निर्जीव और बेजान
निष्ठुरता का अभिशाप लिये
मूक पड़ी है सदियों से
स्पंदनहीन शिलाएँ
अनगिनत प्रकारों में
गढ़ी जाती
मनमाना आकारों में
बदलते ऋतुओं में
प्रतिक्रियाहीन
समय की ठोकर में
बिना किसी शिकायत
निःशब्द टूटती-बिखरती
सहज मिट्टी में मिल जाती
गर्व से भरी शिलाएँ
हाँ, मैंने महसूस किया है
शिलाओं को कुहकते हुये
मूक मूर्तियों में गढ़ते समय
औजारों की मार सहकर
दर्द से बिलखते हुये
नींव बनकर चुपचाप
धरती की कोख में धँसते हुये
लुटाकर अस्तित्व वास्तविक
आत्मोत्सर्ग से दमकते हुये
आसान नहीं
सदियों
समय के थपेड़ों को
सहनकर
धारदार परिस्थितियों
से रगड़ाकर,टकराकर
निर्विकार रहना
अधिकतर शिलायें
खो देती है अपना स्वरूप
मिट जाती है यूँ ही
और कुछ
जो सह जाती है
समय की मार
परिस्थितियों का आघात
साधारण शिला से
असाधारण "शिव" और
शालिग्राम बनकर
पूजी जाती हैं
पारस हो जाती है।
#श्वेता सिन्हा
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (2ॉ7-08-2019) को "मिशन मंगल" (चर्चा अंक- 3440) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति
ReplyDeleteउम्दा रचना
सारगर्भित विचारों का एक संयोजित शब्दचित्रण ... हर निर्माण में समर्पण का अनिवार्य होना ... एक संकेत ... एक सन्देश ...
ReplyDeleteसाधारण शिला से
ReplyDeleteअसाधारण "शिव" और
शालिग्राम बनकर
पूजी जाती हैं
पारस हो जाती है।
बहुत सुन्दर सटीक ....
इन शिलाओं का भी नसीब ही तो होता होगा न कोई पूजनीय बन जाती है तो कोई वर्षों ठोकर खाती है...
बहुत लाजवाब सृजन
पत्थर तुम सिर्फ ठोकरों में नहीं रहते
ReplyDeleteशिव बन जाते हो जब मार छैनी हथोड़े की सहते।
बहुत सुंदर मानवीयकरण संवेदनाओं का गहरा चित्रण करती उत्तम रचना।
वाह! शिला को भी अपना ऐसा काव्यात्मक विवेचन मोहित कर सकता है. आपका कल्पनालोक और सटीक चिंतन की प्रक्रिया बेजोड़ हैं.
ReplyDeleteरचना बहुत अच्छी बन पड़ी है.
बधाई एवं शुभकामनाएँ.
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 27 अगस्त 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteवाह बेहद शानदार सृजन
ReplyDeleteवाह !लाज़बाब सृजन श्वेता दी
ReplyDeleteसादर
समय की मार
ReplyDeleteपरिस्थितियों का आघात
साधारण शिला से
असाधारण "शिव" और
शालिग्राम बनकर
पूजी जाती हैं
पारस हो जाती है।
वाह !! उत्कृष्ट सृजन श्वेता ।
वाह!!,श्वेता ,अद्भुत सृजन👍👍👍
ReplyDeleteशिलाएं जी उठती हैं अहिल्या बन कर भी ... शिव के अस्तित्व को जीती हैं शिलाएं ... कृष्ण के भावों से संचरित होती हैं शिलाएं ... उत्कृष्ट लेखन के शब्दों में भी उतरती हैं शिलाएं ...जैसे की इस रचना में ...
ReplyDelete,समय की ठोकर में
ReplyDeleteबिना किसी शिकायत
निःशब्द टुटती-बिखरती
सहज मिट्टी में मिल जाती।
वाह बहुत सुंदर ।
सहज भावों की प्रक्रिया।
उत्कृष्ट।
शिला एक ही रहती हैं लेकिन हर शिला का भाग्य तय करता हैं कि वो क्या बनेगी। पत्थर बनेगी या पूजी जाएगी। बहुत सुंदर रचना, श्वेता दी।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर श्वेता ! हम सब पत्थर-दिल वहशी भी, ख़ुद को तराश कर, देवी-देवता में ढाल सकते हैं.
ReplyDeleteवाह! अद्भुत।
ReplyDelete"..
और कुछ
जो सह जाती है
समय की मार
परिस्थितियों का आघात
साधारण शिला से
असाधारण "शिव" और
शालिग्राम बनकर
पूजी जाती हैं
पारस हो जाती है।
बहुत सुन्दर भाव |
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteवाह बेहतरीन रचनाओं का संगम।एक से बढ़कर एक प्रस्तुति।
ReplyDeleteविट्ठल विट्ठल विट्ठला हरी ॐ विठाला mp3 Download
आज तो शिला का रूप भी कुंदन सा दमका दिया आपने
ReplyDeleteये जादू तो आप जैसी प्रकृति की उपासक के लिए ही संभव है
वाह अनुपम सुंदर रचना
सादर नमन
वाह।शिला के दिल को भी पढ़ लिया अपने,उसके हृदय के उदगार को भली भांति व्यक्त किया हैं।
ReplyDeleteआसान नहीं
सदियों
समय के थपेड़ों को
सहनकर
धारदार परिस्थितियों
से रगड़ाकर,टकराकर
निर्विकार रहना
सादर
एक शिला से शालिग्राम तक का सफ़र ... का अनूठा शब्द-चित्रण ...
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