धधकते अग्निवन के
चक्रव्यूह में समर्पित
देती रहीं प्रमाण
अपनी पवित्रता का
सीता,अहिल्या,द्रौपदी
गांधारी,कुंती,
और भी असंख्य हैं
आज भी
युगों से जूझ रही है
भोग रही
सृष्टि सृजनदात्री होने का दंड
आजीवन ली गयी
परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने पर
दिया गया है देवी का सम्मान
क्यों न ली गयी
कभी किसी पुरुष की
अग्निपरीक्षा?
पुरुष होने मात्र से ही
चारित्रिक धवलता
प्रमाणित है शायद
स्वयंसिद्ध।
-श्वेता सिन्हा
लाजवाब वाह वाह
ReplyDeleteजी आभारी हूँ सोलंकी जी..शुक्रिया।
Deleteबहुत उम्दा
ReplyDeleteआभारी हूँ लोकेश जी...शुक्रिया।
Deleteक्यों न ली गयी
ReplyDeleteकभी किसी पुरुष की
अग्निपरीक्षा?
पुरुष होने मात्र से ही
चारित्रिक धवलता
प्रमाणित है शायद
व्यंग्यात्मक रचना
बेहतरीन सृजन आदरणीया
आभारी हूँ आदरणीय...शुक्रिया।
Deleteअतुलनीय.....ये प्रश्नचिन्ह शायद कभी नही हटेगा शायद आगे भी निरुत्तर ही रहेगा ये समाज
ReplyDeleteनिःशब्द करती आपकी इस रचना को कोटिशः नमन
आभारी हूँ प्रिय आँचल...बहुत शुक्रिया।
Deleteस्वघोषित परीक्षक भला बनेगा परीक्षार्थी!
ReplyDeleteजी..सारयुक्त विचार।
Deleteआभारी हूँ विश्वमोहन जी..बहुत शुक्रिया।
सृष्टि सृजन दात्री फिर भी अग्निपरीक्षा स्वयं की कृतियों द्वारा छली गई और अग्निपरीक्षाएं देती रही, है सृजन दात्री तुम स्वयं ही स्वयं सिद्ध सुंदर विचारणीय रचना
ReplyDeleteआभारी हूँ रितु जी..बहुत शुक्रिया।
Deleteवाह 👏 👏 👏
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ReplyDeleteबहुत सुन्दर सखी
ReplyDeleteस्त्री जाति की अनन्त काल से चली आ रही व्यथा का मर्मस्पर्शी भाव लिए सुन्दर सृजन श्वेता जी ।
ReplyDeleteश्रेष्ठ रचना अति उत्तम।
ReplyDeleteएक मन का प्रश्न मन से….
स्व विलोपन नारी का
बंधना स्वयं व्यंजनाओं से
पहना हो गर्विता का गहना
स्नेह की सांकलो में जकड़े रहना
स्वयं सिद्ध या..... आत्म प्रवंचना।
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ReplyDeleteसार्थक, गहरा प्रश्न समाज से जिसको अधिकाँश पुरुषों ने बनाया अपने स्वार्थ के लिए ... बहुत ही अच्छी रचना ..
ReplyDeleteश्वेता दी, यह सवाल तो शायद सदियों तक सवाल ही रहेगा। क्योंकि पुरुषों के बनाए समाज में पुरुष महिला को एक भोग की वस्तु ही तो समझते हैं।
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन
ReplyDeleteबहुत सही जगह प्रहार किया है। बहुत खूब।
ReplyDeleteनिःशब्द करती रचना
ReplyDeleteसुंदर विचारणीय रचना
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