विदा लेती
भादो की
बेहद उदास शाम
अनायास नभ के
एक छोर पर उभरी
अपनी कल्पना में गढ़ी
बरसों उकेरी गयी
प्रेम की धुंधली तस्वीर में
तुम्हारे अक्स की झलक पाकर
सूखकर पपड़ीदार हुये
कैनवास पर एहसास के रंगों का
गीलापन महसूस कर
अवश मन
तैरने लगा हवाओं में.....
मन अभिमंत्रित
बँधता रहा तुम्हारे
चारों ओर
मैं घुलती रही बूँद-बूँद
तुम्हारी भावों को
आत्मसात करती रही
तुम्हारे चटख रंगों ने
फीका कर दिया
जीवन के अन्य रंगों को,
अपनी साँसों में महसूस करती
मैं अपनी प्रेम की कल्पनाओं को
यथार्थ में जीना चाहती हूँ
छूकर तुम्हारी पेशानी
सारी सिलवटें
मिटाना चाहती हूँ,
तुम्हारी आँखों में जमे
अनगिनत प्रश्नों को
अपने अधरों के ताप से
पिघलाकर स्नेह के बादल
बना देना चाहती हूँ
तुम्हारे मन के तलछट की
सारी काई काछकर
नरम दूब उगाना चाहती हूँ
पर डरती हूँ
कहीं मेरे स्पर्श करने से प्रेम,
खूबसूरत कल्पनाओं
की रंगीन शीशियाँ,
कठोर सत्य की सतह पर
लुढ़ककर बिखर न जाये
रिसती,निर्बाध बहती
पवित्र भावनाओं
को मेरे छुअन का संक्रमण
अभिशप्त न कर दे।
सोचती हू्ँ...
अच्छा हो कि
मैं अपनी स्नेहसिक्त
अनछुई कल्पनाओं को
जीती रहूँ
अपनी पलकों के भीतर
ध्यानस्थ,चढ़ाती रहूँ अर्ध्य
मौन समाधिस्थ
आजीवन।
#श्वेता सिन्हा
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 25 सितंबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteवाह बहुत सुंदर, मन के कैनवास पर एहसास की अनछुई तस्वीर हर बार की तरह लाजवाब , अनुपम।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर सृजन अंतस्थ के भावों को मन के कैनवास पर बहुत ही बारीकी से उकेरा गया है |
ReplyDeleteसादर
वाह!श्वेता ,आपकी हर रचना लाजवाब होती है ।
ReplyDeleteपर डृती हूँ ,कहीं मेरे स्पर्श करने से प्रेम
खूबसूरत कल्पनाओं की रंगीन शीशियाँ ,
कठोर सत्य की सतह पर ,
लुढक कर न बिखर जाए ....वाह!!क्या बात है ।
कल्पनाएँ जब जीवित अवशता लगने लगें तो सच से डर लगता है कई बार ...
ReplyDeleteपर फिर प्रेम की कल्पनाएँ हों तो कौन तोडना चाहे ...
सुन्दर भाव ...
बहुत उम्दा
ReplyDeleteमैं अपनी स्नेहसिक्त
ReplyDeleteअनछुई कल्पनाओं को
जीती रहूँ
अपनी पलकों के भीतर
ध्यानस्थ,चढ़ाती रहूँ अर्ध्य
मौन समाधिस्थ
आजीवन।
शब्दों की गंगा वर्जनाओं के घेरे पार करती है जब-जब, तब-तब सृजित होती हैं .... ऐसी ही कुछ रचनायें
बहुत बहुत बधाई अनुजा इस उत्कृष्ठ सृजन के लिये
अद्धभुत लेखन इस छोर से उस छोर तक
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteवाह श्वेता ,बेहतरीन !!
ReplyDeleteबेहतरीन अपने भावों को उकेरा है
ReplyDeleteशब्द शब्द अंतःकरण को छूटा हुआ ,लाजबाब ....
ReplyDelete"अपनी पलकों के भीतर
ReplyDeleteध्यानस्थ,चढ़ाती रहूँ अर्ध्य
मौन समाधिस्थ
आजीवन।"...
क़ुदरत की हर सृष्टि मौन और भौतिक आँखों से ओझल ही होती है। चाहे किसी प्राणी का सृजन हो या किसी पौधे या वृक्ष के बीज का अंकुरण ... फिर भला प्यार का सृजन भी इस से अछूता कैसे रह सकता है भला ... और फिर यह आजीवन ही क्यों !? ...जीवनपर्यन्त भी सृष्टि की पीढ़ी दर पीढ़ी के गढ़न की तरह सिलसिला रुकता कहाँ है इसका भला ....
मन अभिमंत्रित
ReplyDeleteबँधता रहा तुम्हारे
चारों ओर
मैं घुलती रही बूँद-बूँद
तुम्हारी भावों को
आत्मसात करती रही
बहुत ही सुन्दर रचना सखी
तुम्हारे अक्स की झलक पाकर
ReplyDeleteसूखकर पपड़ीदार हुये
कैनवास पर एहसास के रंगों का
गीलापन महसूस कर
अवश मन
तैरने लगा हवाओं में.....
लाजवाब भावाभिव्यक्ति श्वेता 👌👌
बहुत ही खूबसूरत | शब्द संयाोजन में भावों के रेशे अलंकृत होते हैं|
ReplyDeleteमन अभिमंत्रित
ReplyDeleteबँधता रहा तुम्हारे
चारों ओर
मैं घुलती रही बूँद-बूँद
तुम्हारी भावों को
आत्मसात करती रही
तुम्हारे चटख रंगों ने
फीका कर दिया
जीवन के अन्य रंगों को,
बहुत ह प्यारी रचना। ..और उतना ही प्यारा भाषा का प्रयोग। ...सच बहुत ही रोमांचक लगी आपकी लेखन शैली
बधाई
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति हैं,किसी भी वस्तु को कवि कितने मुख़्तसर अंदाज़ में देख सुन सकता हैं और बयान कर सकता हैं आपकी कविता से बख़ूबी ज़ाहिर हैं
ReplyDeleteबँधता रहा तुम्हारे
चारों ओर
मैं घुलती रही बूँद-बूँद
तुम्हारी भावों को
सबसे सुंदर लगी ये पंक्तियां।
सादर
कहीं वो आ के मिटा दें न, इंतज़ार का लुत्फ़,
ReplyDeleteकहीं क़ुबूल न हो जाए, इल्तिजा मेरी.
वाह आदरणीया दीदी जी बहुत सुंदर पंक्तियाँ 👌।सच..भावों की सुंदर अभिव्यक्ति हृदय को छू गयी। अनुपम सृजन..वाह
ReplyDeleteकाफी सामायिक रचना। सुंदर पंक्तियों से युक्त भावपूर्ण रचना।
ReplyDeleteवाह बेहतरीन रचना
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