिव्यक्ति कि बच्चे भी गुनगुना सकें। मेरा बस चलता तो मैं इस रचना को माध्यमिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम में शामिल करने की अनुशंसा करता।
ReplyDeleteलेखन का उद्देश्य यही होना चाहिए कि वह ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की पहुँच बने। आपके भीतर बैठे रचनाकार को मैं बहुत ऊँचाई पर जाता हुआ महसूस करता हूँ। ढेरों मगलकामनाएँ ! लिखते रहिये। माँ सरस्वती आपकी लेखनी को अपना आशीर्वाद प्रदान करें।
रवींद्र जी , आपकी ऐसी मनोहारी प्रतिक्रिया से अभिभूत हूँ।आपने इतना मान दिया बहुत बहुत आभार आपका। आप सदैव प्रोत्साहित करते है
Deleteमुझे उत्साह वर्धन करते है अपनी विशेष टिप्पणी से।सदैव आभारी रहेगे।
आपकी शुभकामनाओं की सदैव आकांक्षी हूँ। ह
हार्दिक आभार आपका रवींद्र जी ।धन्यवाद।
रहती है अपने धुन में मगन
ReplyDeleteचिड़ियों के कान भी बहरे है
बहुत प्यारी पंक्तियाँ !
जी,बहुत बहुत आभार आपका मीना जी आपका सदैव स्वागत है कृपया स्नेह बनाये रखे।
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