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Friday 21 July 2017

हे, अतिथि तुम कब जाओगे??

जलती धरा पर छनकती
पानी की बूँदें बुदबुदाने लगी,
आस से ताकती घनविहीन
आसमां को ,
पनीली पीली आँखें
अब हरी हो जाने लगी ,
बरखा से पहले उमस ,तपन
से बेहाल कण कण में
बारिश की कल्पना भर से ही
घुलने लगती थी सूखी जीभ पर
चम्मच भर शहद सी
स्वागत गीत गाते उल्लासित हृदय
दो चार दिन में सोंधी खुशबू
माटी की सूरत बदल गयी,
भुरभुरी होकर धँसती
फिसलन भरे किचकिच रास्तों में,
डबडबाने लगी है सीमेंट की दीवारें
पसीजने को आतुर है पत्थरीले छत,
खुद को बचाता घर अचानक
उफनते नदी के मुहाने पर आ गया हो
दरारों से भीतर आती
छलनी छतों से टपकती बूँदों को
कटोरे ,डेगची मगों में
भरने का असफल प्रयास करते
एक कोने में सिमटे
बुझे चूल्हे में भरते पानी को देखते
कल की चिंता से अधमरे
सोच रहे है चिंतित,
बरखा रानी और कितना सताओगी
त्रस्त दुखित हृदय पूछते है
हे, अतिथि तुम कब जाओगे??

     #श्वेता🍁

7 comments:

  1. बहुत सुंदर कविता

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    1. बहुत बहुत आभार शुक्रिया आपका लोकेश जी।

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  2. पावस ऋतु के आगमन की आतुरता और उसके आने के बाद की विपदाएं, सभी को समेट दिया है। वाह ! अतिथि के स्वागत ,सत्कार में हम इतने मशग़ूल रहते हैं कि उत्पन्न असहज परिस्थियों को भी सहर्ष झेल लेते हैं और विदाई तक अतिथि के प्रति कृतज्ञ भाव बनाये रखते हैं। सामूहिक उल्लास और तकलीफ़ को महसूस कराती सुन्दर रचना।

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    1. जी, बहुत बहुत आभार आपका आपकी सुंदर विश्लेषात्मक प्रतिक्रिया के लिए सदैव हृदय से आभारी है।

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  3. यथार्थचित्रण किया है आपने इस रचना में ! बारिश का मौसम गरीबों के लिए एक मुसीबत से कम नहीं । ये ऐसा अतिथि है जिसका स्वागत करने के लिए मन आतुर तो रहता है पर मजलूमों की तकलीफें देखी नहीं जातीं ।

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    1. जी, मीना जी, रचना का मंतव्य समझकर सराहनीय प्रतिक्रिया के लिए सस्नेह आभार आपका बहुत सारा।
      आज आपकी इतनी सारी प्रतिक्रिया पढ़कर बहुत आहृलादित है । हृदयतल से धन्यवाद जी।

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  4. वर्षा चिंतन
    सराहनीय..
    सादर..

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।