न तोड़ो आईना यूँ राह का पत्थर बनकर
खनकने दो न हसी प्यार का मंज़र बनकर
चुपचाप सोये है जो रेत के सफीने है
साथ बह जायेगे लहरों के समन्दर बनकर
न समझो धूल हिकारत से हमको देखो न
आँधी आने दो उड़ा देगे बबंडर बनकर
दिल कौन जीत पाया है शमशीर के बल
मैदान मार लो चाहो तो सिकंदर बनकर
क्या कम है किसी से तेरे जीवन के सफर
हलाहल रोज ही पीते तो हो शंकर बनकर
छुपा लूँ खींच के हाथों में लकीरों की तरह
साँसों सा साथ रहे मेेरा मुकद्दर बनकर
#श्वेता🍁
खनकने दो न हसी प्यार का मंज़र बनकर
चुपचाप सोये है जो रेत के सफीने है
साथ बह जायेगे लहरों के समन्दर बनकर
न समझो धूल हिकारत से हमको देखो न
आँधी आने दो उड़ा देगे बबंडर बनकर
दिल कौन जीत पाया है शमशीर के बल
मैदान मार लो चाहो तो सिकंदर बनकर
क्या कम है किसी से तेरे जीवन के सफर
हलाहल रोज ही पीते तो हो शंकर बनकर
छुपा लूँ खींच के हाथों में लकीरों की तरह
साँसों सा साथ रहे मेेरा मुकद्दर बनकर
#श्वेता🍁
वाहः बहुत खूब ग़ज़ल
ReplyDeleteजी, बहुत आभार शुक्रिया आपका लोकेश जी।
Deleteन तोड़ो आईना यूँ राह का पत्थर बनकर
ReplyDeleteखनकने दो न हसी प्यार का मंज़र बनकर
एक साथ कई भावों को संजोये बहुत ही सुंदर....शब्द नहीं सूझ रहे क्या लिखूं इस पर।
जी, आपकी उपस्थिति ही रचना की सराहना है संजय जी।
Deleteबहुत बहुत आभार शुक्रिया आपका।
दिल कौन जीत पाया है शमशीर के बल
ReplyDeleteमैदान मार लो चाहो तो सिकन्दर बनकर
वाह!!!!
बहुत ही सुन्दर...
बहुत बहुत बहुत शुक्रिया आभार आपका सुवा जी।
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(18-7-21) को "प्रीत की होती सजा कुछ और है" (चर्चा अंक- 4129) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
--
कामिनी सिन्हा
वाह! बेहद खूबसूरत।
ReplyDeleteन तोड़ो आईना यूँ राह का पत्थर बनकर
ReplyDeleteखनकने दो न हसी प्यार का मंज़र बनकर
पत्थर नहीं हूँ राह का जो तोड़ा करूँ मैं आईना
तेरी खनकती हँसी पर जान निसार करता हूँ
चुपचाप सोये है जो रेत के सफीने है
साथ बह जायेगे लहरों के समन्दर बनकर
रेत के सफीने की न बात कर तू मुझसे
मैं तो समंदर की लहरों को भी गिना करता हूँ ।
न समझो धूल हिकारत से हमको देखो न
आँधी आने दो उड़ा देगे बबंडर बनकर
क्यों कर ये एहसास है कि धूल समझा कभी
आँधी आने से पहले मैं बादल बना करता हूँ ।
दिल कौन जीत पाया है शमशीर के बल
मैदान मार लो चाहो तो सिकंदर बनकर
नहीं आता मुझे ज़ुबाँ के यूँ तीर चलाना
बिछ कर तेरे कदमों में सिकंदर बना करता हूँ
क्या कम है किसी से तेरे जीवन के सफर
हलाहल रोज ही पीते तो हो शंकर बनकर
जीवन के सफर में रहे जो तेरा साथ मेरे
विष भी अमृत हो जाये जो में रोज़ पिया करता हूँ ।
छुपा लूँ खींच के हाथों में लकीरों की तरह
साँसों सा साथ रहे मेेरा मुकद्दर बनकर
तेरे हाथों की लकीरों में ही देखता हूँ अक्स अपना
ये मेरा मुकद्दर है कि तेरी साँसों में बसा करता हूँ ।।
खूबसूरत ग़ज़ल का जवाब कुछ यूँ होता है ।
अब इसे कुछ भी समझ लेना , मुझे लिखने में बहुत मज़ा आया ।
बहुत ही उम्दा आदरणीय
ReplyDeleteवाह वाह!!!
ReplyDeleteशानदार गजल और प्रत्युत्तर में आ. संगीता जी की लाजवाब गजल...
क्या समा बाँधा है...बहुत मजेदार।
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल
ReplyDelete
ReplyDeleteन समझो धूल हिकारत से हमको देखो न
आँधी आने दो उड़ा देगे बबंडर बनकर
वाह ! बहुत अच्छी ग़ज़ल