Pages

Monday, 16 April 2018

मत लिखो प्रेम कविताएँ


मत लिखो प्रेम कविताऐं
महसूस होती प्रेम की अनुभूतियों को
हृदय के गोह से निकलते
उफ़नते भावों के
मुख पर रख दो
संयम का भारी पत्थर
और उन पत्थरों जैसे हो रहे
इंसानियत का आख्यान लिखो
फूल और कलियों की मुस्कान,
भँवरें और तितलयों का गान
ऋतुओं की अंगड़ाई
चिड़ियों का कलरव
चाँद की किरणें,
ओस की बूँदें
झरने का राग
नदियों का इठलाना,
व्यर्थ है तुम्हारा लिखना,
प्रकृति का कोमल स्पर्श
खोलो तुम आँखें
देखो न;
कोमल कलियों 
फूल सी बेटियों पर दुराचार
तुम्हें क्यों नहीं दिखता?
प्रदूषित धुएँ में धुँधलाता आसमां,
अट्टालिकाओं में छुपा चाँद,
गुम होती गौरैया
नाला बनती नदियाँ
बूँद-बूँद पानी को तरसते लोग
तुम जानते नहीं क्या?
मानवता का गान
देशभक्ति का बखान
परोपकार का प्रवचन
प्रेम का मौसम
भाईचारे का उद्घोष
धर्मग्रंथों तक सीमित
शब्दकोश में सुशोभित है
मार-काट, ईष्या-द्वेष,
बात-बात पर उबलता लहू,
सांप्रदायिकता की अग्नि में जलता धर्म,
स्वार्थ में लिप्त आत्मीयता
क्यों नहीं लिख पाते हो तुम?
अगर कहलाना है तुम्हें
अच्छा कवि 
तो प्रेम और प्रकृति जैसे
हल्के विषयों पर
क़लम से नक्क़ाशी करना छोड़ो
मर्यादित रहो,
गंभीरता का लबादा ओढ़ो,
समाज की दुर्दशा पर लिखो,
गिरते सामाजिक मूल्यों पर लिखो,
वरना तुम्हारा
चारित्रिक मूल्य आंका जायेगा,
प्रेम जैसी हल्की अनुभूतियों को लिखना
तुम्हारी छवि को
भारी कैसे बना सकता हैंं?
आखिर तुम कवि हो
अपने दायित्वों का बोध करो;
मत लिखो प्रेम कविताऐं
सभ्य मनुष्य और समाज को
बदसूरती का आईना दिखाकर
समाज में नवचेतना जागृत करो।

    -श्वेता सिन्हा

45 comments:

  1. बहुत ही मार्मिक
    सच्चाई का आईना दिखलाती रचना

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत आभार आपका लोकेश जी।
      तहेदिल से शुक्रिया खूब सारा।

      Delete
  2. सुंदर बहुत सार्थक रचना।
    रचनाकार के जिम्मेदारी को बखूबी शब्द दिए आप ने। लाजवाब !!!

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत-बहुत आभार आपका नीतू जी।
      हृदयतल से धन्यवाद आपका।

      Delete
  3. विषय सामयिक पर लिखी,रचना क्या दमदार
    अभिनंदन मेरा करें,श्वेता जी स्वीकार..!!

    बहुत सुंदर वाह आदरणीया👌👌👍👍

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत-बहुत आभार आपका विनोद जी।
      आपकी प्रतिक्रिया ब्लॉग पर पाकर मन प्रसन्न हुआ।
      हृदयतल से धन्यवाद।

      Delete
  4. प्रेम से इतना विद्रोह क्यों! दुनिया की पहली कविता के पहले शब्द प्रेम और वेदना से लबालब लबों पर ही पनपे होंगे। ' वियोगी होगा अहला कवि,
    ' आह ' से निकला होगा गान!'
    बहुत सुंदर कविता, प्रकरांतर में प्रेम की पीर को और उकेरते हुई।

    ReplyDelete
    Replies
    1. उमड़कर आँखों से चुपचाप
      बनी होगी कविता अनजान।

      Delete
    2. जी विश्वमोहन जी,आपकी बातों से पूर्णतया सहमत है हम पर कभी-कभी मन के भरे भाव बहना जरुरी होता है।
      आपकी सारगर्भित सुंदर आशीर्वचनों के लिए हृदयतल से आभार।

      Delete
  5. वाह!!श्वेता.दमदार लेखनी ,बहुत सुंंदर ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत-बहुत आभार आपका शुभा दी।
      तहेदिल से शुक्रिया आपका।

