Pages

Thursday, 1 August 2019

साधारण स्त्री


करारी कचौरियाँ,
मावा वाली गुझिया,
रसदार मालपुआ,
खुशबूदार पुलाव,
चटपटे चाट,
तरह-तरह के 
व्यंजन चाव से सीखती
क्योंकि उसे बताया गया है
"आदमी के दिल तक पहुँचने का रास्ता
उसके पेट से होकर जाता है।"

काजल,बिंदी,नेलपॉलिश,
लिपिस्टिक के नये शेड्स
मेंहदी के बेलबूटे काढ़ती
रंगीन चूडियों,पायलों,झुमकों
के नये डिजाइन 
सुंदर कपड़ों के साथ मैचिंग करती
फेशियल,ब्लीच,ख़ुद को निखारने
के घरेलू नुस्खों
का प्रयोग सीखती है
क्योंकि अपने सौंदर्य के
सरस सागर में डूबोकर 
लुभाकर विविध उपक्रमों से
वो कहलायेगी पतिप्रिया
एक खूबसूरत औरत....।

भाभी,मामी,चाची,बुआ और
अड़ोस-पड़ोस के बच्चे
प्यार-दुलार से सँभालती
तीज-त्योहार के नियम 
व्रत-पूजा की बारीकियाँ
चुन्नी के छोर में गाँठ बाँधती 
देवी-देवताओं को
मंत्रों से साधती
क्योंकि एक सुघढ़,संस्कारी 
पत्नी,बहू और माँ
पतिव्रता औरत बनना ही
उसके स्त्री जीवन की
सफलता है।

एक साधारण स्त्री
अपने सामान्य जीवन में
अपनी आँखों के कटोरे में
भरती है छुटपने से ही
पढ़-लिखकर ब्याहकर 
एक छोटे से सजे-धजे घर में
दो-चार जोड़ी बढ़िया कपड़े पहन,
पाँच जडा़ऊ गहने लादे
दो गुलथुल बच्चे के नखरे उठाती
पति के आगे-पीछे घूमती
पूरी ज़िंदगी गुजार देने का
असाधारण-सा ख़्वाब 
क्योंकि एक साधारण औरत के
जीवन के स्वप्न का हर धागा
बँधा होता है 
पुरुष के सशक्त व्यक्तित्व में
सदियों पहले ठोंके गये
बड़ी-बड़ी मजबूत कीलों के साथ।

#श्वेता सिन्हा





13 comments:

  1. बहुत सटीक वर्णन एक भारतीय साधारण स्त्री का सांगोपांग चित्रण ।
    कभी कभी मन पूछता है अब कितने प्रतिशत बची है साधारण,स्त्रियां जो खुशहाल जीवन का सूत्र होती थी, अब तो हर नारी असाधारण बनना चाहती है ।

    ReplyDelete
  2. वाह बेहतरीन साधारण नहीं ,लट्टू और सुघड़ भारतीय स्त्रियों का वर्णन।

    ReplyDelete
  3. लट्टू नहीं सच्ची।

    ReplyDelete
  4. भारतीय नारी के जीवन का सटीक और सजीव चित्रण
    स्वेता जी

    ReplyDelete
  5. समय बदल रहे हैं, बेशक कविता खूबसूरत है, अपने भावों को सुंदर ढंग से परोसा गया है, फिर भी ............ !!

