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Tuesday, 24 September 2019

मौन अर्ध्य

विदा लेती
भादो की 
बेहद उदास शाम 
अनायास नभ के 
एक छोर पर उभरी
अपनी कल्पना में गढ़ी 
बरसों उकेरी गयी
 प्रेम की धुंधली तस्वीर में
तुम्हारे अक्स की झलक पाकर 
सूखकर पपड़ीदार हुये
कैनवास पर एहसास के रंगों का 
गीलापन महसूस कर
अवश मन 
तैरने लगा हवाओं में.....

मन अभिमंत्रित 
बँधता रहा तुम्हारे
चारों ओर 
मैं घुलती रही बूँद-बूँद
तुम्हारी भावों को
आत्मसात करती रही
तुम्हारे चटख रंगों ने
फीका कर दिया
जीवन के अन्य रंगों को,

अपनी साँसों में महसूस करती 
मैं अपनी प्रेम की कल्पनाओं को
यथार्थ में जीना चाहती हूँ 
छूकर तुम्हारी पेशानी
सारी सिलवटें 
मिटाना चाहती हूँ,
तुम्हारी आँखों में जमे 
अनगिनत प्रश्नों को 
अपने अधरों के ताप से
पिघलाकर स्नेह के बादल
बना देना चाहती हूँ
तुम्हारे मन के तलछट की
सारी काई काछकर
नरम दूब उगाना चाहती हूँ

पर डरती हूँ
कहीं मेरे स्पर्श करने से प्रेम,
खूबसूरत कल्पनाओं 
की रंगीन शीशियाँ,
कठोर सत्य की सतह पर
लुढ़ककर बिखर न जाये
रिसती,निर्बाध बहती
पवित्र भावनाओं
को मेरे छुअन का संक्रमण 
अभिशप्त न कर दे।

सोचती हू्ँ...
अच्छा हो कि
मैं अपनी स्नेहसिक्त
अनछुई कल्पनाओं को
जीती रहूँ
अपनी पलकों के भीतर
ध्यानस्थ,चढ़ाती रहूँ अर्ध्य 
मौन समाधिस्थ
आजीवन।

#श्वेता सिन्हा








22 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 25 सितंबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. वाह बहुत सुंदर, मन के कैनवास पर एहसास की अनछुई तस्वीर हर बार की तरह लाजवाब , अनुपम।

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  3. बहुत ही सुन्दर सृजन अंतस्थ के भावों को मन के कैनवास पर बहुत ही बारीकी से उकेरा गया है |
    सादर

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  4. वाह!श्वेता ,आपकी हर रचना लाजवाब होती है ।
    पर डृती हूँ ,कहीं मेरे स्पर्श करने से प्रेम
    खूबसूरत कल्पनाओं की रंगीन शीशियाँ ,
    कठोर सत्य की सतह पर ,
    लुढक कर न बिखर जाए ....वाह!!क्या बात है ।

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  5. कल्पनाएँ जब जीवित अवशता लगने लगें तो सच से डर लगता है कई बार ...
    पर फिर प्रेम की कल्पनाएँ हों तो कौन तोडना चाहे ...
    सुन्दर भाव ...

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  6. मैं अपनी स्नेहसिक्त
    अनछुई कल्पनाओं को
    जीती रहूँ
    अपनी पलकों के भीतर
    ध्यानस्थ,चढ़ाती रहूँ अर्ध्य
    मौन समाधिस्थ
    आजीवन।
    शब्दों की गंगा वर्जनाओं के घेरे पार करती है जब-जब, तब-तब सृजित होती हैं .... ऐसी ही कुछ रचनायें
    बहुत बहुत बधाई अनुजा इस उत्कृष्ठ सृजन के लिये

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  7. अद्धभुत लेखन इस छोर से उस छोर तक

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  8. बेहतरीन प्रस्तुति

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  9. वाह श्वेता ,बेहतरीन !!

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  10. बेहतरीन अपने भावों को उकेरा है

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  11. शब्द शब्द अंतःकरण को छूटा हुआ ,लाजबाब ....

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  12. "अपनी पलकों के भीतर
    ध्यानस्थ,चढ़ाती रहूँ अर्ध्य
    मौन समाधिस्थ
    आजीवन।"...
    क़ुदरत की हर सृष्टि मौन और भौतिक आँखों से ओझल ही होती है। चाहे किसी प्राणी का सृजन हो या किसी पौधे या वृक्ष के बीज का अंकुरण ... फिर भला प्यार का सृजन भी इस से अछूता कैसे रह सकता है भला ... और फिर यह आजीवन ही क्यों !? ...जीवनपर्यन्त भी सृष्टि की पीढ़ी दर पीढ़ी के गढ़न की तरह सिलसिला रुकता कहाँ है इसका भला ....

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  13. मन अभिमंत्रित
    बँधता रहा तुम्हारे
    चारों ओर
    मैं घुलती रही बूँद-बूँद
    तुम्हारी भावों को
    आत्मसात करती रही
    बहुत ही सुन्दर रचना सखी

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  14. तुम्हारे अक्स की झलक पाकर
    सूखकर पपड़ीदार हुये
    कैनवास पर एहसास के रंगों का
    गीलापन महसूस कर
    अवश मन
    तैरने लगा हवाओं में.....
    लाजवाब भावाभिव्यक्ति श्वेता 👌👌

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  15. बहुत ही खूबसूरत | शब्द संयाोजन में भावों के रेशे अलंकृत होते हैं|

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  16. मन अभिमंत्रित
    बँधता रहा तुम्हारे
    चारों ओर
    मैं घुलती रही बूँद-बूँद
    तुम्हारी भावों को
    आत्मसात करती रही
    तुम्हारे चटख रंगों ने
    फीका कर दिया
    जीवन के अन्य रंगों को,

    बहुत ह प्यारी रचना। ..और उतना ही प्यारा भाषा का प्रयोग। ...सच  बहुत ही रोमांचक लगी आपकी लेखन शैली 
    बधाई 

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  17. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति हैं,किसी भी वस्तु को कवि कितने मुख़्तसर अंदाज़ में देख सुन सकता हैं और बयान कर सकता हैं आपकी कविता से बख़ूबी ज़ाहिर हैं

    बँधता रहा तुम्हारे
    चारों ओर
    मैं घुलती रही बूँद-बूँद
    तुम्हारी भावों को

    सबसे सुंदर लगी ये पंक्तियां।
    सादर

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  18. कहीं वो आ के मिटा दें न, इंतज़ार का लुत्फ़,
    कहीं क़ुबूल न हो जाए, इल्तिजा मेरी.

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  19. वाह आदरणीया दीदी जी बहुत सुंदर पंक्तियाँ 👌।सच..भावों की सुंदर अभिव्यक्ति हृदय को छू गयी। अनुपम सृजन..वाह

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  20. काफी सामायिक रचना। सुंदर पंक्तियों से युक्त भावपूर्ण रचना।

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  21. वाह बेहतरीन रचना

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।