      Delete
  6. प्रेम और प्रकृति श्वेता जी के प्रिय विषय रहे जिन्हें आज वे क्यों हल्का कह रही हैं?
    एक प्रेम ही है जो सदा अपना अस्तित्व बनाए रखेगा।
    बेशक हमें वक्त की नब्ज़ को टटोलना चाहिए और समसामयिक विषयों पर भी ध्यान केंद्रित करना चाहिए ताकि समाज में मानस तैयार हो। अहम मुद्दों पर मंथन हो व मूल्यों पर चर्चा हो।
    हम वर्तमान में सामाजिक मूल्यों के संक्रमण के भयावह दौर से गुज़र रहे हैं जहां हमारा दायित्वबोध निराश होकर बैठने को नहीं कहता और न ही सिर्फ़ रंग फूल ख़ुशबू और बहारों की बात करने पर टिका रहे।
    आपकी रचना समसामयिक परिपेक्ष को बख़ूबी परिभाषित करती है और व्यापक संदेश छोड़ती है।
    बधाई एवं शुभकामनाएं।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आदरणीय रवींद्र जी,
      आपकी संतुलित आलोचनात्मक सोच बेहद प्रभावी है।
      हाँ आपने सही कहा प्रकृति और प्रेम मेरे प्रिय विषय है और सदा रहेगे। पर कभी -कभी कुछ शब्द विचारों को उद्वेलित करते है तो ऐसी कविताएँ फूट पड़ती है।
      आपकी संतुलित और मार्गदर्शक प्रतिक्रिया के लिए आभारी है हमेशा।
      आपके सहयोग और साथ के लिए सदैव आभारी रहेगे।
      बहुत-बहुत आभार आपका हृदयतल से।

      Delete
  7. अगर कहलाना है तुम्हें
    अच्छा कवि
    तो प्रेम और प्रकृति जैसे
    हल्के विषयों पर
    कलम से नक्काशी करना छोड़ो
    मर्यादित रहो,
    गंभीरता का लबादा ओढ़ो,
    समाज की दुर्दशा पर लिखो,
    गिरते सामाजिक मूल्यों पर लिखो,
    वरना तुम्हारा
    चारित्रिक मूल्य आंका जायेगा,
    प्रेम जैसी हल्की अनुभूतियों को लिखना
    तुम्हारी छवि को
    भारी कैसे बना सकती है?
    श्वेताजी,रचना में चुभता हुआ व्यंग्य भी है और कड़वी सच्चाई भी है। सही कहा है आपने, यदि तुम्हे अच्छा कवि कहलाना है तो....
    पर यदि अच्छा कवि ना कहलाना हो तो ?
    श्वेताजी, लेखन विषय लेकर भी किया जा सकता है और बिना पूर्वतैयारी के, बिना कोई खास विषय लिए भी !!!
    प्रकृति और प्रेम जैसे विषय, हल्के विषय तो क्या, मैं तो कहूँगी कि वे विषय ही नहीं हैं,जीवन का हिस्सा हैं वे,प्रकृति के पाँच तत्वों से शरीर बनता है...नन्हे से बच्चे में भी वात्सल्यरूपी प्रेम की चाहना होती है !!! प्रेम और प्रकृति पर लिखने की जरूरत नहीं पड़ती....स्वयंस्फूर्त हो जाता है लेखन !
    झरने को कभी खोदने की जरूरत पड़ती है भला? बारिश के मौसम में पाषाणों के अंतर से भी स्वतः फूट पड़ते हैं। पर याद रहे, बारिश के बाद स्वतः विलुप्त भी हो जाते हैं अधिकतर निर्झर....प्रेम और प्रकृति की कविताएँ ऐसी ही हैं। उन्हें उगाया नहीं जा सकता। वनफूल हैं वे, सिर्फ सौंदर्य बिखेरने को खिलते हैं !!!
    तो झरने स्वयं फूट पड़ते हैं किंतु कुएँ तालाब खोदने पड़ते हैं, श्रमसाध्य काम है यह....
    उसी तरह समसामयिक समस्याओं पर लिखना भी आसान नहीं है !!! वस्तुतः हरेक के अपने अपने क्षेत्र होते हैं, अपने अपने भाव होते हैं....महादेवी वर्मा जी से कविवर्य रामधारीसिंह दिनकर तक, प्रसाद से लेकर प्रेमचंद तक....सृजन सबने किया है। हर एक के विषय और भाव अलग अलग हैं। सृजन को बाँधा नहीं जा सकता ।
    यदि प्रेम और प्रकृति हल्के विषय होते तो पंत और महादेवी को,कीट्स और वर्डस्वर्थ को कौन पढ़ता ?
    हाँ, ये कटु सत्य है कि समाज हमारे लेखन की खास विधा को पकड़कर हमारा चारीत्रिक मूल्य आँक सकता है...पर मुझे नहीं लगता कि एक सच्चे रचनाकार को इससे कोई खास फर्क पड़ना चाहिए। मैं तो जब भी लिखूँगी, आत्मसंतुष्टि के लिए लिखूँगी, दिखावे के लिए नहीं।
    रचना कमाल की है आपकी, इसमें कोई दोराय नहीं।
    सादर, स्नेहसहित ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. प्रिय मीना जी'
      आपकी विस्तृत और विवेचनापूर्ण प्रतिक्रिया के लिए जितना भी आभार कहे हम कम होगा।
      बहुत सुंदरता से आपने जो संदेश प्रेषित किया हैव वो कमाल है सचमुच।
      किसी रचना की सार्थकता तभी है जब उसमें निहित संदेश और भाव कोई समझ जाये। आपका मेरी कविता पर किया गया विश्लेषण एकदम सटीक है।
      प्रेम और प्रकृति मेरी कविताओं की आत्मा है भला आत्मा को मार कर जीवंत कविताएँ कैसे लिखी जा सकेंगी।
      आपकी सुलझी हुई विचारशील प्रतिक्रिया ने नया उत्साह भर दिया है मुझमें। जलते कवि मन पर शीतल लेप लगाने के लिए आपके सदैव आभारी रहेंगे हम।
      हृदयतल से बहुत-बहुत आभार आपका।
      सादर, स्नेहसहित ।