    ReplyDelete
  6. प्रागैतिहासिक काल में नारी -पुरुष जब एकाकी आखेट वाला एक समान जीवन से अपंजीकृत दम्पति जीवन जीने के क्रम में अनुमानतः एक दूसरे के करीब आये होंगे और अचानक सृष्टि को रचने के क्रम में नारी को पहली बार नौ माह तक कंदराओं में स्वयं को प्रतिबंधित करना पड़ा होगा।
    फिर धीरे-धीरे ये आपसी अनुबंध तय हुआ होगा दोनों में 'बाहर' और 'भीतर' की दुनिया अलग-अलग संभालने की। धीरे-धीरे बाहरी दुनिया पुरुष को वाचाल और औरत को घरेलू बनाता चला गया।
    काम का बँटवारा बुरा नहीं है। वैसे में जो औरत अच्छा व्यंजन बना कर परिवार (केवल पुरुष ही नहीं) को खिलाती है तो वह साधारण औरत के दायरे में नहीं आ सकती। इसका मतलब है कि वह अपने जिम्मेवारी का निर्वाह अच्छे से कर रही है।
    बेशक़ कुछ नगण्य प्रतिशत ही सही पर आज के दौर में पुरुष- नारी प्राकृतिक रूप से शारीरिक अंगों में अंतर और गर्भ धारण को छोड़ कर हर मामले में एक समान हैं, कहीं -कहीं तो बढ़ कर हैं।
    हाँ... अप्राकृतिक सौन्दर्य-प्रसाधन का प्रयोग यानि बनावटी दुनिया का आलम्बन और पूजा-पाठ के नाम पर अंधपरम्परा को ढोना ये दोनों उस तथाकथित "साधारण औरत" के साथ-साथ अगर "असाधारण औरत" भी करती है तो हास्यस्पद, सोचनीय और शर्मनाक है।
    बच्चे तो प्राकृतिक रूप से सृष्टि की नई कड़ी की एक वजह है।
    नारी के सपने पुरुष के साथ ठोंके जाने की वज़ह उसकी आर्थिक परतंत्रता है।
    कई बार इन "साधारण औरत " के भी सपने आर्थिक परतंत्र होते हुए भी "ठोंके" नहीं "गुँथे" होते है ..... और कई बार "असाधरण औरत" भी कविता में वर्णित छोटेपन से ग्रसित रहती है ....

    ReplyDelete
  7. निःशब्द हूँ...

    ReplyDelete
  8. very beautifully expressed...great shweta ji

    ReplyDelete
  9. बहुत ही सुदर काव्य कल्प और शब्द संरचना देखने मिली. पर हाँ तथ्य आज के संदर्भ में बदल रहे हैं आज जब लिंगभेद हट रहा है वहाँ ये उद्धृत बंधन सही नहीं लग रहे. हाँ आज से 30-35 साल पहले के परिप्रेक्ष्य में यह सटीक हैं

    ReplyDelete
  10. समाज में आज भी साधारण औरतों की कमी नहीं है साधारण औरत ही नहीं ये भारतीय नारी कही जा सकती हैं और पुरुष प्रधान समाज में अभी भी इनकी डिमांड कम नहीं है....कोई पिता अपनी पुत्री को कोई भाई अपनी बहन को असाधारण
    बनाना चाहे परन्तु अब भी ज्यादातर पुरुष असाधारण पत्नी लाकर भी घर पर उससे साधारण होने की ही उम्मीद लगाते हैं...
    बहुत ही लाजवाब सृजन।

