किसी साँझ के किनारे
पलकें मूँदती हौले से,
आसमां से उतरकर
पेडों से शाखों से होकर
पत्तों का नोकों से फिसलकर,
ख़ामोश झील के
दूर तक पसरे सतह पर
कतरा-कतरा पिघलकर
सूरज की डूबती किरणें
गुलाबी रंग घोल देती है,
रंगहीन मन के दरवाजे पर
दस्तक देती साँझ,
स्याह आँगन में
जलते बुझते टिमटिमाते
सपनीली ख़्वाहिशों के सितारे
मौन वेदना लिए निःशब्द
प्रतीक्षारत से वृक्ष,
जो अक्सर बेचैन करते है
गुलाबी झील में गुम हुई
परछाईयों में यादों को,
ढूँढता है मन संवेदनाओं में
लिपटे गुजरे कुछ पल,
उस उदास झील के
तन्हा गुलाबी किनारे पर।
#श्वेता
उस उदास झील के
ReplyDeleteतन्हा गुलाबी किनारे पर।
बहुत सुंदर कल्पना
बहुत सुंदर रचना
शब्दचित्र उकेरने में माहिर श्वेता जी की इस रचना में प्रकृति अपने स्वाभाविक अंदाज़ में खिलखिला रही है किन्तु मानव मन उलझा हुआ है कश्मकश में , उदासियों के भंवर में। शब्दों में व्यंजनात्मक निखार के साथ चमत्कार उत्पन्न करना और भावों को तार्किकता के धागे से रचनाओं में गूंथना आपको ख़ूब आता है।
ReplyDeleteलिखते रहिये लेकिन आदरणीय डॉक्टर सुशील जोशी सर की एक रचना ज़रूर पढ़ियेगा जिसमें वे लिखने वालों पर व्यंग करते हुए एक पंक्ति में "स्याही सूखने से पहले नयी रचना" लिखने वालों पर कटाक्ष करते हैं।
यहाँ ऐसा उल्लेख इसलिए क्योंकि आपकी पिछली रचना पर ही पाठक एवं रचनाकार अभी आपको पूरी तरह प्रोत्साहित नहीं कर पाए हैं अर्थात ब्लॉग के मुखपृष्ठ पर रचना को कुछ दिन शोभायमान होने दीजिये। आपको हतोत्साहित करने के उद्देश्य से यह आलोचनात्मक टिप्पणी नहीं की गयी है बल्कि ब्लॉग जगत का ऐसा अनुभव है कि कुछ लोग एक दिन रचना पढ़ते हैं फिर एक या दो दिन बाद प्रतिक्रिया देने आते हैं। जब उन्हें मुखपृष्ठ पर नयी रचना मिलती है तो वे फिर पढ़कर लौट जाते हैं अगले दिन फिर आने का सोचकर.....
यह आलोचनात्मक सलाह शायद किसी को नागवार गुज़रे लेकिन मैं उम्मीद करता हूँ आप इसमें छिपे निहितार्थ को समझ सकेंगी। बधाई एवं शुभकामनाऐं।
प्रिऊ श्वेता जी -- साँझ और उससे अठखेलियाँ करती सूरज की किरणों की
ReplyDeleteआंखमिचौली को इसके स्वभाविक अंदाज में प्रस्तुत करती रचना अपने आप प्रकृति का अप्रितम ,सुंदर चित्र समेटे हुए मन को छू जाती है | आदरणीय रविन्द्र जी की बात से सहमत हूँ | पाठक पहले दिन उत्साह दिखाते हैं दुसरे दिन रचना उपेक्षित सी पड़ी रहती है खासकर दुसरी रचना जल्दी डाल दे तो पाठक नयी पर आ जाते हैं पुरानी किसी कारणवश यदि नहीं पढ़ी तो फिर कोई उसे पढता ही नहीं | आपकी रचनाये अहम् साहित्यिक दस्तावेज हैं इन्हें जरुर सभी प्रभुध पाठकों की नजर से गुजरना जरूरी है और समीक्षकों की भी| सस्नेह शुभकामना के साथ --
सही कहा रेनू जी
Deleteसुंदर कविता,
ReplyDeleteआकर्षक शब्द चयन,
मनमोहक प्रस्तुति....... 👌👌👌👌👌
साथ साथ
परिपक्व गुरुजनों की विवेकपूर्ण सलाह...👍👍👍
प्रकृति का नायाब चित्रण उकेरा है आपने अपनी कल्पनाशीलता में। बहुत खूब।
ReplyDeleteबस ये मन की तन्हाई साल रही है।
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जब मुझ जैसे पाठक का मन नया चाहता है
ReplyDeleteतब बड़ी उम्मीद से पाठक आपके ब्लॉग पर आता है
हर रोज नया और नया महका-महका सा आपका लेखन
सराहनीय साहित्यसृजन! क्या कहें कैसे मन बाग-बाग हो जाता है...
अद्भुत लेखन...
नमन आपकी लेखनी को 🙏🙏🙏
मेरी स्वीटा
ReplyDeleteखुशबू आती है शाम की
चाहे जब पढ़ो
सादर
श्वेता जी,सुंदर कविता
ReplyDeleteबहुत सुंदर कल्पना
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
बेहद उम्दा रचना... सुंदर कल्पना चित्र और हमें अपने गाँव की साँझ याद दिला दी....
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत .
ReplyDeleteगजब की कविता है ...सांझ किनारे...वाह
ReplyDeleteबहुत खूब ...
ReplyDeleteकल्पना की लाजवाब उड़ान ...
सांझ का अत्यंत बारीकी से बुना गया सुंदर वर्णन !
ReplyDeleteइस चराचर प्रकृति का कण कण अपने सौंदर्य सौष्ठव को आपकी कलात्मक लेखनी से उकेरे जाने का ऋणी है। सच में जब पढ़ो जितनी बार और जितनी भी रचनाएं आपकी पढ़ो हर बार एक नया एहसास मानो साहित्य की बगिया की बुलबुल ने सप्तक में पंचम का कोई नया आलाप छेड़ा हो।
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