      Delete
  8. शब्दों में क्षोभ है जो वर्तमान में सामाजिक मूल्यों के संक्रमण के दौर से गुज़र रहे विषय की ओर इंगित कर रही..विचारों पर मंथन करने पर विवश करती रचना। बहुत बढिया।

    ReplyDelete
    Replies
    1. अति आभार आपका पम्मी जी।
      हृदयतल से बेहद आभारी है आपके।

      Delete
  9. शब्द नगरी याद आ रही है.

    ReplyDelete
    Replies
    1. अति आभार आपका सर।तहेदिल से शुक्रिया बहुत सारा।

      Delete
  10. कड़वा सच लिखा है ...
    एक आह्वान ... लेखनी बेमानी है जो इस सत्य को ना लिख सके ... कवि की लेखनी तलवार से काम नहि होती ... आज समय है सब कुछ भूल कर इस अत्याचार को लिखने का ...
    माँ के आक्रोश को लिखा है आपने ... सटीक लिखा है ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी नासवा जी आभार आपका मेरी कविता की सकारात्मकता समझने के लिए तहेदिल से शुक्रिया,बेहद आभार आपका।

      Delete
  11. आदरणीय श्वेता जी ,आपकी कविता की प्रतिक्रिया स्वरुप मेरी कविता आप को समर्पित है...

    लिखो प्रेम कवितायेँ
    कि..... प्रेम ही बचा सकेगा
    तिल-तिल मरती मानवता को,
    प्रेम की अंगड़ाई जब घुट रही हो सरेआम,
    मौत के घाट उतार दिए जा रहे हों प्रेमी युगल,
    कल्पना करो
    प्रेम के राग में सड़ांध भरती सिक्कों की खनक को,
    प्रेम की दीवारों पर लचक रहे हैं खून के धब्बे,
    अपने आप में विलुप्त होता इंसान
    भूल रहा है;
    माँ की आँखों से बह रहा प्रेम,
    पत्नी की सिसकियों की लय हो रही बेज़ुबान,
    बरस रही हैं आसमान से
    प्रेम के विरोध में फतवों की धमक,
    किताबों से मिटाया जा रहा है प्रेम का हर अक्षर,
    तब उम्मीद सिर्फ तुम्ही से है दोस्त!
    कि लिखो तुम प्रेम की अपूर्ण रह गयी कहानियां
    अपनी कविताओं में प्रेम पर हो रहे अत्याचार की चिन्दियाँ करो,
    भरो प्रेम का राग हर कंठ में,
    तुम्हारी कविताओं में जिंदा रह गया प्रेम;
    बोयेगा बीज एक दिन,
    धरती पर प्रेम ही खेती लहलहायेगी,
    प्रेम के अवशेष
    खड़े कर ही लेंगे
    कभी न कभी मानवता की अटारियां,
    प्रेम को नया जीवन दो,
    लिखो प्रेम के आख्यान,
    करो रंगों, फूलों, तितलियों की बातें,
    मुझे विश्वास है;
    बचा सकती हैं प्रेम कवितायें ही
    इस संसार को मरघट बनने से....