    ReplyDelete
  11. नारी विमर्श को लेकर एक हंगामा सा बरपा है , सिर्फ नारी ही नहीं पुरूष वर्ग भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहा है ।
    नारी को बेचारी बनाने में नारी की ये हमेशा दिमाग पर छाए रहने की प्रवृति ,दमदार भूमिका निभा रही है।
    साधारण और असाधारण का मापदंड क्या है,
    आपकी ही उम्र की औरतें मैंने देखी हैं , घर संभालना बच्चों को संभालना ये उनकी प्रवृत्ति में है ही नहीं ,उनके माता पिता अच्छे पैसे वाले हैं इसलिए वे सीधी असाधारण की श्रेणी में आ गई संयोग से ससुराल भी अच्छा मिल गया।
    "औरतें सिर्फ़ घर संभालने को नहीं होती" ऐसा उनके दिमाग में अच्छे से बैठा है ,
    रसोई और दूसरे कामों के लिए नौकर चाकर बच्चों के लिए ट्युटर ,गवर्नेंस या डे केयर।
    धन उपार्जन भी उनके लिए जरूरत नहीं हैं ,बस दिन भर कुछ भी करने के नाम पर घर से दूर , बिजनेस,किट्टी- पार्टी,,एंजियो ,समाज सेवा ,नाम अखबारों में फोटो ,स्वयं को तुष्टि ।
    घर में बड़े बुजुर्ग पुरी जिम्मेदारी से जुटे रहो कि सभी काम ठीक से हो रहे हैं या नहीं, बच्चों की केयर हो रही या नहीं ,तो सोचने वाला ताउम्र पिसता है ,
    और असाधारण कमाने वाली जीवन को तफरीह समझ खेल रही है ,उन्हें नौकरी की जरूरत नहीं, पर एक जरूरत मंद की जगह रोके बैठी हैं, और अपनी कमाई के गर्व में हाई फैशन पर अंधा धूंध खर्च रही हैं, बच्चे घर आओ तो मां घर नहीं पति आते तो मिल जाए जरूरी नहीं, बड़े लोग दो बात करने को तरस जाए, कमी कुछ नहीं !
    इधर इसका सबसे ज्यादा असर होता है ,साधारण कहलाने वाली स्त्रियों के दिमाग पर ,वे वैसे ही उन्म्मुक्त होने के फिराक में कुंठित होती हैं और कई बार आनन-फानन में ऐसा फैसला ले लेती है जो पुरे परिवार पर भारी पड़ता है, बच्चे नजर अंदाज होते हैं ,पति ,सास -ससुर से चख-चख बनी रहती है । स्वावलंबन के नाम पर कई दफा ऐसे फेर में पड़ती हैं कि संकट में फस जाती है ।आजादी और दिखावे के नाम पर अपना रहन- सहन सुधारने के चक्कर में अपना सारा बजट बिगाड़ देती हैं ,बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो जाता है, परिवार टूटते हैं ,बुजुर्गों का जीवन असाध्य हो जाता है ।
    और ऐसा जगह जगह हो रहा है क्योंकि कोई अपने आप को साधारण समझना नहीं चाहता ।
    नारी स्वावलंबन के नाम पर अजीबोगरीब अफरातफरी मची है , मिडिया, अखबार,सामाज सेवी संस्थाएं,नारी उत्थान संस्थाएं, सब को इस ढकोसले में शामिल होना है ,प्रगतिवादी और नारी हितचिंतकों में नाम दर्ज करवाना है ।
    ये सिर्फ शगल है ,झुठी हमदर्दी या चारा है स्त्री को स्त्रित्व से दूर रखने का इसमें मध्यमवर्ग बहुत कुछ दांव पर लगाए बैठा है ।
    ये सिर्फ एक भूल-भुलैया है मानसिक गुलामी की ।

    ReplyDelete
  12. अब समय के साथ पुरुष समाज की भी सोच बदलने लगी है। उन्हें अब चूल्हे-चौंका करने वाली कम,कदम से कदम मिलाकर चलने वाली जीवनसाथी की तलाश है,हाँ अभी भी पुरूष प्रधान घरों की कमी नही है और घर संभालने वाली साधारण महिलाओं की भी,जो आज भी उसी पुराने खोल में सिमटी हुई हैं। सुंदर और सार्थक प्रस्तुति श्वेता जी

    ReplyDelete
  13. ये कहाँ तक सही है ये तो आने वाला समय और समाज में बनने वाली धारणाएं ही बता पाएंगी ... ये जरूर तय है की ये रचना लम्बे समय जीवित रहेगी अपने सवाल ले कर और किसी न किसी समय भविष्य में इसका जवाब समाज को देना ही होगा ... बहुत कमाल की रचना है ...

    ReplyDelete

आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।