जहाँ हो बात इंसानियत की
मोहब्बत का एहतराम करते हैं
इंसान को इंसान समझकर
नेकियों के सजदे सरेआम करते हैं
मज़हबी दड़बों से बाहर झाँककर
मनुष्यता की पोथी,किताब बाँचकर
धर्म के नाम पर ढ़ोंग लाख़ करते हैं
काफ़िर कहलाने से हम भी डरते हैं
ठठरी लाशों संग बैठकर दो-चार पल
दीनों के सजदे सुबह-शाम करते हैं
बुतपरस्तों के शहर के पहरेदार
ज़ाबाज़ वतनपरस्त हरदम तैयार
बनती-मिटती सरहद की दीवारों में
सूनी कलाईयों,कोख की चीत्कारों में
ख़ामोशी से फ़र्ज़ निभाते वीरों के
वफ़ाओं के सज़दे बे-नाम करते हैं
धरा पर बहती संवेदनाओं की नदी
बुत मानवता को कहती रही सदी
जल,ज़मीन,जंगल हवाओं की मस्ती
कुदरत के रेशों से बुनी इंसानी बस्ती
साँसों के तोहफों में भूलकर दुख-दर्द
ज़िंदगी के सजदे हर जाम करते हैं
सुकून गँवाये जन्नत की ख़्वाहिश में
रब ढूँढ रहे इंसानों की आजमाइश में
ईमान की कैफियत,धर्म की दुहाई
जहन्नुम से खौफ़ज़दा,नर्क से रिहाई
आईने हक़ीक़त के देखकर अक़्सर
दिलों के सजदे हम बे-दाम करते है
#श्वेता सिन्हा
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में " सोमवार 23 सितम्बर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजिसका सजदा हो चाहिए बस उसी का नहीं करते हम।
ReplyDeleteहमें परवा नहीं कि हमारे हिस्से की गोली सीने पर कौन खा रहा है...हम सज़दे करते हैं उनके जो मूर्त के लिए हमें आपस में लड़वा रहा है।
खूबसूरत।
सुकून गँवाये जन्नत की ख़्वाहिश में
ReplyDeleteरब ढूँढ रहे इंसानों की आजमाइश में
ईमान की कैफियत,धर्म की दुहाई
जहन्नुम से खौफ़ज़दा,नर्क से रिहाई
आईने हक़ीक़त के देखकर अक़्सर
दिलों के सजदे हम बे-दाम करते है
लाजबाब सृजन......
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (24-09-2019) को "बदल गया है काल" (चर्चा अंक- 3468) पर भी होगी।--
ReplyDeleteचर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर लेखन
ReplyDeleteउम्दा भावाभिव्यक्ति
बहुत सारगर्भित और सटीक अभिव्यक्ति। लाज़वाब प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत गहरी बात ...
ReplyDeleteसब अपने से आगे की नहीं सीचना चाहते ... मतलब परस्ती मं रहते हैं सब ...ढोंग का बाज़ार गर्म करते हैं ...
धरा पर बहती संवेदनाओं की नदी
ReplyDeleteबुत मानवता को कहती रही सदी
जल,ज़मीन,जंगल हवाओं की मस्ती
कुदरत के रेशों से बुनी इंसानी बस्ती
साँसों के तोहफों में भूलकर दुख-दर्द
ज़िंदगी के सजदे हर जाम करते हैं.... वाह ! बेहतरीन सृजन दी
सादर
ख़ालिद हसन क़ादिरी जी की कुछ पंक्तियां आपकी निशब्द रचना के नाम श्वेता।
ReplyDeleteबहुत हैं सजदा-गाहें पर दर-ए-जानां नहीं मिलता
हज़ारों देवता हैं हर तरफ़ इंसां नहीं मिलता।
लाजवाब अनुपम आज जो मानसिकता चल रही है उसपर गहरा असर दार सृजन ।
साधुवाद।
बेहतरीन रचना श्वेता जी
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