    सादर

    ReplyDelete
    Replies
    1. अपर्णा जी आपकी इतनी सुंदर और सारगर्भित प्रतिक्रिया मन मोह गयी। बेहद आभारी हूँ आपकी।
      आपकी रचना आशावादी और सकारत्मकता की ओर इंगित करती है।
      हृदयतल से अति आभार आपका। स्नेह बनाये रखिये।

      Delete
  12. इतनी बड़ी बड़ी प्रतिक्रियाये देख ..एक वाह और आह शब्द कहना ही उचित लगा कवि भाव इन्हीं दो लफ्जों से
    सज्जित करने का भाव जगा !

    ReplyDelete
    Replies
    1. अति आभार आपका प्रिय इन्दिरा जी।
      प्रतिक्रियाएँँ चाहे कितनी भी लंबी हो आपकी एक प्रतिक्रिया मनोबल में वृद्धि करती है सदा।

      Delete
  13. आहत मन के बोल प्रखर हुए हैं आपकी लेखनी से...जिसके साथ आत्याचार हो रहा हो वो उसके लिए प्रेम और प्रकृति दोंंनो नीरस हैं और अत्याचार के खिलाफ उठने वाली आवाजें प्रभावशाली... समसामयिक घटनाओं से कवि का संवेदनशील हृदय
    इतना प्रभावित हुआ कि अपने प्रिय विषय हल्के व नीरस हो गये ...शब्दों में प्रेम की जगह आक्रोश भर गया...संवेदना के इन भावों को शत-शत नमन,काश ये संवेदना जन जन के मन तक पहुंचे और दुखियों के लिए सहानुभूति उपजे...
    लाजवाब प्रस्तुति...

    ReplyDelete
    Replies
    1. सुधा जी,
      मेरी रचना को नये भावों से दृष्टिगत किया आपने। आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया ने बहुत प्रभावित किया है।
      कृपया नेह बनाये रखे सदा।
      हृदयतल से अति आभार
      सादर।

      Delete
  14. हृदय को पत्थर ना करो
    कुछ स्निग्ध कोमल भाव जिंदा रखो
    प्रेम समाप्त होता जा रहा है
    इस लिये तो दानवी प्रवृत्तियां
    जोर पकडती जा रही है
    विभस्त घटनाओं को
    यूं बार बार न दोहराओ
    जिससे कलुषित सोच वालों को
    नये रास्ते समझ आये
    और वो अपने मंसूबे को
    और होशियारी से अंजाम दें
    हर घटना पहली का प्रतिरूप दिखती है
    या कोई बदले का भाव
    भय समाप्त होता जा रहा है
    बचने के साधन समझ आ गये हैं
    हिंसक मनोवृत्ति बढती जा रही है
    मासूम बेवजह हथियार बन रहे हैं
    मिडिया का नाटक दुष्कृत को दुषकर की जगह घटना बनाता है
    मंथन के नाम पर सिर्फ परिहास
    बनता जा रहा है हर घटना क्रम
    और हर कवि भी अब वही हजारों बार दोहरा चुकि बातें अपनी भाषा और शब्दों का तड़का दे कर परोसता रहे, ना मंजूर!
    आपकी और हमारी रचना कौन सा वर्ग पढ रहा है कभी सोचा?
    नक्कारखाने मे तूती की आवाज!
    कवि के अंदर के कोमल भाव उसे सामाजिक बुराइयों पर लेखन करने को खुद उकसाती है,
    पर प्राकृतिक और नैसर्गिक गुण
    हर कवि मे अलग होते हैं और वो अपने स्वाभाविक गुणों के साथ ही उत्थान को अग्रसर होता है,
    किसी लौहार से सोने की घडाई की उम्मीद जैसा है कि हर कवि वीर रस और सामाजिक विसंगति पर ही लिखने लगे वैसे कवि प्रकृति और प्रेम पर लिखते हुवे भी काफी सकारात्मक ऊर्जा समाज को देता है, प्रश्न है लेने वाले कितने है।

    आपकी रचना मे क्षोभ आक्रोश और कही कटाक्ष है आज की मांग के हिसाब से बहुत क्रांतिकारी विचार हैं आपके रचना दमदार है पर कवि बाजारवाद की मांग नही कि जो मांग हो आपूर्ति करे।
    सस्नेह आभार।

    ReplyDelete
    Replies
    1. कवि बाजारवाद की मांग नही कि जो मांग हो आपूर्ति करे। साधुवाद !!!
      उम्मीद है कि हम सबकी लाडली श्वेता बहन इस बात से सहमत होंगी। श्वेताजी ने इस रचना में जो इंगित किया वह संदेश सब तक कितनी जल्दी पहुँच गया। यही पहचान आपको सबसे अलग बनाती है श्वेताजी !!!

      Delete
    2. क्या कहें हम दी निःशब्द है।
      आपने मीना जी की प्रतिक्रिया और विस्तार दे दिया। बहुत ही जोरदार प्रतिक्रिया दी आपने। वाह्ह्ह..
      और यह स्पष्ट भी कर दिया। एकदम सही कहा आपने और हम आपसे सहमत भी है क्या गज़ब कहा आपने
      "कवि बाजारवाद की मांग नही कि जो मांग हो आपूर्ति करे।"👍👍👌👌👌👌
      जितना भी आभार कहे हम कम है।
      हृदयतल से अति आभार आपका। बेहद शुक्रिया आपका। सस्नेह।
      सादर।

      Delete
    3. प्रिय मीना जी,
      आप सब का यही प्रेम है जो मुझे नित कुछ नया लिखने को अपने विचार साझा करने को प्रेरित होते है। एक नवीन उत्साह से भर जाती है मेरी कलम।
      प्रेम के लिए धन्यवाद कहना उचित नहीं। बहुत सारा स्नेह प्रिय मीना जी।
      कृपया अपनी स्नेह दृष्टि बनाये रखे सदैव।
      सादर।

      Delete
  15. आपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 18अप्रैल 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    ReplyDelete
    Replies
    1. अति आभार हृदयतल से आभार।आपका पम्मी जी,पाँच लिंक के लिए रचना का चुना जाना सदैव आहृलादित करता है।
      आभार
      सादर।

      Delete
  16. श्वेता जी, समझ में नहीं आ रहा कि क्या बोलूँ। अगर कलम की स्याही से किसी के चरित्र को आंका जा सकता है तो सारी भावनाएं बेमानी हैं।
    बस इतना ही कहूँगी कि एक अच्छा लेखक वही है जो दिल से लिखता है। जो दिल करे वो लिखिए।
    सकारात्मकता की ओर बढिए।
    आपकी कलम को इतना तल्ख लिखने पर क्यों मजबूर होना पड़ा नहीं जानती पर शायद अब तक ये तल्खी निकल चुकी होगी।
    आगे बढिए प्रेम लिखिए, प्रकृति लिखिए, जो लोग इसका मतलब नहीं समझते उन्हें हल्का ही लगेगा। मुझसे कहिए मैं तो चार लाइन भी प्रकृति पर मुश्किल से ही लिख पाऊंगी।
    आप लाजवाब लिखती हैं।

    ReplyDelete
    Replies
    1. प्रिय अभि जी,
      आपके नेह और आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया से हम अभिभूत है बेहद आभारी है आपके।
      आपकी सराहना के लिए बेहद आभार।
      हम जरुर लिखेंगे अपने प्रिय विषय पर जल्दी ही।
      स्नेह बनाये रखे।
      सादर।

      Delete
  17. बहुत सुंदर रचना, एक तरह का अंतर्द्वंद कइयों के मन मस्तिष्क में चल रही उथल पुथल को शब्द दे दिए मानो आपने, हालांकि कुछ बातें चुभीं यह सही है कि लेखन को बांधा नही जा सकता,आसपास समाज,वातावरण में होने वाली घटनाये जो प्रभाव हम पर डालती हैं कई बार हम उनसे बचना भी चाहते है, यह ठीक ऐसा ही है जैसे रोज की भाग दौड़ की थकान मिटाने हम किसी स्थान पर जो प्राकृतिक रूप में सुंदरतम हो वहां जाना पसंद करते हैं और वो कुछ ही समय प्रकृति के सुंदरतम सानिध्य का एक नई ऊर्जा से भर देता है हमे ठीक वैसे ही प्रेम और प्रकृति पर आधारित रचनाएं होती हैं पाठक कुछ समय तो उसे अनुभूत कर प्रसन्न हो लेता है

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत-बहुत आभार आपका दीपाली जी,आपने सुंदर विश्लेषण किया।
      कृपया आते रहे।

      Delete
  18. यहां पर क्या मुशायरा हो रहा है
    हमें नही आता लिखना...
    गज़ब की कविता
    सादर

    ReplyDelete
    Replies
    1. 😂😂😂
      बहुत आभार दी।
      सादर।

      Delete
  19. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार 17 फरवरी 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    ReplyDelete
  20. बहुत सुंदर और सार्थक अभिव्यक्ति श्वेता जी

    ReplyDelete
  21. आज आपकी कलम ने तो कमाल ही कर दिया श्वेता जी ,बहुत ही सुंदर चर्चा -परिचर्चा हो गई और इसी बहाने बहुत कुछ सीखने और समझने को मिला। जब भी एक रचनाकार का मन समाज को देख व्यथित होता हैं तो कमाल ही करता हैं। आप की इस सुंदर सृजन के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएं ,सादर

    ReplyDelete
  22. " अगर कहलाना है तुम्हें

    अच्छा कवि "

    आपकी इन पंक्तियों पर असहमत हूँ और असहजता महसूस हुई है। यह नहीं मालूम कि किस परिस्थितिवशआपके मस्तिष्क में किनकी उलाहना से आहत होकर ये रचना पनपी होगी, पर यह सोच गलत है।
    सर्वप्रथम यहाँ "अच्छा" और "बुरा" या "हल्का" और "भारी" का कोई मापदण्ड किसने तय किया है भला ? समाज को दोनों ही रचनाओं की जरुरत है।
    हमेशा कहता हूँ कि ... सब की अलग-अलग नजरिया है, तभी तो दुनिया रंगीन है। कविता या कोई भी रचना मन की अभिव्यक्ति है। किसी के लिए मन का भंडास निकालने का साधन मात्र है। किसी के लिए किसी सामाजिक सन्देश को फैलाने का साधन। वह रचनाकार की सोच .. मन पर निर्भर करता है।
    जितना सामाजिक सारोकार वाली रचना आवश्यक है, उतनी ही प्रेम और प्रकृत्ति की शब्द-चित्र वाली अनूठी बिम्बों से सजी रचना। ठीक वैसे ही जैसे एक जीवित शरीर के लिए जितना भोजन ग्रहण करने वाले अंग आवश्यक है, उतनी ही मल त्यागने वाले अंग भी। उसे सही या गलत नहीं ठहराया जा सकता।
    पर अगर कोई प्रेम की रुमानियत भरी कविता ही गढ़े तो उसकी रुमानियत वाली छवि बननी स्वाभाविक है। जैसे सामजिक सारोकार वाली रचना से समाज सुधारक वाली छवि बनती है। स्वाभाविक है। रचनाएँ कोरी कल्पना भर नहीं होती। सच और कल्पना का सम्मिश्रण हीं होती है प्रायः। मन में भाव या विचार आए बिना कोई भी रचना रच ही नहीं सकता, ऐसा मेरा मानना है।शायद गलत भी हो।
    इस से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि पुरुष-प्रधान समाज में प्रायः पुरुष वर्ग में से अधिकांशतः पुरुष चाहे वह किसी भी उम्र के हों, किसी महिला रचनाकार की रुमानियत भरी, विरह भरी या दर्द भरी रचना से उस महिला के विरहन होने और सहज उपलब्ध होने का भ्रम भी पाल लेते हैं। स्वयं को ही उस रचनाकार के मन के आँगन का नायक मानने लगते हैं। जबकि कई बार वह महिला रचनाकार अपने पति या फिर पूर्व या वर्तमान किसी प्रेमी को अपने रचना के केंद्र में सोच कर रची होती है।
    वैसे भी अमृता प्रीतम या महादेवी वर्मा बनना इतना भी आसान नहीं। सामजिक जीवन के तय मापदण्ड वाले पारिवारिक जीवन का खुल कर परित्याग करना पड़ता है या फिर जीवन भर दोहरी ज़िन्दगी जीनी पड़ती है। आम महिला को उस रूप में समाज कभी ना स्वीकार करे, पर प्रसिद्धि मिल जाने पर लोग हाथों-हाथ लेते हैं .. कहते हैं ना ... समर्थ को नहीं दोष गोसाईं ...

    ReplyDelete

आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।